जन धर्म में दान एक समीक्षात्मक अध्ययन लेखक उपाध्याय श्री पुष्कर मुन्त्रि सस्पादक श्री देवेन्द्रमुनि च्ञास्त्री अऔचन्द सुराना सरस? अप्रकादाक डक श्री तारकगुरु जन ग्रन्थालय श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय पुष्प * ८८ राजस्थानकैशरी अध्यात्मघोगी उपाध्याय भरी पृष्करसुनि अभिनन्‍्दन समारोह के उपलक्ष्य में प्रकाशित ] जैनघर्म में दान एफ समीक्षात्पफ अध्ययन 7] लेखफ उपाध्याय श्री पुष्करमुनि ए] भूमिका श्री विजयभुनि शास्त्री [-] स्म्पादक श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्रीचन्द सुराता 'सरस' [] पृष्ठ सच्या ५९६ [ै] भषमावृत्ति वि० स० २०३४, आशएशिवन शुक्ला चतुर्देशी अक्टूबर १६९७७ ] घुद्रफ श्रीचन्द सुराना के लिए दुर्गा प्रिंटिंग वक्‍्स, आगरा-४ ए अभिनन्दन समारोह के उपलक्ष्य मे प्राप्त सहयोग से रियायती के भसात्र बीस रुपये मर एड, 20| आए प्रकाशक की ओर से अपने विचारशील पाठको के पाणि-प्मों में जैन धर्म मे दान एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए अत्यन्त प्रसन्‍नता है । दान! दो अक्षरों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण शन्द है जो हृदय को बिराद बनाता है, मन को विशाल बनाता है और जीवन को निर्मेल वनाता है। भारतीय घमे-दर्शेन, और सस्कृति भे दान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। दान धर्म का प्रवेश द्वार है । बिना दान दिये धर्म मे प्रवेश नही हो सकता | दान से आत्मा का अन्धकार नष्ट होता है। अन्तर के अन्धकार को नष्ट करने के लिए दान सूर्य के समान है। कलियुग में दान से वढकर धर्म नही है। एक पाश्चात्य विचारक ने लिखा है--/०ए ज० 806" जाए ०8 गक्यात, 88006" जाता ०, ०धाधह़ ग्रापा॥9॥68 80 पाप 88 ाठंग्र०8 अर्थात्‌ जो एक हाथ से बाँटता है वह दोनो हाथो से प्राप्त कर लेता हैं, दया-दान की तरह वृद्धि पाने वाली अन्य वस्तु नहीं है । विश्व में दान के सहश अन्य कोई वस्तु नहीं है जिसका ग्रुणाकार होता हो । एक अन्य विश्वारक ने भी कहा है--8 0800 (08 87768, 82705 जर्थात्‌ जो अपने हाथ से दान देता है बह इकट्ठा करता है। अत दान का गहरा महत्त्व है। परमश्रद्धेय. उपाध्याय अध्यात्मयोगी प्रसिद्धवक्ता श्री पुष्कर मुन्रि जी भह्दाराज वर्तमान युग के एक प्रसिद्ध विचारक सन्त हैं। ध्यानयोग तथा साधना के क्षेत्र में उतकी विशिष्ट उपलब्धि है। वे गम्भीर विद्वान, गहन आत्मज्ञानी, ओजस्वी वक्ता, प्रखर कवि, विशिष्ट चिन्तक और सुलेखक हैं । आपश्री की प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर है। जब किसी भी विषय पर आप बोलते है तो श्रोता भापके अमृतोपम वचनों को सुनते हुए कभी भी थकावट या व्यग्रता का अनुभव नहीं करते । गम्भीर से गम्भीर विषय को इतना सुन्दर, सरस, सरल और मधुर बनाकर भ्रस्तुत करते हैं कि श्रोता झूम उठते हैं। धर्म का कल्पवृक्ष, ज्रावक घर्मदर्शन, सस्क्ृति के स्वर, रामराज्य, मिणखपणा रो भोल, ओकार एक अनुचिन्तन आदि आपकश्री के प्रवचनो की अनूठी पुस्तकें हैं जिनमे विविध विषयो का साग्रोपाग विवेचन है। उनका सम्पादन श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री द्वारा हुआ है जो सोने मे सृगन्‍न्ध की कहावत चरितारथ करता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में आपश्नली के द्वारा समय-समय पर किये गये दान सम्बन्धी प्रवचनो का सकलन, आकलन ओर सम्पादन है | जहाँ एक ओर ग्रम्भीर विश्लेषण है ा डी ( ४ ) वहाँ दूसरी ओर रूपक, हृष्टान्त आदि के द्वारा विषय को स्पष्ट किया गया है। भत्येक प्रवचन से आपश्री की गम्भीर विद्तत्ता झलक रही है। दान के सम्बन्ध में बहुत प्रच- लित अआअआँतियाँ और अज्ञानमुलक धारणाओ का निरसन किया है। और दान के सम्बन्ध मे अपने सौलिक विचार भी रखे हैं जो नयी पीढी के विचारणील युवकों के लिए पठ्नीय और मननीय है । दान के सम्बन्ध मे आज तक जो कुछ लिखा गया सक्षिप्त ही था, किन्तु दान के सम्बन्ध में सर्वांगीण दृष्टिकोण से आज तक लिखने का प्रयत्न नही हुआ । वस्तुत यह अपने विपय का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है--यदि यह कह दिया जाय तो अतिशयोक्ति न होगी । प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक है देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री जो गुरुदेव श्री के प्रधान अन्‍्तेवासी हैं! और दूसरे सम्पादक हैं श्रीचन्दर जी सुराणा 'सरस” जो सम्पादन कला में दक्ष हैं । इन सम्पादको ने तो इन प्रवचनों का विस्तारपुर्ण सम्पादन कर इसे एक शोघ-प्रबन्ध का ही रूप दे दिया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में स्नेहमूरति मुनि श्री नेमिचन्द्र जी का भी हादिक सहयोग मिला है| प्रसिद्ध विचारक सन्त श्री विजय भुनि जी शास्त्री ने महत्त्वपूर्ण भूमिका लिख- कर ग्रन्थ की गरिमा में वृद्धि की है, हम उनके प्रति कछृतज्ञ हैं । भस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में हमे जिन दानी सहानुआभावो का आर्थिक सहयोग सम्प्राप्त हुआ है, उसे भी हम विस्मृत नही हो सकते जिसके कारण ग्रन्थ शीघ्र सुद्रित हो सका है| हम उन सभी का हादिक आभार मानते हैं जिसके कारण ग्रन्थ प्रकाश में आ सका । पूज्य गुरंदेव श्री की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहले अवसर पर श्री तारक गुरु प्रन्यालय ने भहत्त्वपूर्ण श्रेष्ठ ग्रन्थो का प्रकाशन कर अपने श्रद्धा के सुमन प्रस्तुत किये है । उसी लडी की कडी मे भ्रस्तुत ग्रन्थरत्न भी हैं। इस सुनहरे अवसर पर ग्रुरुदेव श्री की फथाएँ, काव्य, निबन्ध और प्रवचन साहित्य का प्रकाशन करना हमारा सलक्ष्य है। और हमे जाजह्लाद है कि हम अपने लक्ष्य की जोर निरन्तर बढ रहे हैं।जेन कथाओं के तीस भाग, ज्योतिर्घर जैनाचायं, विमल विभूतियाँ, जैन आगम साहित्य सनन और भीसासा, शूली और सिहासन, सोना और सूगन्ध, जम्बूस्वामी, ऋषभदेव_ एक परिशीलन, असर ज्योति जादि ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। तथा अन्य अनेक ग्रन्थ प्रेस भे हैं जो शीक्म ही प्रकाशित होगे । जाशा ही नही अपितु हढ विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थरत्न का सर्वेत्र स्वागत होगा---शइसी आशा और विश्वास के साथ यह ग्रन्थरत्न समर्पित कर रहे हैं । सन्त्री थी तारक गुर जैन प्रन्यालय उदयपुर डाड 6-8 58 5 ध्ी ४४ भगवान भह्ावीर का प्रथम समवसरण मध्यमपावापुरी में हुआ । भारतवर्ष के दिग्गज वैदिक विद्वान इन्द्रभूति गौतम विजिगीषु बनकर संमवसरण में आाये।! जैसे- जैसे वे प्रभु के निकट आये विनम्र होते गये । श्रमण भगवान महावीर ने गौतम के अन्तर्‌ मन में छुपे सन्देह का निराकरण करते हुए कहा--गौतम ! जीव के अस्तित्व के विषय में क्या तुम अभी भी सन्देहशील हो ? जबकि तुम्हारे अधीत वेद व उपनिषद्‌ के वाक्य स्पष्ट ही उसका अस्तित्व घोषित करते हैं।” उदाहरण देकर भहावीर ने बताया---'उपनिषद्‌ के एक प्रसंग में कहा है--देव-असुर-मनुष्यो ते मिलकर एक बार ब्रह्मा से पृूछा--हमे करतंव्य-ज्ञान दीजिए । हम क्या करें ?” ब्रह्मा ने 'द' 'द' 'द' की ध्वनि की देवताओं ने इसका आशय समझा 'इन्क्रिय- दमन' करो । असुरो ने इसका अर्थ लगाया--जीवो पर “व्या' करो। मनुष्यों को बोध प्राप्त हुआ--दान! करो (बाटकर खागो) | “ज्ौतम * दशन, दया जौर दान--कौन करेणा ? अगर जीव (अप्पा) न होगा ।” प्रसग लम्बा है, अन्त मे प्रबुद्ध गौतम महावीर के शिष्य बन गये । इस प्रस्तावना के बाद हम कहना चाहते हैं कि मनुष्यो के लिए दान! का उपदेश सृष्टि का सर्वप्रथम उपदेश माना गया है। “दान मनुष्य के सहमस्तित्व, सामाजिकता भौर अन्तर्‌ मानवीय सम्बन्धो का मूल घटक है। कही वह 'सविभाग', कही 'सम-विभाग' कही त्याग, और कही सेवा” के रूप में प्रकट होता है। “दान इसलिए नही दिया जाता कि इससे व्यक्ति बडा बनता है, भतिष्ठा पाता है, या उसके अहकार की तृप्ति होती है, अथवा परलोक मे स्वर्ग, अप्सराएँ तथा समृद्धि मिलती है। किन्तु दान! में आात्मा की करुणा, स्नेह, सेवा, बधुत्व जेसी पवित्र मावनाएँ लहराती है, दान से मनुष्य की मनुष्यता तृप्त होती है, देवत्व की जागृति होती है और ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति जगती है। यह कहना कि दान का महत्व भारतवर्ष मे ही अधिक है, गलत होगा । ससार के भत्येक घमें, सम्प्रदाय अथवा घामिक आस्था से रहित समाज में भी दान की परम्परा है, रही है ओर इसकी आवश्यकता तथा उपयोगिता मानी जाती है। हाँ, चूँकि भारतीय मनीषा प्रारम्म से ही चिन्तनशील व वैज्ञानिक रही है, अत वह किसी भी वस्तु को धर्म मानकर उसका अन्धानुकरण नही करती, अपितु उस पर दाशंनिक और ताकिक हृष्टि से भी विचार करती है। उसके स्वरूप प्रक्रिया, विधि, देश-काला- नुसार उपयोगिता, ग्रुण-दोप आदि समस्त पहलुओ पर चिन्तन कर घर्म-अधर्म का ( ६ ) निर्णय करने मे भारतीय चिन्तक विश्व मे सदा अग्रणी रहे हैं। दान” जैसे जीवन और जगत्‌ से अटूट सम्बन्ध रखते वाले विपय पर भी भारतीय विचारकों ने भौर खासकर जैन मनीषियो ने व्यापक चिन्तन किया है, तकं-बचितर्क कर उसमे गुत्थियाँ पैदा मी की हैं और उन्हें घुलझाई भी है । दान" को अमृत और मुक्ति का प्रथम सोपान कहने वाले जैन आवचायोँ ने दान” के सम्बन्ध में जो चिन्तन प्रस्तुत किया है, जो वहुमुखी विचार-चर्चाएँ की हैं वह भारतीय विचार साहित्य की अद्वितोय निधि कही जा सकती है। वैसे तो अनेकातवादी जैन मतीषियों का यह जन्मसिद्ध विचार है--“अनेकधर्मात्मक वस्तु” वस्तु, पदार्थ के अनेक पहलू द्वोते हैं, त्व फिर यह सहज ही है कि वे प्रत्येक वस्तु के क्षमिक पहलुओो पर विचार करें, उसे अनेक हृष्टिकोणों से परखें, पहचानें और गहराई तक जाकर उसकी छानवीन कर सभी स्वरूपो का विवेचन करें--एक निष्ठावान वैज्ञानिक की भाँति । उपाध्याय अध्यात्मयोगी राजस्थानकेसरी श्री पुष्कर सुनि जी महाराज जैन धमम और दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान्‌ महान चिन्तक हैं। जैन समाज आपकी के शील- स्वभाव ओर गम्भीर विद्ता से भलीभाँति परिचित हैं। आपश्री अपने युग के सुप्रसिद् दाशनिक, विचारक और तत्त्वचिन्तक हैं। आपकी जब किसी भी विषय पर बोलते हैं या लिखते हैं तो साधिकार लिखते हैं, उस विषय के अन्तस्तल तक पहुँचते हैं, और अन्तस्तल तक पहुंचकर अपनी प्रखर प्रतिभा से देखते हैं कि इसमे तर्कसगत कितना तथ्य हैं ओर तकंहीन कितना । तकंहीन की उपेक्षा कर तकंसगत सत्य और तथ्यों को अभिव्यक्ति देते हैं प्रस्तुत ग्रन्थ में गुरुदेवश्नी के छारा समय-समय पर दिये गये दान सम्बन्धी प्रवचनो का सकलन है । और कुछ उनके निबन्ध तथा दान के सम्बन्ध मे लिखे गये उनकी डायरियो के नोट्स के आधार पर विवेचन तैयार किया गया है। इस प्रकार दान सम्बन्धी सस्पूर्ण विचारधारा जो सद्शुसदेवक्षी की थी, उसका आकलन इसमे किया गया है। सद्गुरुदेवश्षी के विचारो को व उनके ग्रम्भीर चिन्तन को व्यवस्थित रूप देना हमारा काये रहा है। इस सम्पादन कार्य मे पष्डित प्रवर स्नेह सौजन्यमृर्ति सुनिश्ची नेमिचन्द्र जी स० का अच्छा सहयोग भ्राप्त हुआ है । अत हम उन्हे भी साधु- वाद प्रदान करते हैं । अस्तुत भ्रन्थ मे तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड से दान के विविध लाभ, उसकी गौरव गरिमा आदि विषयो पर विचार किया गया है। जैन एव जनेतर विचारको मे दान की भहिमा पर भरपूर लिखा है। उन्होने विविध लाभो पर चिन्तन करते हुए पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अन्तर्रोष्ट्रीय हितो पर भी विचार करते हुए बह बताया है कि दान सम्पूर्ण मानव जाति का माधघारभूत तत्त्व है। मानव का ही नही, “णु-पक्षियो का भो वह जीवन तत्त्व है। दान के बिना उनकी जीवन गति द्वी मबरुद्ध ( ७ ) हो जाती है। स्वामी रामतीथे ने कहा-- दान देना ही आमदनी का एकमात्र द्वार है। पाश्चात्य चिन्तक विक्टर हाय गो ने लिखा है--ज्यो-ज्यो घन की थैली दान मे खाली होती है दिल भरता जाता है--88 ४0 एए86 28 धााए0600 9 ॥6थ्वा। 8 गिा60 अत 90७ जशाताणा 8 7रणाष्टा।. “कुछ भी विचार किये बिता देते जाओ ।” प्रार्थना मन्दिर में जाकर प्रार्थथा के लिए सौ बार हाथ जोडने के बजाय एक बार दान के लिए हाथ ऊपर उठाना अधिक महत्त्वपूर्ण है द्वितीय खण्ड मे दान की परिभाषा और उसके भेदोपभेद पर विचार किया गया है। भगवान भहावीर से लेकर वर्तमान तक दान कौ जितनी महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ की गयी हैं उन पर व्यापक हृष्टि से चिन्तन-मनन प्रस्तुत किया गया है और उनके गम्भीर रहस्यो को भी उद्घादित करने का प्रयत्न किया गया है। दान के भेंद-प्रमेद के सम्बन्ध मे भी जैनाचार्यों ने विशेष कर दिगम्बराचार्यों ने बहुत ही विस्तारपुर्वंक चर्चाएँ की हैं। आचार्य जिनसेन, आचाये अमितगति, आचाय॑ बसुनन्दि आदि में इस विषय पर विस्तृत चिन्तन प्रस्तुत किया है । यहाँ पर सदुगुरुवर्य ने दोनो ही परम्पराओ के आचारयों का चिन्तत प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक अपनी-अपनी हृष्टि से उन पर सोच सकें । तृतीय खण्ड में पात्र, विधि और द्रव्य-दान के तीन महत्त्वपूर्ण अगो पर विविध हृष्टि बिन्दुओ को सामने रखकर चर्चा की ग्रयी है। दान का सस्पूर्ण दर्शन इन तीन ही तत्त्वो पर ठिका हुआ है। और इस विषय में परम्परागत विचार भेद भी कई हैं । सद्गुरुदेव का प्रयत्न यह रहा है, साम्प्रदायिक भेदों को भहृत्त्व न देकर शास्त्रीय व व्यावहारिक हृष्टि से उस पर चिन्तन किया जाय । सिर्फ व्यक्ति-विशेष तक दान' को सीमित न रखकर सम्पूर्ण प्राणि जगरतू के लिए इस अमृत (दानामृत) का उपयोग होना चाहिए । दान जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर गुरुदेव श्री का तैयार किया हुआ प्रस्तुत विवेचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गुरुदेव श्री के प्रवचन तथा विवेचन की शब्द सज्जा व काट-छाँट आदि का दायित्व हमे सौपा गया, यह उनका बात्मीय स्नेह तथा सदभाव है जो हमारी प्रसन्नता का विषय है। हम अपने दायित्व को निभाने मे कहाँ तक सफल हुए हैं, इसका निर्णय प्रबुद्ध पाठको के हाथ मे है। यदि शास्त्रीय हृष्टि से कही पर स्खलना, वैचारिक भूल या कही पर आपूर्णता रही हो तो पाठक स्नेह सदुभावना के साथ हमे सूचित करें ताकि भूल का परिष्कार किया जा सके । भुरुदेव श्री का अन्य प्रवचन साहित्य भी हम शीघक्ष ही सम्पादित कर भ्रस्तुत करेंगे जिससे पाठक गुरुदेव श्री के विराट्‌ व विमल विचारो से परिचित हो सके । दिनाक २१-१०-७७ --बेवेस्रमुनि विजया-दशमी --शओघन्द सुराना प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाशन में अर्थ सहयोगी की पुण्य स्मृति में द्वारा--भोहन प्लास्टिक्स १०, ओ० के० रोड, बेंगलोर-५६०००२ ७ ३ स्व० श्रीसान हस्तीमल राका तथा स्व० श्री वशराज जी राका 5 ५ ४ कि ५३७ ३६५ १७ * (६, ५ ४ $ एफ्बहीत | १५५ रु भ३६ ३७१ का ताज लीजणंओ??)७८,नओ,,&)्‌यओक्‍नक्‍इन-त+++ !] १ भर पे 0 ३ रे हे ऐ ॥! 00५३५ शेर २ हा ५, पे के रह ; ( ६४ 0५) मे 2 ! है हु] (३९ ५) पे प भध 8) 5 " ५ | | रे हर है है कप | शो ह ञ ; हक ; | हे |) है आर] |) ४ हे | मै, है 0 | + छ पे फ ५ ऐ; हे ॥,४ (५ गे पे 3 । श हर १ २४) 7 ५ ५ छ । 5 ५४ | है पा] | है) ; ५ 0 3५ ) ; $। ४ | भरे / है पं कील बनन-सन> मन +४ धर्मप्रेमी सु्वक गुरुभक्त स्व० श्रीमान हस्तीसलजी राका ( गढसिवाना ) धम्मंप्रेमी सुआवक स्व० श्रीमान बद्राज जी राका ( गढसिवाना ) प्रस्तुत ग्रन्थ के उदार अर्थ सहयोगी श्रीमान्‌ घिसुलाल जी साहब रांका एक परिचय >> जिसका जीवन अगरवत्ती की तरह सुगन्धित, मोमबत्ती की तरह प्रकाशित और मिश्री की तरह मधुर है| वही जीवन भारतीय मस्कृति में आदरणीय और स्मरणीय माना गया है। श्रीमान धर्मप्रेमी सुआ्ावक सेठ घिसुलाल जी साहव राका का जीवन इसीप्रकार का जीवन है। युवक होने पर भी आपकश्री के मन में धर्म के प्रति गहरी निष्ठा है। आप राजस्थान मे गढसिवाना के निवासी है | आपके पूज्य पिताश्री का नाम श्रीमान हस्तीमल जी साहव था । जो बहुत ही समझदार, विवेकणील, धर्मप्रेमी श्रावक थे । आपकी पूजनीया मातेश्वरी का नाम खमाबाई है, जो स्वभाव से सरल, प्रकृति से भद्र, उदार हृदयी और धर्मानुरागिणी है। आपके लघु भ्राता का नाम मोहनलाल जी है । आपश्री के तीन पुत्र है--सु रेश- कुमार, राजेन्द्रकुमार और सजयकुमार तथा मोहनलाल जी के एक पुत्र है अरबविन्दकुमार । आप दोनों ही भाइयो में राम-लक्ष्मण की तरह प्रेम है । श्रीमान हस्तीमल जी साहव के ज्येप्ठ म्राता श्रोमान हजारी- मल जी साहब ये और उनके सुपृत्र मुल्तानमल जी साहब थे। जो स्वभाव से सरल, भद्र व धर्मनिष्ठ थे। जिन्होंने वल्लारी के जैन स्थानक के भव्य भवन के निर्माण हेतु अत्यधिक श्रम किया था अनेक वाधाओ के वावजूद भी आपने अन्त में सथानक का कार्य पूर्ण करवाया | श्रीमान हस्तीमल जी माहब के लघु जाता वशराज जी साहव थे। वे भी धर्मनिप्ठ और ग्रुरुभक्त थे। उनके सुपुत्र वावुलाल जी है। वाबूलाल जो के--अशोककुमार, प्रवीणकुमार और विनयकुमार ये तीन पुत्र है। श्रीमान घिसुलाल जी, वावूलाल जी और मोहनलाल जी तीनो भाइयो मे धर्म के प्रति अत्यधिक आस्था है | आप राजस्थान केसरी अष्यात्मयोगी उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पृष्करमुनि जी महाराज के परम भक्तो मे से है आप तीनो का व्यवसाय सम्मिलित रूप से है । आपका व्यवसाय कर्णाटक में पहले बललारी में “हजारीमल हस्तीमल एण्ड सनन्‍्स” के नाम से था | आपने वहा पर प्रामाणिकता के साथ व्यापार कर जन-मानस का आदर प्राप्त किया। सम्प्रति बेगलोर मे-- मोहन प्लास्टिक्स, १०, ओ० के रोड, बेंगलोर-५६०००२ के नाम से आपका व्यवसाय है । सामाजिक, धाभिक, राष्ट्रीय और सास्क्ृतिक कार्यो के लिए आप उदारता के साथ समय-समय पर दान प्रदान करते रहते है । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशम मे आपका स्नेहपुर्ण आधिक सहयोग सप्राप्त हुआ है। जिसके कारण ग्रन्थ का मुद्रण शीघ्रता से सम्भव हो सका है । भविष्य मे भी आपका सहयोग सदा मिलता रहेगा, इसी मगल आशा के साथ | “ चुन्नीलाल धर्मावत श्रो तारकगुरु जंन प्रत्यालय, शास्त्री सर्कल उदयपुर (राजस्थान) ७->.+_ ५७०७० कक ७० जनम, की छफाजएपा ्। 767" 42 ८57 # 7225 द््क &&# ए. & 2/०9८७ ४०८४ “ आरतीय साहित्य में दान की महिमा १४20 23% “7 7 --विजय सुनि, शाल्त्रो (मारत के समस्त धर्मों में, इस तथ्य में किसी भी प्रकार का विवाद नही है, कि 'दानों एक महान्‌ धर्म है। दान की ध्यासत्या अलग हो सकती है, दान की परि- भाषा विभिन्न हो सकती हैं, और दान के भेद-प्रमेद भी विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं, परन्तु दान! एक प्रशस्त घमम है” इस सत्य में जरा भी अन्तर नहीं है। दान चर्म, उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी मानव-जाति है) मानव-जाति भे, दान कब से प्रारम्भ हुआ ? इसका उत्तर सरल न होगा । परन्तु यह सत्य है, कि दान का पूर्व रूप सहयोग ही रहा होगा । सकट के अवसर पर मनुष्यों ने एक-दूसरे को पहले सहयोग देना ही सीखा होगा | सहृअस्तित्व के लिए परस्पर सहयोग आवश्यक भी था । सहयोग के अभाव में समाज में सुहढता तथा स्थिरता कैसे भा पाती ? प्माज में सभी प्रकार के मनुष्य होते थे---दुबंल मी और सबल भी । अशक्त मनुष्य अपने जीवन को कैसे घारण कर सकता है ” जीवन धारण करने के लिए भी पाक्ति की आवश्यकता है । शक्तिमान्‌ भनुष्य ही अपने जीवन को सुचारू रूप से चला सकता था, मौर वह दुर्बल साथी को सहयोग भी कर सकता था। यह 'सहुयोग' समानता के आधार पर किया जाता था, और बिना किसी प्रकार की शर्ते के किया जाता था | न तो सहयोग देने वाले मे अहभाव होता था, और न सहयोग पाने वाले में दैन्य भाव होता था । भगवान महावीर ने अपनी भाषा में, परस्पर के इस सहयोग को “सविभाग' कहा था। सविभाग का अर्थ है---सम्यक्‌ रूप से विभाजन करना । जो कुछ तुम्हे उपलब्ध हुआ है, वह सब तुम्हारा अपना ही नही है, तुम्हारे साथी का तथा तुम्हारे पडोसी का भी उसमे सहभाव तथा सहयोग रहा हुआ है । महावीर के इस 'सविभाग' भे ने अहका भाव है, और न दीनता भाव। इसमें एकमात्र समत्व भाव ही विद्यमान है। लेने वाले के मन मे जरा भी ग्लानि नही है, क्योकि वह अपना ही हक ग्रहण कर रहा है, और देने वाला भी भ्रही समझ रहा है, कि मैं यह देकर फोई उपकार नही कर रहा हूँ | लेने वाला मेरा अपना ही भाई है, कोई दूसरा नही है। तो, यह सविभाग शब्द अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है बाद में आया 'दान' शब्द । इसमे न सहयोग” की सहृदयता है, भौर न सविभाग की व्यापकता एवं दाशशनिकता ही है। आज के युग में दान शब्द काफी बदनाम हो चुका है। देने वाला दाता देता है, अहकार में भरकर भौर लेने वाला ( १० ) ग्रहीता लेता है, सिर नीचा करके । देने वाला अपने को उपकारी मानता है और लेने वाला अपने को उपक्ृत । लेने वाला बाध्य होकर लेता है, और देने वाला भी दवाव से ही देता है । आज के समाज फी स्थिति ही इस प्रकार की हो गई है, कि लेता भी पठता है, और देना भी पडता है। न लेने वाला प्रसन्न है, और न देने वाला ही । यही फारण है, कि 'दान' शब्द से पूर्व कुछ विशेषण जोड दिए गए हैं--“कदुणा दान, अनुकस्पादान एवं कीतिदान आदि |” दान! धाव्द का अर्थ है--देता। क्या देवा ? किसको देना ? क्यो देना ? इसका कोई अर्थ-घोध दान शब्द से नही निकल पाता | शायद, इन्ही समस्याओं के समाधान के लिए 'दान' शब्द को युग-युगाल्तर में परिभापित करना पड़ा है । परन्तु कोई भी परिभाषा 'दान! शब्द को बाँघने मे समर्थ नहीं हो सकी । दान” शब्द के सस्वन्ध मे भेद-प्रमेंद होते ही रहे हैं, मत-मतान्तर चलते ही रहे हैं, वाद-विवाद बढते ही रहे हैं। धर्म के भवन में, भमतवाद की जो भयकर जाग एक बार भभक उठती है, वह कभी भी बुझ नही पाती । दान फी मान्यता पर मतभेद दान की मान्यता के सम्बन्ध मे, जो मतवाद की जाग कभी प्रज्वलित हुई थी, उसके तीन विस्फोटक परिणाम सामने आए---(१) दान पुण्य का कारण है, (२) दान पाप का कारण है और (३) दान घर्म का कारण है । जो लोग दानव को शुभ भाव भानते हैं, उनके अनुसार दान से पुण्य होगा और पुण्य से सुख | जो दान को अशुभ भाव मानते हैं, उनके अनुसार दान से पाप होगा, पाप से दु ख | शुभ उपयोग पुण्य का हैतु है और बशुभ उपयोग पाप का । पुण्य भर पाप--दोनो आज्चव हैं, संसार के कारण हैं। उनसे कभी धर्म नहीं हो सकता । धर्म है, सवर । धर्म है, निर्जरा | सवर और निजेरा--दोनो ही भोक्ष के हेतु हैं, सस्तार के विपरीत, मोक्ष के कारण हैं । तब, दान से ससार ही मिला, भोक्ष नहीं। दान का फल मोक्ष कैसे हो सकता है ? इस मान्यता के अनुसार दान, दया, न्नत और उपवास आदि पुण्य बन्ध के ही कारण हैं । क्योकि ये सब शुभ भाव हैं । इसके विपरीत एक दूसरी मान्यता भी रही है, जिसके अनुसार दान भी और दया भी--दोनो पाप के कारण है। पाप के कारण तभी हो सकते हैं, जबकि दोनो को अशुभ भाव साना जाए। अत उनका तक है, कि दया सावश् होती है। जो सावद्य है, बह अशुभ होगा ही । जो अशुभ है, वह निश्चय ही पाप का कारण है। दान के सस्बन्ध मे, उनका कथन विभज्यवाद पर आश्रित है । उन लोगो का तर है, कि दान दो प्रकार का हो सकता है--सयतदान और असयतदान | साधु को दिया गया दान, घर्मे दान है। झतएवं उसका फल मोक्ष है। क्योकि साधु को देने से निर्जरा दोती है, मोर निजंरा का फल्न भोक्ष ही हो सकता है, अन्य कुछ नही । परन्तु असयत दान, अधर्म दान है। उसका फल पाप है। पाप, कभी शान्ति का कारण नही हो सकता । यह पापवाद की मान्यता है । ( ११ ) पुण्यवाद और पापवाद के अतिरिक्त, एक घमंवाद की मान्यता भी रही है । इसके अनुसार दान भी धर्म है, और दया भी धर्म है। दान, यदि पाप का कारण होता, तो तीर्थकर दीक्षा से पूर्व वर्षीदान क्यों करते ? दान परम्परा की स्थापना ने करके निषेध ही करते । ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्‍्त सब तीर्यकरों ने दान दिया था। उन लोगो का तक यह है, कि दान की क्रिया समता जौर परियग्रह को कम करती है। ममता और परियग्रह का अभाव ही तो धर्म है । जितना दिया, उतनी ममता कस हुईं, और जितना दिया, उतना परिग्रह भी कम ही हुआ है । अत दान से घम्मे होता है। ममता और परिग्रह को कम करने से तथा उसका अभाव करने से, दान धर्म ही हो सकता है, पाप कभी नही । यह धमंवादी मान्यता है| पुण्यवाद, पापवाद गौर घ॒र्मवाद की ग्रूढ पग्रन्थियों को सुलझाने का समय- समय पर प्रयास हुआ है, परन्तु कोई भी मान्यता जब रूढ हो जाती है, तब वह मिट नही पाती । किसी भी मान्यता को मिटाने का प्रयास भी स्तुत्य नही कहा जा सकता | मानव-जाति के विचार के धिकास की वह भी एक कडी है, उसकी अपनी उपयोगिता है, अपना एक महत्त्व है भारत के वैदिक षड़्दर्शनो मे एक भीमासा दर्शन ही पुण्यवादी दर्शन कहा जा सकता है। उसकी मान्यता है कि यज्ञ से पुण्य होता है, पुष्य से स्व मिलता है, स्वर मे सुख है। पुण्य क्षीण होने पर फिर ससार है। मोक्ष की स्थिति मे उसे जरा भी रुचि नही है | यज्ञ से, तप से, जप से और दान से पुष्य होता है, यह इसी मीमासा दर्शन की मान्यता रही है। यज्ञ नही करोगे, तो पाप होगा और यज्ञ करोगे, तो पुण्य होगा । पाप और पुण्य की भीमासा करना ही, मीमासा दर्शन का प्रधान ध्येय रहा है। दान पर सबसे अधिक बल भी इसी दशशन ने दिया है। इस दर्शन को मान्यता के अनुसार ब्राह्मण को दान देने से सबसे बढा पुण्य होता है। भ्रमण परम्परा के दोनो सम्प्रदाय--जैन ओर बौद्ध, कहते हैं कि ब्राह्मण को दिया गया दान, पृण्य का कारण नही है। वह पाप दान है, वह घर्में दान नही हो सकता । मीमासा-दर्शन भी जैन अ्रमणो को और बोद्ध भिक्षुओ को दिये गये दाव को पाप का कारण मानता है, धर्म का नही । इस प्रकार की भान्‍्यताओ ने दान की पविन्नता को नष्ट फर डाला। अपनी सान्यताओ में जावद्ध कर दिया | अपनो को देना धर्म, और दुसरो को देना पाप, इसी का परिणाम है । वेद-विरोधी दर्शनों मे एक चार्वाक दर्शन ही यह कहता है, कि न पुण्य ओर ने पाप। न दान करने से पुण्य होता है, और नही करने से नपाप होता है। पाप और पृण्य--यह लुब्धक लोगो की परिकल्पना है, अन्य कुछ नही । न पाप है, न पुष्य है, न लोक है, ओर न परलोक है। जो ब्ुछ है, यही है, बभी है, आज ही है, कल कुछ भी नही। उसकी इस मान्यता के कारण ही चार्वाक दर्शन मे दान पर कुछ भीमासा नही हो सकी । दान पर विचार का अवसर ही वहाँ पर उपलब्ध नही है। वर्तमान भोग ही वहाँ जीवन है । ( १२ ) देदिक पडदर्शनों मे दान-मीसांसा वेदगत परम्परा के पडुदर्शनो मे साउ्यदर्शत ओर वेदान्तदशंन' ज्ञान-प्रधान रहे हैं। दोनो मे ज्ञान को अत्यन्त महत्त्व मिला है। वहाँ आचार को गौण स्थान मिला है। साख्य भेदविज्ञान से मोक्ष मानता है। प्रकृति और पुरुष का मेंदविज्ञान ही साधना का समुझ्य तत्त्व माना गया है। वहाँ प्रकृति और पुरुष--इन दो तत्वों का दही विश्लेषण किया गया है। इन दोनो का सयोग ही ससार है, इन दोनो का वियोग हो मोक्ष है। प्रकृति मोक्ष-शुन्य है, तो पुरुष कर्त त्व-शुल्य है। इस दशन में कही पर भी आचार को भद्ृत््व नही मित्रा । करना कुछ भी नहों है, जो कुछ है, जानना है और समझता है। आचार पक्ष की गोणता होने के कारण दान” की मीमासा नहीं हो सकी । दान का सम्बन्ध करने से है, आचार से है क्रिया और कर्म से सम्बद्ध माना गया है| वेदान्त देन की स्थिति भी यही रहो है। कुछ मोलिक मेंद अवश्य है । साख्य ढव तवादी है, तो वेदान्त भद्व तवादी रहा है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नही है। यदि कुछ भी प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या ही है। 'अह ग्रह्मास्मि' इस भावना से समग्र बन्धन परिसमाप्त हो जाते हैं | वस्तुत बन्धन है ही कहां ? उसकी तो प्रतीति मात्र हो रही हैं। अपने को प्रकृति और जीव न समझकर, एकमात्र प्रहय समक्षना ही विभुक्ति है। इस दर्शन मे भी ज्ञान की प्रघानता होने से आकार की गौणता ही है। शम तथा दम आदि कुछ साधनों की चर्चा अवश्य की गई है, परन्तु वे साधना के अनिवायें अग नहीं हैं। यहो कारण है कि वेदान्तदर्शन मे भी दान की मीसासा नहीं द्वो पाई। दान का सम्बन्ध चारित्र से है, और उसकी वहाँ गौणता है । न्यायदर्शन में तथा वेशेषिकदर्शन मे, पदार्थे-ज्ञान को ही मुक्ति का कारण कहा गया है। वेशेषिकदर्शन मे सप्त पदार्थों का तथा न्‍्यायदर्शन मे पोडश पदार्थों का अधिगम हो मुख्य माना गया है। न्याय-शास्त्र मे तो पदार्थ भी गोण है, मुझ्य है, प्रमाणो की सीमासा । वैशेषिक की पदार्थ-मीमासा और न्याय की प्रमाण-मीमासा प्रसिद्ध है। साधना अथवा आचार का वहाँ कुछ भी स्थान नही है। फिर दात की भीमासा को वहाँ स्थान मिलता भी कैसे ? अत. वहाँ पर दान का कोई चिशेष महत्त्व नहीं कह्ा जा सकता । उसका कोई दाशंतनिक आधार नही है। न्यायदर्शन ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए समग्र शक्ति लगा दी, और वैशेषिक ने परमाणु को सिद्ध करने के लिए। जीवन की व्याख्या वहाँ नही हो पाई । के योगदशेन ज्ञान-प्रधान न होकर क्रिया-प्रधान अवश्य है। आचार का वहाँ विशेष महत्त्व माना गया है। मनुष्य के चित्त की वृत्तियों का सुक्ष्म विश्लेषण किया गया है। उसकी साधना का भुख्य लक्ष्य है--समारधि की सम्प्राप्ति | उसकी प्राप्ति के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, घारणा और ध्यान को साथन के ( १४ ) नही कहा जा सकता । 'धम्सपद' में भी दान के सम्बन्ध मे बुद्ध ने बहुत सुन्दर कहा “धर्म का दान, सब दानो से बढकर है। घ॒र्मं का रस, सब रसो से श्रेष्ठ हैं ।” धर्म-विमुख मनुष्य को धर्मपथ पर लगा देना भी एक दान ही है | चौद्ध परम्परा मे अनेक व्यक्तियों ने सब को दान दिया था। अनाथपिण्ड ने जेतवन का दान बौद्ध सघ को दिया था। राजग्रृह मे, वेणुवन भी दान में ही मिला है। वैशाली में, आम्रपाली ने अपना उपवन बुद्ध को दान में दे दिया था। सम्राद अशोक ने भी हजारो विहार बौद्ध भिक्षुओ के आवास के लिए दान में दे ढाले थे । बौद्ध परम्परा का इतिहास दान की महिमा से और दान की गरिमा से भरा पडा है । बौद्ध घमें भें दान को एक महान्‌ सत्कर्म माना गया है । यह एक महान्‌ धर्म है| यही कारण है, कि इस धर्म में दान को बहुत बडा महत्त्व मिला है | (जैन परम्परा में भी दान को एक सत्कर्म भाना गया है। जैन धर्म न एकान्त कियावादी है, न एकान्त ज्ञानवादी है और न एकान्त श्रद्धावादी ही है। श्रद्धान, ज्ञान और आचरण---इन तीनो के समन्वय से ही मोक्ष की सप्राप्ति होती है । फिर भी जैन घममं को आचार-प्रधान कहा जा सकता है। ज्ञान कितना भी ऊँचा हो, यदि साथ मे उसका आचरण नही है , तो जीवन का उत्थान नही हो सकता। जैन परम्परा मे, सम्यग्द्शन, सम्यस्क्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा गया है | दान का सम्बन्ध चारित्र से ही माना गया है। आहारदान, औषधदान और भमयदान आदि अनेक प्रकार के दानो का वर्णन विविध ग्रन्थो मे उपलब्ध होता है। भगवान महावीर ने 'सूचरकृताग' सूत्र मे अभयदान को सबसे श्रेष्ठ दात कहा है--“अभयदान ही सर्वे- श्रेष्ठ दान है।” दूसरो के प्राणो की रक्षा ही अभयदान है। आज की भाषा में इसे ही जीवन दान कहा गया है । दान के सम्बन्ध में, महावीर ने, 'स्थानाग सूत्र” में कहा है--“मेघ चार प्रकार के होते हैं--एक गर्जना करता है, पर वर्षा नही करता । दूसरा वर्षा करता है, पर गर्जना नही करता । तीसरा गर्जना भी करता है, और बर्षा भी करता है। चोया न गर्जना करता है, और न वर्षा करता है ।” मेघ के समान मलुष्य भी चार श्रकार के है--कुछ बोलते हैं, देते नहीं। कुछ देते हैं, किन्तु फभी बोलते नही । कुछ बोलते मो हैं, ओर देते भी हैं। कुछ न बोलते हैं, न देते द्द हैं। भहावीर के इस कथन से दान की महिमा एवं भरिमा स्पष्ट हो जाती है । जैन परम्परा मे धमं के चार अग स्वीकार किये है---दान, शील, तप एवं भाव । का 3) ही मुख्य एव प्रथम है। “सुखविषाक सूच” पम्े दान का ही गौरव गाया मौर आरण्यक साहित्य मे दान-विचार ० वेद-परम्परा के साहित्य मे भी दान की भीमासा पर्याप्त हुई है। मूल वेदों में मी य-तन्र दान की सहिसा है, उपनिषदो मे ज्ञान-साधना की प्रधानता होने से भाचारो को गौण स्थान मिला है। परन्तु आचारमूलक ब्राह्मण साहित्य मे मारण्यक ( १६ ) भाव के आधार पर दान के परिणाम भी तीन प्रकार के वताए गये हैं । मत्त्वमाव से दिया गया दान दाता और पात्र दोनो के लिए हितकर है | रजोभाव से दिया गया दान, घित्त मे चचलता ही उत्पन्न करता है । तमोभाव से दिया गया दान, चित्त मे मूढता ही उत्पन्न करता है । ( (भगवान्‌ महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दो का प्रयोग किया है--प्रुधादायी और सुघाजीवी । दान, वही श्रेष्ठ दान है, जिससे दाता का भी कल्पाण हो, भर ग्रहीता का भी कल्याण हो । दाता स्वार्थ रहित होकर दे, और पात्र भी स्वार्थ-शुन्य होकर ग्रहण करे । भारतीय साहित्य मे इन दो शब्दों से सुन्दर शब्द, दान के सम्बन्ध मे अन्यत्र उपलब्ध नही होते । दाता और ग्रहीता तथा दाता और पात्र--शब्दो में वह गरिमा नही है, जो भुघादायी और मुधाजीवी मे है । 'मुधा' शब्द का अभिषधेय अर्थे अर्थात्‌ वाक्‍्यार्थ है--व्यर्थ । परन्तु लक्षणा के द्वारा इसका लक्ष्यार्थ होगा--स्वार्थ रहित । व्यज्जना के द्वारा व्यग्याथें होगा--वह दान, जिसके देने से दाता के मन में अहभाव न हो, औौर लेने वाले के मन मे दैन्यमाव न हो । इस प्रकार का दान विशुद्ध दान है, यह दान ही वस्तुत भोक्ष का कारण है। न देने वाले को किसी प्रकार का भार ओर न लेने वाले को किसी प्रकार की ग्लानि | यह एक प्रकार का घमेंदान कहा जा सकता है । शास्त्रो मे जो दान की महिमा का कथन किया गया है, वह इसी प्रकार के दान का है। यह भव-बन्धन काटने वाला है। यह भव-परम्परा का अन्त करने वाला दान है) रासायण-सहाभारत में दान की महिमा सस्कृत साहित्य के इंतिहास मे, जिसे इतिहासविद्‌ विद्वानो ने महाकाव्य काल फहा है, उसमे भी दान के सम्बन्ध मे उदात्त विचारों की झलक मिलती है। महाकाव्य फाल के काव्यो में सबसे महान्‌ एवं विशाल काव्य दो हैं-- रामायण और भहाभारत। अन्य महाकाव्यो के प्रेरणा स्लोत ये ही महाकाव्य हैं आचार्य आनन्द वर्धंन ने अपने प्रसिद्ध काव्यशास्त्र ग्रन्थ घ्वन्यालोक' में कहा है--'रामायण' महाकाव्य है, करण रस उसका मुख्य रस है, अन्य रस, उसके अगभूत हैं। 'महामारत” भी एक महाकाव्य है, शान्त रम, उसका भअ्रधान रस है। शान्त रस अगी है, और अन्य रस उसके 'अग हैं । कथित दोनो महाकाव्यों मे यथाप्रसग अनेक स्थानों पर दान के सम्बन्ध वर्णन उपलब्ध होते है । कुछ प्रसय तो अत्यन्त हृदयस्पर्शी कहे जा सकते हैं। “रामायण” में एक प्रसंग है---राजा दशरथ अपनी रानी कैकेयी को राम के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में समझा रहे है । राम के गुणो का वर्णन करते हुए दशरथ कह रहे हैं--“सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, नज़॒ता, विद्या और गुरुजनों फी सेवा--ये सब गुण राम में निश्चित रूप से विद्यमान हैं।” यही राम का व्यक्तित्व है। इन गरुणो मे दान की भी परिगणना की है। यह कथन “अयोघ्या काण्ड” में किया गया है। दान से सर्वजन- “+« भियता उपलब्ध होती है। राम अपने मित्रो के प्रति ही उदार नही थे, अपने विरुद्ध ( १७ ) भाचरण करने वालो के प्रति भी उदार थे | उदार व्यक्ति मे ही दाता होने की क्षमता होती है । राम के दान ग्रुण का रामायण मे अनेक स्थलो पर वर्णन प्राप्त होता है। एक प्रसंग पर राम ने कहा है, कि दान देना हो, तो मघुर वचन के साथ दो । 'महाभारत' में विस्तार के साथ दान का वर्णेन अनेक प्रसगो पर किया गया है। 'भहाभारत' में कर्ण, 'दानर्व/र' के रूप में प्रसिद्ध है। अपने द्वार पर आने वाले किसी भी व्यक्ति को वह निराश नही लौटने देता । अपनी कितनी भी हानि हो, पर याचक को वह निराश नहीं लौटा सकता | धर्मराज युधिष्ठिर का भी जीवन अत्यन्त उदार वर्णित किया गया है। महाभारत मे एक प्रसग पर कहा गया है--“तप, दान, शस, दम, लज्जा, सरलता, सर्वेभृतो पर दया--सन्तों ने स्वर्ग के ये सात द्वार कहे हैं ।” इस कथन में भी दान की महिमा गाई गई है | एक अन्य प्रसग पर कहा गया है--'घन का फल दान और भोग है ।” धन प्राप्त करके भी जिसने अपने जीवन में न तो दान ही दिया और न उसका उपभोग ही किया है, उसका धन प्राप्त करना ही निष्फल कहा गया है। महाभारत में युधिष्ठिर और नागराज के सवाद में कहा गया है--“सत्य, दम, तप, दान, अहिसा, धर्म-परायणता आदि सदगुण ही मनुष्य की सिद्धि के हेतु हैं, उसकी जाति और कूल नही ।” इस कथन से फलित होता है, कि दान आदि मनुष्य की मह्ानता के मुख्य कारण रहे हैं। किसी जाति मे जन्म लेना भौर किसी कुल मे उत्पन्न होना, उसकी महानता के कारण नही हैं। इस प्रकार महाभारत में स्थान-स्थान पर दान की गरिमा और दान की महिमा का प्रतिपादन किया गया है । दान भव्यता का द्वार है, दान स्वर्ग का द्वार है, दान भोक्ष का द्वार है। दान से महान्‌ अन्य कौन-सा घर्म होगा ”? इन महाकाव्यों मे दान का वर्णन व्याख्या रूप भे ही नही, आख्यान रूप मे भी किया गया है। कथाओ के आधार पर दान का गौरव बताया गया है | सस्‍्कत सहाकाव्यो में दान पर विचार सस्क्ृत साहित्य भे महाकाव्यो को दो विभागों मे विभक्त किया गया है-- लघुत्रयी और बृहतृत्रयी । लघुत्रयी मे सहाकवि कालिदास कृत तीन काव्यो की गणना की गई है-“रघुवश, कुमार सम्भव” और 'मेघदूत' । मेघदूत एक खण्ड काव्य है ज्यूगार प्रधान काव्य है। काव्यगत गुणो की इृष्टि से यह श्रेष्ठ काव्य माना गया है। उसमे दान की महिमा के प्रसंग अत्यन्त विरल रहे हैं, फिर भी शुन्यत्ता नही रही । काव्य का नायक यक्ष अपने मित्र मेघ से कहता है--हे मित्र ! याचना करनी हो, तो महान्‌ व्यक्ति से करो, भले ही निष्फल हो जाए, परन्तु नीच व्यक्ति से कभी कुछ न माँगो । भले ही वह सफल भी हो जाए।' इसमे कहा गया है कि महान्‌ व्यक्ति से हो दान की माँग करो, हीन व्यक्ति से नही। इस कथन मे कालिदास ने दान का महान्‌ रहस्य प्रकट कर दिया है । कुमार सम्भव” महाकाव्य से महाकदि कालिदास ने शिव और पादंतों का वर्णन किया है। यथाप्तग जीवन के अनेक रहस्यो के भर्म का प्रकाशन भी किया ( १८ ) है । शिव को कवि ने आशुतोप कहा है । शिव सबको वरदान देते है, किसी को भी अभिशाप नही । कवि ने अनेक स्थलो पर शिव की दान-वीरता का मधुर भाषा में चर्णन किया है। शिव ने अपनी भोग साधना में विध्न डालने वाले कामदेव को जब तृतीय नेत्र से भरम कर दिया, तो उसकी पत्नी रति बिलाप करती हुई, शिव के समक्ष उपस्थित होकर, अपने पति का पुन जीवन का घरदान माँगती है। रति के शोक से अभिभूत होकर शिव उसे जीवनदान का वरदान दे बैठते हैं । यह कवि की अलकुृत भाषा है। परन्तु इस कथन से शिव फी दान-शीलता का स्पष्ट चित्रण हों जाता है, यही अभीष्ट भी है । कवि कालिदास ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवश' में रघुवश के राजाओं का विस्तार से वर्णन किया है । दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम और लव-कुश आदि का कवि ने भ्रस्तुत काव्य के अनेक सर्गों मे रधुवशीय राजाओं की दानशीलता का वर्णन किया है । एक स्थल पर कहा गया है--ैसे भेघ पृथ्वी से पानी खीच कर, फिर वर्षा के रूप में उसे वापिस लौटा देता है वैसे ही रघुवशीय राजा अपने प्रजाओ से कर लेकर, दान के रूप मे वापिस लौटा देते हैं।!' रघुवश काव्य में ही एक दूसरा सुन्दर प्रसग है--वरतन्तु का शिष्य कौत्स, अपने गुरु को दक्षिणा देने का सकल्प करता है । वह याचना करने के लिए राजा रघु के द्वार पर पहुँचा, पर पता लगा, कि राजा सर्वेस्व का दान कर चुका है। निराश लौटने को तैयार, पर रघु लौटने नही देता। तीन दिनो तक दझक जाने की प्राथेना करता है। राजा रघु उसकी दच्छा पूरी करके उसे गुरु के आश्रम मे भेजता है ।' रघुवश महाकाव्य का यह प्रसग अत्यन्त सुन्दर हृदयस्पर्शी और भाभिक बन पडी है। दान की गरिमा का और दान की महिमा का इससे सुन्दर चित्रण अन्यन्न दुलंभ ही है । सहाकवि कालिदास भारतीय सस्क्ृति के भधुर उद॒गाता कवि हैं। अपने तीन नाटकों भे--शाकुन्तल, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोवेंशीय मे---भी अनेक स्थलों पर दान के सुन्दर प्रसगो की चर्चा की हैं, कही सकेत देकर हो आगे बढ गये हैं । इस प्रकार कालिदास के भहाकाव्यों मे गौर नाटकों मे दान के सम्बन्ध में काफी कहा गया है | यहाँ पर अधिक विस्तार मे न जाकर सक्षेप मे हो उल्लेख किया गया है । सस्कृत भद्दाकाव्यो मे बृहतत्॒यी में तीन का समावेश होता है--किराता- जुनीय, शिशुपालवध और नैषघचरित । महाकवि मारवि ने अपने काव्य 'किरातार्जुनीय, में किरातरूपधारी ओर अर्जुन के युद्ध का वर्णन किया है। शिव के वरदान का और उसकी दानशीलता का काव्यमय भव्य वर्णन किया है। महाकवि माघ ने 'शिशुपाल घध में अनेक स्थलो पर दान का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । साध स्वय भी उदार एव दानी भाने जाते रहे हैं। कोई भी याचक द्वार से खाली हाथ नही लौट पाता था| कवि का यह दान गुण उनके समस्त काव्य में परिव्याप्त है। शी हर ने अपने प्रसिद्ध काव्य नैषध मे राजा नल और दमयन्ती का वर्णव किया है, जिसमे राजा नल की उदारता और दान-शीलता का भव्य वर्णन किया गया है। ( १६ ) संस्कृत के पुराण साहित्य में दान ससस्‍्कृत के पुराण साहित्य मे, दान का विविध वर्णन विस्तार से किया गया है ध्यास रचित अष्टादशपुराणो में से एक भी पुराण इस प्रकार का नही है, जिसमे दान का वर्णन नहीं किया गया हो! दान के विषय में उपदेश और कथाएँ भरी पडी हैं। रूपक तथा कथाओ के माध्यम से दान के सिद्धान्तो का सुन्दर वर्णन किया गया है। जैन-परम्परा के पुराणो मे--आदिपुराण, उत्तर पुराण, पद्मपुराण, हरिवशपुराण, तरिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि में दान समस्‍्वन्धी उपदेश तथा कथाएँ प्रचुर मात्रा मे आज भी उपलब्ध हैं, जिनमें विस्तार के साथ दान की महिमा वर्णित है। इसके अतिरिक्त पन्यचरित्र, शालिभद्रचरित्र तथा अन्य चरित्रो में दान की महिमा, दान का फल और दान के लाभ बताए गए हैं। बौद्ध परम्परा के जातकों मे दान सम्बन्धी कथाएँ विस्तार के साथ वर्णित हैं। बुद्ध के पू्व- भवो का सुन्दर वर्णन उपलब्ध है। बुद्ध ने अपने पूर्व भवो में दान कैसे दिया और किसको दिया, कितना दिया और कब दिया आदि विषयो का उल्लेख जातक कथाओो में विशदरूप में किया गया है | जैन-परम्परा के आगमो की सस्क्ृत टीकाओ में तथा प्राकृत टीकाओ मे तीर्थकरो के पूर्वभवों का जो वर्णन उपलब्ध है, उसमें भी दान के विषय में विस्तार से वर्णन मिलता है | आहार दान, पात्रदान, वस्त्रदान और औषघ दान के सम्बन्ध में कही पर कथाओं के आधार से तथा कही पर उपदेश के रूप मे दान की महिमा का उल्लेख बहुत ही विस्तार से हुआ है । इन दानो में विशेष उल्लेख योग्य है--शास्त्र दान । हजारो श्रावक एवं भक्त जन साधुओो को लिखित शास्त्रों का दान करते रहे हैं। अन्य दानो की अपेक्षा इस दान का विशेष महत्त्व माना जाता था | शिष्य दान का भी उल्लेख शास्त्रों में आया है। पुराणों मे आश्रम दान, भूमिदान और अन्नदान का स्थान-स्थान प्र उल्लेख उपलब्ध है । जैन-परम्परा के भ्रमण, मुनि और तपल्वी आश्रम ओोर भूमि को दान के रूप में ग्रहण नही करते थे । रजत ओर सुवर्ण आदि का दान भी ये ग्रहण नहीं करते थे। परन्तु सन्यासी, तापस और बौद्ध भिक्षू इस प्रकार के दानो को सहर्ष स्वीकार करते रहे हैं, और दाताओ की खूब प्रशसा भी करते रहते ये । ससरक्ृत-साहित्य के पुराणों मे भागवत पुराण धत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है, उसमे कृष्ण जीवन पर बहुत लिखा गया है, साथ ही दान के विषय मे विस्तार से लिखा गया है। भागवत के दशम स्कन्घ के पञ्चम अध्याय में, दान की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है--'दान न करने से मनुष्य दरिद्र हो जाता है, दरिद्र होने से वह पाप करने लगता है, पाप के प्रभाव से वह नरकगामी बन जाता है, और वार- वार दरिद्र तथा पापी होता रहता है ।” दान न देने के कितने भयकर परिणाम भोगने पढ़ते हैं। दान के अम्ाव में, मनुष्य का कैसा एवं कितना पतन हो जाता है। फिर उससे अगले ही श्लोक मे, दान के सदुमाव का वर्णन किया गया है--“सत्पात्र को ( २० ) दान देंने से मनुष्य घन सम्पन्त हो जाता है, घनवान होकर वह प्रण्य का उपाजंन करता है, फिर पुण्य के प्रभाव से स्वर्गंगामी बन जाता है, और फिर वार-वार धनवान भौर दाता वनता रहता है ।” इसमे बताया गया है, कि दान का परिणाम कितना सुखद और कितना सुन्दर होता है। दानन करने से क्या हानि हो सकतो है और दान करने से क्या लाभ हो सकता है ? गुण-दोषो का कितना सुन्दर वर्णन क्रिया गया है। अन्य पुराणो मे भी दान के सम्बन्ध मे यथाप्रसग काफी लिखा गया है । कही पर उपदेश के द्वारा, तो कही पर कथा के द्वारा दान की गरिमा तथा दान की महिमा का विशद निरूपण किया गया है। सत्पात्न को देने से पुण्य और अपात्र को देने से पाप होता है, इसका भो उल्लेख किया गया है। दाता की प्रशमा और भदाता की निन्‍दा भीकीहै। संस्कृत फे नीति काव्यो में दान को गरिसा जैन-परम्परा के कथात्मक नीति ग्रन्थों मे दान का बहुत विस्तार से वर्णन उपलब्ध होता है। भहाकवि घनपाल द्वारा रचित 'तिलकमज्जरी” में जीवन से सम्बद्ध प्राय सभी विषयो का वर्णन सुन्दर और मघुर शैली मे तथा प्राञ्जल भाषा में हुआ है । उसमें दान की महिसा का वर्णन अनेक रुथलो पर किया गया है। दान का फल क्या है। दान कैसे देता चाहिए । दान किसको देना चाहिए ? इन विपयो पर विस्तार से लिखा गया है। आचाय॑ सोमदेवसूरि कृत 'यशस्तिलकचम्पू' में धामिक, सास्कृतिक तथा अध्यात्म भावों का बडा ही सुन्दर विश्लेषण हुआ है । सस्कृत' साहित्य में यह ग्रन्थ अद्वितीय एवं अनुपम भाना जाता है। भनुष्य जीवन से सम्बद्ध बहुविध सामग्री उसमे उपलब्ध होती है। साधु जीवन भर ग्ृहस्थ जीवन के सुन्दर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है । भाव-भाषा और शैली सुन्दर ही है। उसमे यथाप्रसग अनेक स्थलों पर दान की महिमा का उल्लेख हुआ है। इसके अतिरिक्त अन्य काव्य ग्रन्थों मे, कथात्मक प्रत्थो मे और चरित्रात्मक ग्रन्थों मे भी दान की गरिमा का और दान की सहिमा का कही पर सक्षेप भें गौर कही पर विस्तार में वर्णन किया है। जैन-परम्परा के नीति भ्रधान उपदेश ग्रन्थों में तथा सस्कृत ओर प्राकृत के सुमाषित प्रन्थो में और घमेंग्रन्यो मे भी दान का बहुमुखी वर्णन उपलब्ध होता है। कुछ प्रन्‍्य तो केवल दान के सम्बन्ध मे ही लिखे गये हैं। मत दान के विषय पर लिखे गये प्रन्यो की बहुलता रही है। नीतिवाक्यामृत और अहंन्नीति जैसे ग्रन्थो में अन्य विषयों के प्रतिपादन के साथ-साथ दान के विषय में भी काफी प्रकाश डाला गया है, जो जाज भी उपलब्ध होता है । संस्कृत साहित्य के नीति प्रधान ग्रन्थों मे भतु'हरिकृृत म्् गार शतक, वैराग्य- शतक तथा नीतिशतक जैसे मधुर नीति काच्यो मे भनुष्य जीवन को सुन्दर एवं सुखद बनाने के लिए बहुत कुछ लिखा गया है। भत्‌'हरि ने अपने दीघे-जीवन के अनुभवों के हि पर जो कुछ भी लिखा था, वह आज भी उतना सत्य एवं जनप्रिय माना जाता है ( उनके शतक त्रय में दान के सम्बन्ध मे बहुत कुछ लिखा गया है। ( २१ ) उन्होने दान को अमृत भी कहा है । दान मनुष्य जीवन का एक श्रेष्ठ ग्रुण कहा गया है । के आचरण से सम्बन्ध रखने वाले गुणों मे दान सबसे ऊंचा गुण माना न । एक स्थल पर कहा गया है-- मनुष्य के धन की तीन ही गति हैं--दान, भोग और नाश । जो मनुष्य न दान करता हो, न उपभोग करता हो, उसका घन पडा-पडा नष्ट हो जाता है) सस्कृत के नीति काव्यों में 'कविकण्ठाभरण' भी बहुत सुन्दर ग्रन्थ है। उसमे दान के विषय में विस्तार से वर्णण किया गया है। “सुभाषित रत्नमाण्डागार” एक विशालकाय महाग्रन्य है, जिसमे दान के विषय में अनेक प्रकरण हैं । 'सूक्ति सुधा प्तप्रह सुमाषित वचनो का एक सुन्दर सग्रह किया गया है, उसमे भी दान के सम्बन्ध मे बहुत लिखा गया है । 'सुमाधित सप्तशती' में भी दान के विषय बहुत सुभाषित कथन मिलते हैं। 'सूक्ति त्रिवेणी” भ्रन्थ भी सूक्तियो का एक विशालकाय ग्रन्य है। जिसमे सरकृृत, प्राकृत और पालि भ्रन्थो से सम्रह किया गया है। इसमे दान के विषय में अद्भुत सामग्री प्रस्तुत की गयी है। वैदिक, जैन ओऔर बौद्ध परम्परा के ध्मग्रन्य और अषध्यात्मग्रन्थो मे दान के विषय मे काफी सुन्दर सकलन किया गया है। प्रवक्ता, लेखक और उपदेशको के लिए एक सुन्दर कृति कही जा सकती है । एक ही' प्रन्थ मे तीन परम्पराओ के दान सम्बन्धी विचार उपलब्ध हो जाते हैं । अपने-अपने युग मे वैदिक, जैन और बौद्ध आचार्यों ने लोककल्याण के लिए, लोक मगल के लिए और जीवन उत्थान के लिए बहुत-से सिद्धान्तो का प्रतिपादन' किया था। उनमे से दान भी एक मुख्य सिद्धान्त रहा है। प्रत्येक परम्परा ने दान के विषय में अपने देश और काल के अनुसार दान की भीमासा की है, दान पर विचार-चर्चा की है और दान पर अपनी मान्यताओं का विश्लेषण भी किया है। दान की मर्यादा, दान की सीमा, दान की परिभाषा और दान की व्याज्या सबकी एक जैसी न भी हो, परन्तु दान को भारत की समस्त परम्पराओो ने सहर्ष स्वीकार किया है, उसकी महिमा की है । हिन्दी कवि और दान हिन्दी साहित्य की नीति-प्रघान कविताओं में भी दान के विषय में काफी लिखा गया है। तुलसी दोहावलो', 'रहोम दोहावली' और 'विहारी सतसई' तथा सूर के पदो मे भी दान की गरिमा का भोर दान को महिमा का घिस्तार से उल्लेख हुमा है। तुलसो का “रामचरितमानस' तो एक प्रकार का सागर ही है, जिसमें दान के विषय में अनेक स्थलों पर बहुत कुछ लिखा गया है। हिन्दी के अनेक कवियो ने एस प्रकार के जीवन चरितो की रचना भी की है, जिनमे विशेष रूप से दान फी महिमा का ही वर्णन किया गया है। राम भक्त कवियों ने, कृष्ण भक्त कवियों ने और प्रेममार्गी सूफी कवियों ने अपने काव्य ग्रन्यो में, दान के वियय से यथाप्रसग फाफी लिसा है। दान की कोई भी उपेक्षा नही कर सका है। कबीर ने भी अपने पदो में और दोहो में दान के विपय में यथाप्रश्नत बहुत लिखा है। अपने एक दोहे ( २२ ) में कबीर ने कहा है--[ यदि नाव में जल बढ जाए और घर में दाम बढ जाए तो उसे दोनो हाथो से बाहर निकाल देना चाहिए, बुद्धिमानो का यही समझदारी का काम है।' तुलसी दोहावली में भी दान के विषय मे कहा गया है--सरिता भें से, जो भर कर बह रही है, यदि पक्षी उसमें से थोडा जल पान कर लेता है, तो उसका पानी क्या कम पड जाएगा ? ठोक इसी प्रकार दान देने से भी धन घढता नहीं है।' स्वामी रामतीर्थ ने दान के सम्बन्ध में कहा है--'दान देना ही घन पाने का एकमात्र द्वार है ।! सन्त विनोबा ने कहा है--'बुद्धि और भावना के सहयोग से जो क्रिया होती है, वही सुन्दर है। दान का अर्थ--फैकना नही, वल्कि बोना ही हैँ ।* भारत के धर्मों के समान बाहर से आने वाले धर्म ईसाई और भुस्लिम घ्मों में भी दान का बडा ही महत्व माना गया है। दान के सम्बन्ध में चाइबिल और कुरान में भी ईसा औौर मुहम्मद ने अनेक स्थलो पर दान की महिमा का यथाप्रसग वर्णन ही नही किया, बल्कि दान पर बल भी डाला है। दान के अभाव में ईसा मनुष्य का कल्याण नही सानते थे । ईसा ने आर्थता और सेवा पर विशेष बल दिया था, पर दात को भी कम महत्त्व नही दिया । वाइविल मे दान के विषय में फहा गमा है-- तुम्हारा दाँया हाथ जो देता है, उसे वाँया हाथ न जान सके, ऐसा दान दो । इस कथन का अभिभ्राय इतना ही है, कि दान देकर उसका प्रचार भत करो । अपनी भ्रशसा मत करो | जो दे दिया, सो दे दिया। उसका कथन भी न करो । कुरान में दान के सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर कहा गया है--प्रार्थना ईश्वर की तरफ भाघे रास्ते तक ले जाती है । उपवास सहल के द्वार तक पहुँचा देता है, और दान से हम अन्दर प्रवेश करते हैं।! इस कथन मे यह स्पष्ट हो जाता है, कि जीवन में दान का कितना महत्त्व रहा है। प्रार्थना और उपवास से भी अधिक महत्त्व यहाँ पर दान का सान्ा गया है । मुसलिस विद्वान शेखसादी ने कहा है--दानी के पास घन नही होता ओर धनी कम्नो दानी नही होता /' कितनी सुन्दर बात कही गई है। जिसमे देंने की शक्ति है, उसके पास देने को कुछ भी नही, और जिसमें देने की शक्ति न हो वह सब कुछ देने फो तैयार रहता है। मत दान देना, उतना सरल नही है, जितना समझ लिया गया है| दान से बढकर, अन्य कोई पवित्र धर्म नही है। जो अपनी सभ्पदा को जोड-जोडकर जमा करता रहता है। उस पाषाण हृदय को क्या मालूम कि दान में कितनी मिठास है। जो बिना मांगे ही देता हो, वही श्रेष्ठ दाता है। एक कवि ने बहुत ही युन्दर कहा है--'दान से सभी प्राणी वश मे हो जाते हैं, दान से शत्रुता का नाश हो जाता है। दान से पराया भी अपना हो जाता है। अधिक क्या कहे, दान सभी विपत्तियो का नाश कर देता है /! कवि के इस कथन से दान की गरिमा और दान की महिमा स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार समग्र साहित्य दान की महिमा से भरा पडा है। ससार मे न कभी दाताओ की कमी रही है, और न दान लेने वाले लोगो की ही कमी रहो है। दान की परम्परा ससार मे सदा चलती ही रहेगी । शक ( २४ ) प्रन्य के अध्यमन से प्रतीत होता है, कि सम्भवत यह ग्रन्य आचाय॑ ने दान की महिमा के लिए ही लिखा हो ? नवम परिच्छेद के प्रारम्भ में ही आचार ने कहा है--दान, पूजा, णील भौर उपवात्त भवरूप वन को भस्म करने के लिए, ये चारो ही आग के समान हैं । पूजा का अर्थ है--जिनदेव की भक्ति । भाव के स्थान पर पूजा का श्रयोग आाचायें ने किया है। दान क्रिया के पाँच अग माने गए हैं--दाता, देयवस्तु, पाथ, विधि और मति | यहाँ पर मति का अथे है--विचार । बिना विचार के, विना भाव के दान फंसे दिया जा सकता है ? आचाय॑ गमितगति ने दाता के सात मेंदो का उल्लेख किया है--मक्तिमान्‌ हो, अ्रसन्नचित्त हो, श्रद्धावान्‌ हो, विज्ञान सहित हो, जोलुपता रहित हो, शक्तिमान्‌ हो और क्षमावान्‌ हो । “विज्ञान वाला हो' से अभिश्नाय यह है, कि दावा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञाता हो । अन्यथा, दान की क्रिया निष्फल हो सकती है, अथवा दान का विपरीत परिणाम भी हो सकता है। दाता के कुछ विशेष गुणों का भी आचार्य ने अपने ग्रन्थ भे उल्लेख किया है--विनीत हो, भोगो मे नि स्पृह हो, समदर्शी हो, परीषह सही हो, प्रियवादी हो, मत्सररहित हो, सघवत्सल हो गौर बह सेवा परायण भी हो | दान की महिमा का वर्णन करते हुए आचार ने कहा है---/जिस घर मे से योगी को भोजन न दिया गया हो, उस गृहस्थ के भोजन से क्या प्रयोजन ? कुबेर की निधि भी उसे मिल जाए, तो क्या ? योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा सयम से होती है, राजा की शोभा सत्यवचन से और गृहस्थ की शोभा दान से होती है ।” आचार्य ने यह भी कहा है--जो भोजन करने से पूर्व साधु के आगमन की प्रतीक्षा करता है। साधु का लाभ न मिलने पर भी वहू दान का भागी है ९ हर के चार मेद किए हैं--अभयदान, अज्नदान, ओषघदान और ज्ञात दान । मन्नदान को आहारदान भी कहा गया है, और ज्ञानदान को शास्त्रदात भी कहते हैं । पञच महाव्रत घारक साधु को उत्तम पात्र कहा है, देशब्रत घारक श्रावक को मध्यम पात्र कहा है, अविरत सम्यग्हष्टि को जघन्य पात्र कहा है । दशम परिच्छेद के प्रारम्भ मे पात्र, कृपात्र ओर अपान्न की व्याख्या की है। विधि सह्दित दान का भहृत्त्व बताते हुए आचार्य से कहा--““विधिपूर्वक दिया गया थोडा दान भी महाफल प्रदान करता है । जिस प्रकार घरती भें बोया गया छोटा-सा वट-बीज सी समय पर एक विशाल वृक्ष के रूप मे चारो ओर फैस जाता है, जिसकी छाया में हजारो प्राणी सूख भोग करते हैं, उसी प्रकार विधि सहित छोटा दान भी महाफल देता है ।” दान के फल के सम्बन्ध से, आचार्य ने बहुत सुन्दर कहा है--जैसे मेघ से गिरने वाला जल एक रूप होकर भी नीचे आधार को पाकर अनेक रूप मे परिणत हो जाता है, वैसे ही एक ही दाता से सिलने वाला दान विभिन्न उत्तम, मध्यम और जधघन्य पात्रो को पाकर विभिन्न फल वाला हो जाता है ।” कितनी सुन्दर उपमा दी गई है। भपात्र को दिए गए दान के सस्बन्ध से आायें ने कहा है--“जैंसे कच्चे चडे में ( २५ ) डाला गया जल, अधिक देर तक नही ठिक पाता और घडा भी फूट जाता है, वैसे ही विगुण अर्थात्‌ अपात्र को दिया गया दान भी निष्फल हो जाता है, और लेने वाला नष्ट हो जाता है ।” इस प्रकार आचायें अमितगति ने अपने श्रावकाचार ग्रन्थ मे और उसके दशम परिच्छेद मे दान, दाव का फ़ल आदि विषय पर बहुत ही विस्तार के साथ विचार किया है। एकादश परिच्छेद मे आचार्य ने विस्तार के साथ अभयदान, अश्नदान, औषघ दान और शानदान--इन चार प्रकार के दानों का वर्णन किया है। वस्तुत देने योग्य जो वस्तु है, वे चार ही होती हैं, अभय, अन्न, जौषध और ज्ञान आर्थात्‌ विवेक । अभय को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। अभय से बढकर अन्य कोई इस जगत्‌ मे हो नही सकती । मीत को अभय देना ही परमदान है। अन्न आर्थात्‌ आहार देना भी एक दान है। यह शरीर, जिससे मनुष्य घ॒र्मं की साधना करता है, बिना अन्न के कैसे टिक सकता है ? सयमी को, त्यागी को भी अपने सयभ को स्थिर रखने के लिए अन्न की आवश्यकता पढती है। अन्न के अभाव में साधना भी कब तक चल सकती है। कितना भी बडा तपस्वी हो, कितना भी लम्बा तप किया जाए। आखिर, अन्न की शरण मे तो जाना ही पडता है । स्वस्थ शरीर से ही धर्म और कर्म किया जा सकता है। रुण काय से भनुष्य न घर्मं कर सकता है, भौर न कोई शुभ या अशुभ कर्म ही कर सकता हे । आरोग्य परम सुख है। उसका साधन है, भौषध | अत शास्त्रकारो ने ओषधघ को भी दान मे परिगरणित किया है, देय वस्तुओ मे उसकी गणना की है| ज्ञान, आत्मा का गुण है। वह तो सदा ही सप्राप्त रहता है। अत ज्ञान का अर्थ है, विवेक । विवेक का अर्थ है--करने योग्य और न करने योग्य का निर्णय करना। यह शास्त्र के द्वारा ही हो सकता है। जिसने शास्त्र नही पढे, उसे अन्धा कहा गया है। विधि और निषेध का निर्णय शास्त्र के द्वारा हो होता है। गत शास्त्र को भी दान कहा गया है। ?2 इतिहास के संदर्भ में दान-विचार भारत देश एक घधर्म-प्रधान देश रहा है। भारत के जन-जन के जीवन मे धर्म के सस्कार गहरे और अमिट हैं । यहाँ का सनुष्य अपने कर्म को, धर्म की कसौटी पर कस के देखता है। भारत का मनुष्य घन को, जन को, परिवार को, समाज को अपने जीवन को भी छोड सकता है, परन्तु अपने घ॒र्मं को नही छोड सकता । घर्म, उसे अत्यन्त प्रिय रहा है। धर्म के व्याच्याकार ऋषि एवं मुनि सदा नगर से दूर वनो में रहा करते थे। गुरुकुल और आश्रमो की स्थापना नगरो में नही, दुर वनों में की गई थी। गुरुकुल और आश्रमो मे हजारो छात्र तथा हजारो साधक रहा करते थे । भोजन और वस्त्र आदि की व्यवस्था का प्रश्न बडा जटिल था। छात्रो के अध्ययन में किसी प्रकार फा विध्त न हो, और साधको को साधना में किसी प्रकार की बाघा न पड़े इसलिए राजा और सेठ-साहूकार ग्रुदकुलो को और आश्रमो को | ( २६ ) दान दिया करते थे | दान के बिना सस्थाओ का चलना कँसे सम्भव हो सकता था ? दान का प्रारम्भ इन ग्रुरुकुलो और आश्रमों से ही हुआ था | फिर मन्दिर आदि धर्मे- स्थानों को तथा तीर्थेभूमि को भी दान की आवश्यकता पडी। दान के क्षेत्रों का नया-तया विकास होता रहा और दान की सीमा का विस्तार भी धीरे-धीरे भागे बढता ह्वी रहा । इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है, कि मारत मे तीन विएवविद्यालय थे-- नालन्दा, तक्षशिला ओर विक्रमशिला | इन विश्वविद्यालयों में हजारो छात्र भ्ध्ययन करते थे भोर हजारो अध्यापक अध्यापन कराते थे। ये सव विद्यालय भी दान पर ही जीघित थे, दान पर ही चला करते थे। दान के विना इन सस्थाओ का जीवित रहना ही सम्भव नही था। राजा और सेठ साहूकारो के उदार दान से ही ये सब चलते रहते थे। साहित्य रचनाओं में भी दान की भावश्यकता पडती थी। अजन्ता की गुफाओ का निर्मोण, आबू के कलात्मक मन्दिरों का निर्माण बिना दान के कैसे हो सकता था । दान एक व्यक्ति का हो, या फिर अनेक व्यक्तियों के सहयोग से मिला हो, पर सब था, दान पर अवलम्बित ही | कवि को यदि रोटी की चिन्ता बनी रहै, तो वह काव्य की रचता कर ही नही सकता । कलाकार यदि जीवन की व्यवस्था मे ही लगा रहे, तो कैसे कला का विकास होगा ? कवि को, दाशेनिक को, शिल्पी को ओर कलाकार को चिन्ताओ से मुक्त करता हो होगा, तभी वह निर्माण कर सकता है। इन समस्याओं के समाधान में से ही दान का जन्म हुआ है। व्यक्ति अकेला जीवित नही रह सकता, वह समाजगत होकर हो अपना विकास कर सकता है। अत दान की श्रतिष्ठा समाज के क्षेत्र मे निरन्तर बढती रही है। आज भी सस्थानो को दान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कभी पहले थी। सस्था कैसी भी हो, धर्मिक, साम्माजिक हो कौर चाहे राष्ट्रीय हो। सब को दान की मावश्यकत्ता रही है, और आज भी उसकी उतनी ही उपयोगिता है । शान्तिनिकेतन, अरविन्द आश्रम, विवेकानन्द आअम और गाधी जी के आाश्रम--इन सब का जीवन ही दान रहा है| जिसके दान का स्रोत सूख गया, उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया | अत दान की आवश्यकता आज भी उतनी है, जितनी कभी पहले रही है। भारत के ४इतिहास मे अवेक सम्राटो का वर्णन आया है, जिन्दहोने जनकल्याण के लिए अपना संबंस्व का दान कर दिया था। सज्राट अशोक के दान का उल्लेख स्तुपो पर और चट्टानों पर अकित है। सज्नाद्‌ हुएं प्रति पण्चवर्ष के बाद अपना सब कुछ दान कर डालते थे । सन्यासी, तपस्वी, मुनि और भिक्षुओ को सत्कारपुर्वक दान दिया जाता था । ब्राह्मणो को भी दान दिया जाता था। साधु, सन्यासी, भिक्षु और ब्राह्मण--थे चारो परोप जीवी रहे हैं। दान पर हो इनका जीवन चलता रहा है। गाज भी दान पर ही ये सब जीवित हैं। दान की परम्परा विलुप्त हो जाए, तो सब समाप्त हो णाए। स्मृति मैं कहा गया है, कि गृहस्थ जीवन धन्य है, जो सबके भार को उठाकर चल रहा है। ( २७ ) भृहस्थ जीवन पर हो सब सस्थाएँ चल रही हैं। अत्य सब दानोपजीवी हैं, एकमात्र भृहस्थ ही दाता है । प्रस्तुत पुस्तक लेखक : सम्पादक प्रस्तुत पुस्तक का नाम है--जैनघर्म मे दान ।” यह तीन भागों में विभकत है--प्रथम अध्याय है--'दान महत्त्व और स्वरूप ।' इसमे एकादश परिच्छेद हैं-- मानव जीवन का लक्ष्य, सोक्ष के चार मार्ग, दान जीवन के लिए अमृत्त, दान कल्याण का द्वार आदि । द्वितीय अध्याय है--'दान परिभाषा और प्रकार ।' इसमे उन्‍्नीस परिच्छेद हैं--दान की व्याख्याएं, दान और सविभाग, अधमेंदान और घर्मंदान, दान के विविध पहलू, दान के चार भेद, अभयदान' महिमा और विश्लेषण | तृतीय अध्याय है-- दान प्रक्रिया और पान्न !' इसमे चौदह परिच्छेद हैं--दान की कला, दान की विधि, दान के दृषण और भूषण, दान और भावना, दाता के गुण-दोष और दान और सिक्षा आदि | इस प्रकार दान के समस्त विषयो को समेट लिया गया है । व्याज्याता का दृष्टिकोण विशाल और उदार रहा है। सामग्री का सचय बहुमुखी , रहा है। मैंने पुस्तक का विहगम दृष्टि से अवलोकन किया है, जिस पर से मेरा मत बता है कि दान विषय पर यह एक अधिकृत पुस्तक कही जा सकती है। विद्वान लेखक ने विविध हृष्टियो से दान पर व्यापक चिन्तन भ्रस्तुत किया है| स्वय का चिन्तन तो है ही, किन्तु उसकी पृष्टि में श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के सैकडो ग्रत्थो के सदर्भ, उदाहरण और इतर ग्रन्थो के भी अनेक उद्धरण देने मे लेखक ने दानशील- वृत्ति का ही परिचय दिया है। इतिहास एवं लोक-जीवन की घटनाओं के प्रकाश में दान विषयक अनेक उससे हुए प्रश्नो को बडी सरलता से सुलझाने का प्रयत्न किया है । पुस्तक की भाषा और शैली सुन्दर एवं मधुर है। विषय का भ्रतिपादन विस्तृत तथा अभिरोचक है । अध्येता को कही पर भी नीरसता की अनुभूति एवं प्रतीति नही होती । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनो परम्पराओ के शास्त्रों से यथाप्रसग प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। इससे लेखक की बहुश्र,तता अभिव्यक्त होती है, बौर साथ ही विचार की व्यापकता भी । विषय का वर्गीकरण भी सुन्दर तथा आधुनिक बन पढा है। बीच-बीच में विषय के अनुरूप रूपक, हृष्टान्त और कथाओं का श्रयोग फरके विषय की दुरूहता और शुष्कता का सहज ही परिहार कर दिया गया है। इतना ही नही, विषय का प्रस्तुतीकरण भी सरस, सरल एव सुन्दर हो गया है। आवाल वृद्ध सभी इसके अध्ययन का आनन्द उठा सकते हैं। आज तक दान पर जिन पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, यह पुस्तक उन सबमे उत्तम, सुन्दर तथा सम्रहणीय है । प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक अथवा व्यास्याता पण्डितप्रवर, उपाध्याय श्रीपुष्कर भुत्रिजीं है। उपाध्यायजी का व्यक्तित्व प्रभावक एवं मधुर है। उतका जीवन ज्ञान ओर कर्म का सुन्दर समन्वय कहा जा सकता है। उनमे एक साथ अनेक भुणों के। ( रे८ष ) प्रकटीकरण हुआ है--वे विचारक हैं, तत्त्वद्रष्टा हैं, शास्त्रों के पण्डित हैं, मधुर प्रवक्ता हैं, मावो के व्याख्याता हैं और साथ ही साधक भी हैं। ध्यान और जप! साधना में उपाध्यायजी को प्रारम्भ से ही विशेष रस रहा है। स्वभाव से मधुर है, प्रकृति से सरल हैं, कर्म से पटु हैं और ज्ञान से गम्भीर हैं। सवते मिलकर चलना आपके जीवन का व्यावहारिक सूत्र है। साहित्य रचना मे अथवा ग्रन्थ निर्माण में आपको अपने अध्ययन काल से रुचि रही है, जो आज विविध विषय के ग्रन्थों के लेखन और प्रकाशन से प्रकट हो रही है । प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक द्वय हैं, स्वनामधन्य प्रसिद्ध लेखक पण्डितप्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री तथा प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' । आप दोनो ही विद्वानु सपादको की साहित्य-साधना नित्यप्रति निखर रही हैं। वर्षों से साहित्य की सर्जना कर रहे हैं । मनेको विपयो पर शताधिक ग्रन्थो का लेखन और सम्पादन आप कर चुके हैं, आज भी आप सरस्वती के भण्डार को भरने मे सलग्त हैं। आपकी लेखनी का लोहा, समाज के सूर्घन्य विद्वान लेखक भो स्वीकार कर चुके हैं। सस्क्ृत, प्रात गौर हिन्दी भाषा के अनेक ग्रन्थों का सम्पादन करके आपने अपनी कला की सार्थकता सिद्ध कर दी है। आपने इस ग्रन्थ का सम्पादन एवं प्रकाशन करके अपनी बहुश्रुतता का तो परिचय दिया ही है, साथ भे लोक भोग्य ग्रन्थों का प्रकाशन करके भाप सामान्य जनता पर अत्यन्त उपकार भी कर रहे हैं। मेरा निवेदन मैं अपनी भुमिका के सम्बन्ध में क्या कहूँ । अवकाश, मुझे जरा भी नही था | धन्य कार्यों में बहुत व्यस्त भी था। परन्तु 'सरस' जी का स्नेहमय अत्यन्त आमभ्रह था, कि मैंने उनकी भाग को स्वीकार कर लिया। प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक एवं ध्याख्याता उपाध्याय जी भद्दाराज के साथ भी मेरे मधुर सम्बन्ध रहे हैं। आज भी उनके मधुर जीवन की स्नेहमयी स्मृतियाँ मेरी स्मृति मे सचित हैं। बस, इन्ही कारणो से मैंने भूमिका लिखना स्वीकार कर लिया | भूमिका भे, मैंने अपने विचार हसन हे उद्धरणो से ३ कर चला हूँ | क्योकि काफी उद्धरण ग्रन्थ में दे दिये । मैं इस तथ्य स्वीकार करता हैं, बच विंड होगी हैं, कि यह पुस्तक अपने आप मे बहुत जैन भवन, मोतीकटरा आागरा ४७२७७ २ अक्टूबर, १९७७ ५१० ११ ( ३० ) दान : जीवन फे लिए अमृत ४७-६६ सच्चा अमुत दान में है ४८, निर्धन वृद्धा की औपधिदान ५२, दान से हृदय-परिवतंत ५३, दान से जीवन शुद्धि मौर सन्तोप ५६, दान से सारे परिवार का सुधार ५७, दान से गृह-कलह ओर दारिद्रय का निवारण ५६९, दान से पापों का भ्रायश्चित्त भोर उच्छेद ६३ । दान से आनन्द पे प्राप्ति हादिक प्रसन्नता दान से प्राप्त होती है ६८, दान के प्रमाव से दिव्यता की प्राप्ति ७३, दान से गौरव की प्राप्ति ७५, दिया व्यर्थ नहीं ७७, दान से वश निर्बीज नहीं ८५, दान हाथ का आभूषण ८६, दानवीर जगड़शाह ८५८, हाथ की शोभा दान ६० ॥ दान : फल्याण फा हार ६७-१० ६९ दान से सम्यक्त्व की उपलब्धि ६७, दानी के हाथ का स्पर्श मिट्टी सोना बन गई १०३, दान का हजार ग्रुता फल १०४, दान का पमत्कार १०८। दान धर्म का प्रवेश द्वार ११०-११६ हृदय के शुद्ध, सरल और धघमं-घारण योग्य बनाने का साधन-दान ११०, दान ४ घ्॒में का शिलान्यास ११२, दाव ग्रहस्थ-जीवन' का सबसे प्रधान गुण ११४, दान श्रावक का सबसे बडा ब्त ११४५, दान॑- सविभाग है ११६, दान सर्वंगुण-सग्राहक, सर्वार्थ साधक ११७, दान देवताओं द्वारा प्रशसनीय ११८। दान की पचित्र प्रेरणा १२०-१३२ प्रकृति द्वारा दान की मूक प्रेरणा १२०, नदी के जल की भाँति दान प्रवाह बहता रहे १२१, दान की परम्परा चालू रखो १२३, पेड-पौधो से दान देने की सीख लो १९४ दान देना समाज का ऋण चुकाना है १२६, दान देना कर्तव्य है १३०, तीन प्रकार के मनुष्य १३१। वान भगवान एवं सम्ताज के भ्रति लर्पण १३३-१४५ अपेण में उल्लास १३३, दान भगवान का हिस्सा निकालना है १३४, अपने भाग में से समाज का भाग देना सीखिए १३७, सहानुमृतिपूर्ण हृदय में दान की प्रेरणा सहज होती है १४०, तीर्थंकरों द्वारा वाधिक दान अन्त प्रेणा से १४३, कृपषण का घन उसको ही खा जाता है १४५। गरोब का दान ६७-६६ १४६-१६५ गरीब का दान अधिक महत्त्वपूर्ण १४६, 'राजसूय यज्ञ और नेवले का ( ३१ ) हृष्टान्त १४८, गरीब का दान घनवानों के लिए प्रेरणा १५०, अदुभुत- दानी भामाशाह १५०, दूसरो के दिलो में दाव का चिराग जलाओं १४०, समाज में अभावी की पूर्ति दान द्वारा हो १५४, साधन सम्पत्त समाज की माँ बनकर योगदान दें १५६, बालक के लिए माता का अद्भुत बलिदान १४७, दान से बढदकर घन का कोई सदुपयोग नहीं १५८, धन की तीन गतियाँ--दान, भोग सौर नाश १४८, मानव शरीर रूपी पारसमणि से दान देकर सोना बनाओ १५८, कृपण को भी दान देने की प्रेरणा १५६, कृपण को भिखारी से दान-प्रेरणा १६२, बच्चो की तरह घन इकट्ठा मत करो १६२, दान की विविध €प में प्रेरणा १६३ । हितीय अध्याय दान : परिभाषा और प्रकार (१६७ ४०६) - दान की व्यास्याएँ १६६---१६४ दान का कर, पारिश्रमिक, विसर्जन बादि से भेद १६६, दान का शान्दिक अर्थ १७०, जैन दृष्टि से दान शब्द का लक्षण ओर व्याख्याएँ १७०, स्व-अनुग्रह क्या, क्यो और कंसे ? १७२, स्वानुग्रह का प्रथम प्रकार --अपनी आत्मा में सदगुणो का सचय १७२, स्वानुग्रह का दूसरा प्रकार--घमंबुद्धि होना १७४, स्वानुग्रह का तीसरा प्रकार--अपने कल्याण के लिए प्रवृत्त होना १७५, स्वानुग्रह का चौथा प्रकार--उदारता बादि सद्गुणों की वृद्धि १७५, परानुग्रह क्या, क्यो कौर कैसे ? १७६, परानुग्रह का प्रथम प्रकार--अपने दान से दूसरे के रत्नत्रय मे वृद्धि १७६, भगवान महावीर और चन्दनवाला का हृष्टान्त १७७, ऋषभदेव और श्रेयास राजा का हृष्टान्त १७८, परानुग्रह का दूसरा प्रकार--अन्य की घर्मंवद्धि १७८५, गंघश्नेष्ठी और बौद्ध भिक्षु का हष्ठात १७८-१८१, परानुग्रह का तीसरा प्रकार धर्मे-प्राप्ति १८२, जार्य सुहस्ति और राजा सप्नति का हृष्टान्त १८२, परानुग्रह द्वाए अन्य को धर्म मे स्थिर रखना १८४, परानुग्रह का चौथा प्रकार-अन्य लोगो को सकट में सहायता देना १८६, जहाँ स्व-परानुग्रह नहीं, वह दान नही १८६, महाद्रती साधुमों को दान, दान है १६१, दान के बन्य लक्षण जैन दृष्टि से १६३ ॥ भहादान और दान * १६५-१६८ न्यायोपाजित वस्तु का उत्कृष्ट पात्र (अनगार तपस्वी आदि) को स्वेच्छा से देना महादान १६५, लनुकम्पा पात्रों को ग्रुदजनों की बनुज्ञा से दिया जाने वाला-सामान्य दान १६६, ( ३३२ ) दान का सुस्य अग * स्वत्व-स्वा मित्व-विसर्जन १६६-२२० दान का प्रमुख अग स्वामित्व त्याग १६६, दान के साथ कठोर शर्तें स्वत्व-विसर्जन २००, स्व का उत्सर्ग क्या, क्यो और कीसे ? २०१ कन्या दान २०२, पत्नी भी परिग्रह है २०२, पत्नी का दान २०२, दान में चार बातो का विसजंन होता है--(१) स्वत्व (२) स्वामित्व (३) अहृत्व (४) ममत्व २०३, पर को स्वामित्व देना भी आवश्यक है २०६, दान में चमक कब भाती है? २०७, धनिया भिखारी का दान २०७, केवल सत्त्व विसरजन दान नही २०६, त्याग के साथ दान ही सर्वा ग्रीण दान २१० त्याग, दान से बढकर है किन्तु २१३, दान और त्याग में अन्तर २१५, दान की सर्वोच्च भूमिका अहता-दान २१६, दान के साथ अहत्व-विसर्जन अति कठिन २१७, स्वत्व-विसर्जन के बाद पुन स्वत्व स्थापित करना ठीक नहीं २१७ दान के लक्षण भौर वर्तमान के कुछ दान २२१-२२४ दान देने में अनुग्रह बुद्धि आवश्यक २२१, परम्परागत या रूढि दान २२१, दवाब से दिया गया दान नही २२२, भध्ययुगीन दान--एहसान पूर्वक भिक्षा मान्न थी २२२, दान-भिक्षुक की भिक्षावृत्ति समाप्त कर देना है २२३, अनीति के पोषण के लिए दान-हितावह नही २२४ ।॥ दान और सबिभाग २२५-२२६ यथाशक्ति सविभाग ही दान है २२५, सविभाग के पीछे भावना २२८, यथा सविभाग का आचीन आचार्यों द्वारा कृत अर्थ २२५। दान की तोन थेणियाँ २३०-२४२ दान और भावना २३०, मावना के अनुसार दान का वर्गीकरण २३०, दान की तीन श्रेणियाँ--(१) सात्विक (२) राजस्‌ (३) तामस २३१, सात्तिक दान का लक्षण २३१, राजसूदान का लक्षण २३४, तामस्‌ दान का लक्षण २३७, तीनो दानो मे अन्तर २४२ । जनुफम्पादान एक चर्चा र२४३-२५२ दान के दस प्रकार २४३, अनुकम्पादान क्‍या, कैसे, कब ? २४३, अनु- कम्पादान का दायरा बहुत विशाल है २४४, अनुकम्पादान के दायरे में सम्पन्न नही जाते २४६, अनुकस्पादान विपन्न और विवश व्यक्तियों पर किया जाता है २४६, अनुकम्पादान मे पान्न का विवेक २४८, दान का निषेध-वृत्तिच्छेद २५२। दान को विविध वृत्तियाँ २५३-२६७ सग्रहदान क्या, क्यों और कंसे २५३, सम्रहदान' के लक्षण २५३, लोगो €. १० ११ १२ श्दे ( रे३े ) को अपने अनुकूल करने के लिए दान २५४, बदनामी से बचने और स्वायं-सिडि के लिए २५५, रिश्वत, भेंट प्राप्त करने, ब्राह्मणो और पुजारियो को दिया गया दान २५५, भयदान क्या, क्यो और कैसे ! २५६, दवाव और आतक से प्रेरितदान २५६, लौकिक भय से दान २५७ पारलौकिक भय के कारण दान २५७ कारुण्यदांन क्या, क्यो और कैसे २५८, कारुष्यदान अर्थात्‌ शोक-निवृत्ति हेतु ब्राह्मण आदि को दिया जाने वाला दान २५८, श्राद्ध-का रुण्यदान का ही रूप २५८, लज्जादान स्वरूप ओऔर उद्देश्य २६०, गोरवदान स्वरूप गौर उहंश्य २६१, प्रशसा प्राप्ति के लिए दान-गौरवदान है २६४, चाटुकार लोग, प्रशस्तिपत्न आदि से प्रसन्न होकर देना गौरवदान २६४ । अधमंदान और धर्मदान २६८-र२८४ अधघमंदान लक्षण और उद्देश्य २६८, अधरमदान के विभिन्‍न प्रकार २६६, घरंदान स्वरूप और विश्लेषण २७१, धर्मंदान के विविध प्रकार २७३, घधर्मादा और घर्मेदान २७७, करिष्यतिदान क्या, क्यो और कैसे ? २७८, कृतदान स्वरूप और उद्देश्य २८०, दस प्रकार के दान में तारतम्य २८४ । दान के चार भेद विविध दृष्टि से २८५-२६९० दयाद॑त्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयर्दत्ति २८५, दयादरत्ति का उदाहरण २८६, किसी कुश्रथा को बन्द करा देना--दयादत्ति २८६, पात्रदत्ति का लक्षण २८७, समदत्ति का लक्षण २८७, समदत्ति का उदाहरण २८७, अन्वयदत्ति का स्वरूप २८८, अन्वयदत्ति अथवा सकल दत्ति २८८, उत्तराधिकार दान ही अन्वयदत्ति है २८९ । आहारवान का स्वरूप २६€१-३०४ लौकिक ओर अलोकिक हृष्टि से दान के चार भेंद २९१ आहारदान स्वरूप गौर हृष्टि २९७४२, अलौकिक आहारदान का उदाहरण २९७- २९८, लौकिक आहारदान के उदाहरण २९६८-३० ४३ ॥ ओऔषधदान ४ एक पययंव क्षण ३०४-३१५४ ओऔषधदान स्वरूप और विश्लेषण ३०५, अलोकिक औषधदान के उदाहरण ३०७-३२१० लोकिक औषधदान चिकित्सालय आदि खुलवाना ३१०, लौकिक ओऔषधदान के उदाहरण ३१०-३१२, अगदान एवं रक्तदान ३१२, रक्तदान के उदाहरण ३१३, मास दान का उदाहरण ३१३, महद्दामारियो के उपचार खोजने मे आत्मोत्सर्ग भी ओऔषधदान ३१४, हेनरीगायत का उदाहरण ३१४। ज्ञानदान बनाम चक्ष दान ३१६-र२५ झानदान स्वरूप और विश्लेषण ३१६, जान एक सद्गुण ३१७, ज्ञान श्ड १४ १६ १७ श्ष १६ ( हेड ) आनन्दमय ३१०, ज्ञान एक प्रकाश ३१७, ज्ञान एक शक्ति ३१८, ज्ञान लौकिक भौर लोकोत्तर उन्‍नति का मूल ३१८, अलौकिक ज्ञाव- दान के उदाहरण ३१८-३२३, शास्त्रदान अलौकिक ज्ञान दान ३२५ | ज्ञानदान एक लोौफिफ पहुलू ३२६-३३७ ज्ञानदान के तीन पहलू ३२६, ज्ञानदान के उदाहरण ३२७-३२६, लौकिक ज्ञानदान जीवन-स्पर्शी ३२८, दूसरा पहलू उपदेश, पाठशाला आदि ३३०, तीसरा पहलू व्यावहारिक ज्ञानदान ३३१, विद्यादान के उदाहरण ३३३-२२३५६॥ अभयदान महिमा एवं विश्लेषण ३३८-३६१ वर्तमान युग मे अभयदान अनिवार्य ३३५, अभयदान का महत्त्व ३३६, अभयदान के उदाहरण ३४०-३४३, अभयदान का लक्षण ३४४, अभय- दान के विभिन्‍न पहलू ३४६, अभयदान के विभिष्न उदाहरण ३४८- ३५७, अभयदान की दो कोटियाँ ३५८, अभयदान भी लौकिक और अलोकिक ३६१ । दान के विविध पहलू ३६२-३६६ दान के अन्य सेंद २६२, उत्तसमपात्र के लिए दान ३६२, विविध प्रकीणेंक दान ३६४, उचितदान ३६४, क्षायिकदान क्या, किसमें और कैसे ? ३६६, वौद्धशास्त्रों मे वणित दो दान--भौतिकदान और घमेंदान ३६८, वर्तमान भे प्रचलित दान एक मीमासा ३७०--३७७ वर्तेमान युग में प्रचलित दान ३७०, भुदान ३७०, सम्पत्तिदान ३७१, साधनदान २७१, श्षमदान ३७२, बुद्धितान ३७२, समयदान ३७३, ग्रामदान ३७४, जीवनदान ३७५, दान और अतिथि-सत्फार रे७छ८-पे ८७ अतिथि-सत्कार ३२७८५, जतिथि-सत्कार की जआावश्यक बातें ३७६, गमतिथि के लक्षण ३८४५, अतिथि के दोष ३५६, वान ओर पृण्य एफ चर्चा रेप८-४०६ पुण्य प्राप्ति का उपाय दान १८७, पुण्य बनाम धर्म ३६९०, पुण्य के नौ भेद ३९१, दिगम्वर मान्यता के अनुसार नौ प्रकार के पुण्य ३६२, अन्नपुष्य ३६४४, पानपुण्य ३६४, लयन पृण्य ३६५, शयनपुण्य ३६७, वस्त्र पुण्य ३६४७, वचनपृण्य ३६६, कायपुण्य ४०३, नमस्कार पुण्य ४०४, नवविध पृण्यजनक दान ४ एक चर्चा ४०८। तृतीय अध्याय दान : प्रक्रिया और पात्र (४९१-५४५) दान को फला ४११--४१८ ११ १२ ११ श्ड ( ३६ ) (६) मुदिता ४७६, (७) निरहकारिता ४७७, महापुराण के अनुसार दाता के सात ग्रुण ४७७, चार प्रकार के वादलो के समान चार प्रकार के दाता ४७६, वाद्यो की तरह दान प्रेरित दाता के चार प्रकार ४५२, जाति आदि देखकर देवा--दाता का दोष ४८३, दाता के दस दोय साधुवर्ग को दान की दृष्टि से ४८४, दान के लिए जन अधिकारी दाता ४८५, मुघादायी और मृुधाजीवी ४८७ । दान के साथ पान्न फा विचार ४ह8०--४६४ पात्र की तुलना स्थल (खेत) के साथ ४६०, कृपान्न या पात्र को दान निष्फल तथा हानिकारक ४६२, तीन प्रकार के पात्र ४६३ । सुपान्न दान का फल ४ह५-५१० पात्रों के अनुसार दान के फल का तारतम्य ४६५, सुपान्रदान का लौकिक लाभ ४६७, दान का महाफल ४६८; सुपात्रों की तीन कोटियाँ ५०२, कृपानत्र दान का फल ५०३, कुपात्र दान का निषेध नही ५०४, सुपात्र को ही दान देने की हठ उचित नहीं ५०७ । पात्रापात्र-विवेक ५११--५२३ पात्र का व्युत्पत्ति-अर्थ ५११, पान्न-परीक्षा ५१२, सुपात्र का व्युत्पत्ति-अर्थ ५१३, सुपात्र के लक्षण ५१४, पात्नादि के विविध प्रकार ५१४, सुपात्रो के नौ प्रकार ५१६, कुपात्नों के नौ मेंद ५१६, द्रव्यपात्र-भावपात्र ५१७, दान लेने का अधिकारी कैसा हो ? ५१७, कुपात्न या अपात्न भी सुपात्र या पान्न हो सकता है ४२०, आहार दान से मानवीय हृष्टि उचित ५२२॥ दान और सिक्षा ५भ२४-शर२ दान या भिक्षा लेने के पात्र ५२४, पात्रो के तीन प्रकार ५२४, भिक्षा के नियम ५२६, आधुनिक युग में जीवन निर्वाह के तीन प्रकार--भिक्षा, पेशा, चोरी ५२८, दान लेने के सच्चे अधिकारी के ग्रुण---(१) निष्पृहता ४२९, (२) स्वावलम्बन ५३०, (३) तेजस्विता ५३१ । विविध फरसोटियाँ ४३३-४५४५ पात्र की और दाता की परीक्षा ५३३, दान के पांच मिलने दुलंम हैं ५३५, याचक और पात्र ५३६, दानपात्र के चार प्रकार ५४०, मुधाजीवी दान-पात्र का स्वरूप ५४१, दानदशंन का निष्कर्ष ५४५ परिशिष्ट प्र्डछ शब्दानु क्रमणिका भले सन्दमे ग्रन्थ सूची २५७ मोक्ष के चार मार्ग एक भोलाझाला यात्री जा रहा था। यात्री सरल कौर जिज्ञासु था। उसे क्ाज्ञी पहुंचना था | बतः बपने पड़ाव से चलते ही एक महात्मा से उसने पूछा-- +महात्माजी ! काज्ञी जाने का रास्ता कौन-सा है महात्ना वोले---“भझाई ! क्ाज्नी जाने के चार मार्ग हैं। एक गयानदी के क्नारे-क्नारे होकर जाता है, दूसरा दास्ता सड़क का है, तीसरा रेलपथ क्य है, जिस पर होकर ट्रेन जाती है और चौथा है--हवाई मार्गे, जो माकाज्ष में होकर जाता है । यात्री जिज्ञातु था, इसलिए सुनकर घबराया नहीं, उसने विनज्न भाव से पुदधा---मेरे लिए कौन-सा रास्ता बासाव, अल्पव्ययसाध्य रहेगा? महात्मा ने उसकी जिज्ञासु बुद्धि देखकर क्‍हा--'देलो, हवाई मार्ग से बहुत जल्दी पहुँचा जा सकता है, परन्तु है वह वहुत ही खर्चीला, वह तुम्हारे बल कय नहीं है, रहा जलमार्ग--वह्‌ भी क्ष्दपूर्ण है, तीसरा रेलमार्ग हैं, वह भी झर्चीला है । इनलिए सडक वा मार्ग ही तुम्हारे लिए बासान कौर सुलभ रहेगा। इस राजमार्ग पर जगह-जगह तुम्हें मार्नदर्शक पत्थर भी लगे हुए मिलेंगे, जिन पर काशी क्तिनी दूर है जौर कितनी दूर तक तुम चल चुके हो, यह भी मकित रहेगा । दोनो ओर सघन पेड़ो की ठण्डी छाया मिलेगी | जगह-जगह तुम्हे कई सहयाही क्षी मिल जायेंगे । विश्वामस्थल भी स्थान-ल्यान पर मिलेंग्रे, जहाँ बैठ कर तुम अपनी धकान भी मिटा सकोगे, शीतल मधुर जल पीक्षर अपनी प्यास भी बुझा सकोगे ॥/ जिज्ञासु यात्री महात्मा की बात समझ यया और उस्ती सडक पर चल पड़ा । यही वात जीवन यात्री के सम्बन्ध में है। मादव को जअपनी जीवन-यात्रा भी मोक्ष रूपी लक्ष्य की जोर करनी है । मोज्ष तक पहुँचने के भी महायुरुषो ने चार मार्ग बताये हैं। काचाय विनय-विजयजी ने शान्त सुघारत भावना मे इन्हों चार मार्गों का »।६ चिरूपण क्या है--- १ सानव जीवन का लक्ष्य २ मोक्ष के चार भागे ३ वान से विविध लाभ ४ दान का साहात्म्य ४ दान जोवन के लिए अमृत ६ दान से आनन्द फी प्राप्ति ७ दान : फल्याण फा हार ८ वान धर्म फा भरवेश द्वार € दान की पवित्र प्रेरणा १० दान भगवान एवं समाज के प्रति अपंण ११ गरोब का दान एक चिन्तन [| मानव जीवन का लक्ष्य व्यापार के विषय मे अनभिज्ञ एक श्रेष्ठीपुत्र, अपने पिता से आग्रह करके पिता की अनुमति लेकर अपने मुनीम के साथ बम्बई पहुँचा। पिता ने उसे बम्बई भेजा तो था माल खरीद कर शीघ्र ही वापिस लौटने के लिए, किन्तु वह मनमौजी, नौसिखिया एवं अनुभवहीन श्रेष्ठीपुत्र वम्बई की चकाचौंच देख कर, विधिध मनोहारिणी चस्तुओ से सजी हुई दूकानें, विविध प्रकार के आकर्षक आमोद-प्रमोद के स्थान और नादूय- शालाओ में होने वाले रम्य नाटको को देखकर मुग्ध और लुब्ध हो गया । उसे पता ही नही चला कि किस प्रकार एक के बाद एक दिन बीतते चले गये ? उसे यह भान ही नही रहा कि मैं यहाँ किसलिए आया था ? मुझे पिताजी ने किस कार्य के लिए भेजा था ? मुझे क्या करना चाहिए ? कार्यसिद्धि के लिए कहाँ-कहाँ जाना चाहिए ? वैसे उसका मुनीम उसे बार-बार याद दिला दिया करता था--“बाबवू ” आपको बडे बावूजी ने किस काम के लिए भेजा है ? कितने दिन हो गए हैं *” पर, वह मुनीमजी को सदा टरका दिया करता--“अजी मुनीमजी ! अभी तो बहुत दिन बाकी हैं। बम्बई पहलेपहल आये हैं तो जरा सैर-सपाटा कर लें, बम्बई के दर्शनीय स्थानों को देख लें । वार-बार वम्बई थोडे ही आना होता है ? यहाँ एक प्रसिद्ध नाटक चल रहा है, उसे भी पूरा देख लें । जी भरकर बम्बई के रमणीय पदार्थों का आस्वादन कर लें, कुछ आमोद-प्रमोद की वस्तुएँ भी खरीद लें ।” इस प्रकार श्रेष्ठीपुज्न अपने अभीष्ट कार्य को भूलकर अन्यान्य कार्यों मे लग गया । अभीष्ट कार्यसिद्धि के लिए जहाँ जाना था, वहाँ न जाकर वह केवल सैरसपाटे और आमोद-प्रमोद के स्थलो मे ही जाता था। किसी-किसी ने बीच-बीच में उससे पूछा भी था--'बावूजी ! कहा जाना है ? आप तो किसी व्यापारी के लडके मालम होते हैं ।” तब उसका घडाघडाया यही उत्तर होता---“मुझे चौपाटी, हँविंग गार्डन फ्लोरा फाउन्टेन आदि स्थलो पर जाना है, बम्बई के दशेनीय स्थानों और प्रेक्षणीय पदार्थों को देखने के लिए ।” आखिर एक महीना बीतते ही उसके पिता का तार आया--“मुनीमजी ! बाबू को लेकर जल्दी लौट भाओो ।” मुनीम ने जब वाबू को तार पढाया तो उसे एक- ४ दान महत्त्व और स्वरूप दम झटका-सा लगा। वह सोचने लगा --'अभी कल्न-परसो की वान है, वम्वई आए को हमे एक मद्दीना हो गया । भरे | अभी तो हमने कुछ भी नही किया है? जिस कार्य के लिए हम बम्वई आये थे, वह कार्य तो अमी कुछ नही हुआ है। क्या इतनी जल्दी ही वापिस लौटना पडेया ? हाँ, भव याद आया पिताजी ने मुझे एक महीना होते ही माल खरीद कर वापिस लौटने को कहा या | यहाँ आकर तो मैंने अमीप्ट कार्य के सम्बन्ध मे न किसी से बातचीत की, न कही में गया ही, न किसी से मिला | मुनीमजी ! एक सप्ताह और ठहर जाइए न !” मुनीम ने कठोर शब्दो में कहा--“बाबू ! मैंने आपको कितनी ही बार साव- घान क्षिया था, अन्यन्न भटकते हुए आपको 'रोका था। अभीष्ट कार्य के लिए भी बार-बार चेतावनी दे दी थी, इसके बावजूद भी आपने मेरी वात पर कोई ध्यान नही दिया, न अन्य किसी हितैपी की बात ही मानी । अब मैं क्या करूँ? स्ेठजी का आदेश आ गया है, जल्दी लौटने का ! एक मास पूरा हो गया है, अब हमे वापिस लौटना ही होगा ।” सेठ का लडका बहुत पछताया, पर अब क्या हो सकता था । माल लिये विना खाली हाथ अपने पिता के पास वह वापिस लौट आया | पिताजी ने उसके चिन्तित लेहरे पर से ही अनुमान लगा लिया कि यह खाली हाथ अभ्या मालूम होता है । भुनीमजी से सारी पूछताछ की, जिससे उन्हे पता लग गया कि लडका वम्बई की भूलभुलैया मे फेस गया, एस कारण कुछ भी माल (सौदा) नहीं खरीद सका और लौट आया । यह एक रूपक है। इस रूपक का उद्देश्-लक्ष्य के सम्बन्ध मे विचार करना है । मानव भी एक व्यापारी पुत्र है। ससार की विविध योनियो और गतियो रूपी नगरो और राष्ट्रों में घुम आया है। अब यह मानव रूपी व्यापारी का पुत्र बना है। अभी इसे पता ही नही है कि मानवगति मे, भनुष्ययोनि से वह किसलिए आया है * वह यह भी भूल जाता है ससार नगर में उसे कौन-सा माल खरीदना है ? उस माल के लिए कहाँ-कहाँ किसके पास जाना है और वापिस कब लौटना है ? ससार नगर में पहुँचा हुआ मानवपुत्र नगर की सासारिक चकाचौंध मे, इन्द्रिय-विषयो रूपी माल से सजी हुई दुकानो मे, कषायोत्तेजक दशनीय स्थलो मे, स्वर विहार मे, अधर्म की गलियो में इधर-उधर मटकता रहता है। उसे चलना था सोक्ष ले जाने वाले मार्गों पर, परन्तु चलने लगता है, पाप, अधर्म एव दुष्कृत्य की ओर ले जाने वाली 'राहो पर' उसे पहुँचना था, अपने लक्ष्--मोक्षनगर को, लेकिन वह ससार नगर की भूलसझुलैया मे, चवककरदार गलियो मे, विषयो को चकाचौंध मे, और कष्ायो की घमाचौकडी मे ही भटक जाता है, उसी भे रस जाता है। इसी मे उसका भायुष्य रूपी मास पूरा हो जाता है और मृत्यु (यमराज) का बुलाबा आ जाता है। परन्तु वह आयुष्य पूर्ण होते समय मानव जीवन का लक्ष्य भू घवराता है, पश्चात्ताप करता है कि हाय | मैंने ससार नगर मे आ कर कुछ भी नही खरीदा, कोई भी चीज नही ली | किसी से भी नही मिला ? इस प्रकार अभीष्ट लक्ष्य प्राप्ति के लिए जो सत्कार्य करने थे, उन्हे नही कर सका और खाली हाथ रह गया। मौत का वारण्ट आते ही उसे अपने कार्य की सुध आती है, पर अब क्या हो सकता है ? और इस प्रकार लक्ष्यहीन मानवपुत्र हाथ मलते-मलते रह जाता है। अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो काय॑ करने चाहिए, उन्हे नही कर पाता और जिन्हे नही करना चाहिए, उन कार्यों मे प्रसन्नतापूर्वक जुट जाता है, उन्हे धडल्ले के साथ करता है। यही कारण है कि इस ससार में आकर मानव विषय कषायो और दुब्यंव- हारो में प्रवृत्त होकर अपने आपको, अपने लक्ष्य को और लक्ष्य के अनुरूप कार्यों को मूल जाता है । निष्कर्प यह है कि मनुष्य को अपने जीवन का लक्ष्य, जो सर्वधर्मों एवं सर्व- दर्शनो द्वारा मान्य है, जिसे सभी ऋषियो, म्ुुनियो, तीर्थंथरो और अवतारो ने एक स्वर से स्वीकारा है, उसे इस ससार मे आकर भूलना नही है। साथ ही, लक्ष्य से भटकाने वाले, लक्ष्य के अनुकूल कार्यों से विमुख करने वाले कार्यों से हटकर लक्ष्या- नुकूल कार्यों में अह॒निश सलग्न रहना चाहिए | इस जीवन का लक्ष्य नहीं है, विज्धान्ति भवन में टिफ रहना | किन्तु पहुंचना उस सजिल पर जिसके आगे राह नहों॥ मनुष्य-जीवन का लक्ष्य क्या है ? और लक्ष्य के अनुकूल प्रमुख कार्य क्‍या है ” अपना स्वरूप कया है ? अपना असली स्थान कहाँ है ? इसका जिस मानव- व्यापारी को पता नही, वह लक्ष्यविहीन होकर फुटबॉल की तरह इधर से उधर चक्कर काटता रहता है। आचारागसूत्र मे भगवान्‌ महावीर ने कहा है कि बहुत-से जीवो को यह पता ही नही होता कि, मै पूर्व-दिशा से आया हूँ, पश्चिम दिशा से आया हूँ, उत्तर दिशा से आया हूँ या दक्षिण दिशा से आया हूँ ” मुझे कहाँ जाना है ? क्‍या करना है ? यह वे नही जानते ।१ गृहस्थ साधक कवि श्रीमद्‌ राजचन्द जी के शब्दों में कहे तो-- हु फोण छूँ ? कया थी थयो ? शु स्वरूप छे मारू खरू ? कोना सम्वन्धे चलगणा छे? राखु के ए परिहुरू ? लक्ष्मी अने अधिकार बधता शु वध्य ते तो कहो ? शु फुटम्ब के परिवार थी वधवापणु ए नय ग्रहों । वधवापणु. ससारनु नर देह ने हारो जबवो, ऐनो विचार नहीं अहो हो, एफ पल तमने हुवो ! १ इहमेगेसि नो सण्णा भवईइ त जहा « --आचाराग १११ ६ दान महत्त्व भीर स्वरूप इन पक्तियो का भाव स्पष्ट है। अधिकाश मनुप्यो वो आज यह पता भी नही है कि मैं कोन हूं ? हाँ, पूछने पर ये तपाक से यह तो कह देते हैं कि मैं प्रेमचन्द हूँ, पवनकुमार हूँ, विमलचन्द हूँ आदि | अथवा यो भी बह देंते हैं--मैं वैश्य हूँ, भाह्मण हूँ, क्षत्रिय हूँ अथवा डॉक्टर, वकील, इजीनियर या व्यापारी हूँ। पर अपना असली स्वरूप, असली नाम वे वही जानते | इसी कारण वे ससार के रग- महल मे प्रविष्ट होकर अपना सब कुछ नाम, रूप भूल जाते हैं, और इन नकली, बनावटी नाम, रूपो, जातियो या पेशो के चक्कर मे पड जाते हैं । अधिकाश मनुष्यों को यह भी पता नही होता कि वे आये कहाँ से है ? कहाँ से या किस पुण्यकर्म से वे मनुष्य बने हैं? उनके मनुष्य जन्म पाने के पीछे क्या रहस्य है ? ज्यादा पूछने पर वे यह कह देते हैं--हम अमुक माता-पिता से पैदा हुए हैं ” अमुक खानदान के हैं, अमुक वश और कुल के हैं अथवा अमुक देश या नगर से आकर यहाँ बसे हैं। उन्हे यह ज्ञान नही होता कि वे मनुष्य गति से, तियंचगति से, देवगति से था नरकगति से आए है ? कदाचित्‌ वे शास्त्रों से सुनकर या किसी सन्मार्ग दर्शक गुर के बता देने पर कुछ बातें यथार्थ बता देते हैं, लेकिन उनके दिल दिमाग में या सस्कारो मे असली बात नही जम पाती । कई लोगो को अपने स्वरूप का भान नही रहता । वे मनुष्य जन्म पाकर भी अपने आत्मगुणो या बहिसादि ग्रुणो या स्वभाव के विपरीत हिसादि दुष्कर्म करते रहते हैं। स्वार्थ-त्याग के बदले अति- स्वार्थ मे फेसे है । साराश यह है कि लक्ष्यविहीन, निजस्वरूप के भान से रहित एवं कत्तंव्य- बोघ से भ्रष्ट मानव की यही दशा है। अत मनुष्य को सर्वप्रथम अपने लक्ष्य का भान होना आवश्यक है । यह तो हम प्रारम्भ में स्पष्ट कर आये हैं कि मानव जीवन का परमलक्ष्य मोक्ष है। भोक्ष का स्वरूप भी लगभग स्पष्ट है कि समस्त विकारो, कर्मों एव वासनाओ से रहित हो जाना, कर्म और कर्मबध के कारणों का पूर्ण अभाव हो जाना, सभी सासारिक झमेलो से दूर हो जाना मोक्ष है । रस हर हक 8०% हा उस परमलक्ष्य--मोक्ष के प्राप्त करने के उपाय कौन- ; 5 साधन कौन-कौन-से हैं ? यह विषय । इसका स्पष्टीकरण हम अगले अध्याय मे करेंगे। 20५ ४3226 [2] मोक्ष के चार मार्ग एक भोलाभाला यात्री जा रहा था। यात्री सरल और जिज्ञासु था। उसे काशी पहुँचना था । अत अपने पडाव से चलते ही एक महात्मा से उसने पूछा-- “महात्माजी | काशी जाने का रास्ता कौन-सा है ?” महात्मा बोले---“भाई ! काशी जाने के चार मार्ग हैं। एक गभानदी के किनारे-किनारे होकर जाता है, दूसरा रास्ता सडक का है, तीसरा रेलपथ का है, जिस पर होकर ट्रेन जाती है और चौथा है--हवाई भागे, जो आकाश में होकर जाता है | यात्री जिज्ञासु था, इसलिए सुनकर घबराया नहीं, उसने विनम्र भाव से पृद्धा--'मेरे लिए कौन-सा रास्ता आसान, अल्पव्ययसाध्य रहेगा ?” भहात्मा ने उसकी जिज्ञासु बुद्धि देखकर कहा--“देखो, हवाई मार्ग से बहुत जल्दी पहुँचा जा सकता है, परन्तु है वह बहुत ही खर्चीला, वह तुम्हारे बस का नहीं है, रहा जलमार्ग--वह भी कष्टपूर्ण है, तीसरा रेलमार्ग है, वह भी खर्चीला है। इसलिए सडक का मार्ग ही तुम्हारे लिए आसान और सुलभ रहेगा ! इस राजमार्ग पर जगह-जगह तुम्हे मार्मदशंक पत्थर भी लगे हुए मिलेंगे, जिन पर काशी कितनी दूर है और कितनी दूर तक तुम चल चुके हो, यह भी भकित रहेगा | दोनो ओर सघन पेडो की ठण्डी छाया मिलेगी । जगह-जगह तुम्हें कई सहयात्री भी मिल जायेंगे। विश्वामस्थल भी स्थान-स्थान पर मिलेंगे, जहाँ बैठ कर ठुम अपनी थकान भी मिटा सकोगे, शीतल मधुर जल पीकर अपनी प्यास भी बुझा सकोगे ।” जिज्ञासु यात्री महात्मा की बात समझ गया और उसी सडक पर चल पडा । यही वात जीवन यात्री के सम्बन्ध में है। मानव को अपनी जीवन-यात्रा भी मोक्ष रूपी लक्ष्य की ओर करनी है। मोक्ष तक पहुँचने के भी महापुरुषों ने चार मार्ग बताये हैं | आचाये विनय-विजयजी ने शान्त सुधारस भावना में इन्ही चार मार्गों का इस प्रकार निरूपण किया है- ८ दान महत्व और स्वरूप दान वे शोल व तपश्च भावों, घ॒र्मश्चतुर्घा जिनवान्धवेन । निरूपितों यो जगता हिताय, से मानसे में रमतामजस्म्‌ ॥ दान, शील, तप और भाव ये चार मोक्ष के मार्ग हैं, धम के अग है, वीतराग परमात्मा ने ससार के प्राणियों के कल्याण के लिए इनका निरूपण किया है | यह चतुविध मोक्षोपाय मेरे हृदय मे सतत स्मण करे ।) चारो मार्गों मे सबसे आसान सार्ग--दान / ये चार मार्ग हैं--मोक्षोपाय हैं, जो मानवयात्री को अपनी मजिल तक पहुँचा देते हैं, परन्तु यात्री के सामने फिर वही प्रशन खडा होता है कि इन चारो मार्गों से कौन-सा मार्ग उसके लिए आसान, अल्पकष्टसाध्य, सुलम और आरामदेह होगा) जैसे उस जिज्ञासु यात्री को महात्मा ने सडक का मार्ग सबसे आसान, अल्प- कष्ट-साध्य राजमार्ग बता दिया, वैसे ही यहाँ दान, शील, तप और भाव इन चारो मार्गों मे आसान और सर्वेजनसुलभ मार्ग दान का है। क्योकि तप प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान नही है, ओर लम्बा बाह्य तप सबके लिए अनुकूल भी नही होता और तप प्रतिदिन सम्भव भी नही है। इसलिए तप आबलवृद्ध सबके लिए इतना सुलभ नही है। और शील भी विषयासक्त मनुष्यो के लिए सुगम नही है । जो सामान्य गृहस्थ हैं, उनके लिए शीलपालन दु शक्य है। फिर प्रत्येक गृहस्थ के लिए प्रतिदिन शीलपालन भी दृष्कर है। त्यागी मुनियो के लिए पूर्णह्मेण शील (ब्रह्मचय) का पालन विहित है, नव वाड (गुप्त) पूर्वक ब्रह्मचय का विशुद्ध पालन अत्यन्त दुष्कर है | जो व्यक्ति आरम्म-समारम्भ भे सलसन रहते हैं, रात-दिन ग्ृहकार्यों मे व्यापार व्यवसाय में या खेती आदि में अथवा कल-कारखाने जादि भाजीविका के कार्यों मे जुटे रहते हैं, उनके लिए शुद्ध भाव भी सुकर नही है। भाव तो हृदय की वस्तु है, जहाँ तक व्यक्ति आरम्मादि मे लगा रहता है, उसका दिल-दिमाग भी प्राय उसी ओर लगा रहता है। प्रतिक्षण या प्रतिदिन भाव का लगातार बना रहना भी दुष्कर है । इसीलिए एक आचाय ने इस विषय में बताया है-- गृहस्थो के लिए तप करना सरल नही होता,' विषयासक्तो के द्वारा शील- पालन भी नही होता, और आरम्भयुक्त लोगो के हृदय मे शुभ भाव पैदा होना भी कठित है, क्योंकि भाव सदा मन-मस्तिष्क के स्वाधीन होने पर ही उत्पन्न होता है । ! न तबो सूद्‌ढु गिहीण, विसयासत्ताण होइ न तु सील । सारभाण न भावों तो साहीण सया भाव ॥ --अभिषधान राजेन्द्रकोष मोक्ष के चार भार्ग & व्यापार आदि की चिन्ता मे उलझे हुए मन-मस्तिष्क में उत्तम भाव-कहाँ से उत्पन्न हो सकते हैं ” इस पर से आप स्वय समक्ष सकते हैं कि उपयुक्त चतुविध मोक्षमार्ग में से कौन-सा मार्ग आसान और सर्वेजन सुलभ है ? जब तप, शील और भाव सबके लिए सुगम और सुलभ नही हैं, तो फिर दान ही एक ऐसा मार्ग है, जो सुगम भी है, सर्व॑- जनसूलभ भी है। दान एक छोठा-सा बालक भी कर सकता है, एक वृद्ध भी कर सकता है; एक युवक भी कर सकता है, एक महिला भी कर सकती है। भोगी एव गृहरुथ सभी के लिए दान का मार्ग आसान है, अल्प कष्ट साध्य है, असम्भव भी नही है। दान एक ऐसा राजपथ है जिस पर आसानी से चलता हुआ मनुष्य अपनी मजिल के निकट पहुँच सकता है। इसलिए दान का मार्ग ससार के सभी मानवो के लिए सुलभ है। दान के लिए तपस्या की तरह कोई कष्ट सहना नहीं पडता, न उसके लिए पूर्ण कठोर ब्रह्मचयं-पालन की ही अनिवायंता है, और न ही भ्रतिक्षण उत्तम भावों से भोतप्रोत होने की आवश्यकता है। तप, शील और भाव सबसे प्रतिदिन नही हो सकते, तपस्या कोई करेगा, तभी किसी अमुक दिल या अमुक तिथियो को, उसके बाद उसे पारणा करना ही होगा, अन्न ग्रहण करना होगा, आजीवन तपस्था नहीं हो सकती, लेकिन दान तो प्रतिदिन हो सकता है, जिन्दगी भर हो सकता है। शील का पालन भी प्रत्येक ग्ृहस्थ व्यक्ति के लिए प्रतिदिन सम्भव नही है, लेकिन दान तो बच्चे, बूढ़े महिला और युवक सभी के लिए श्रतिदिन सम्भव है। इसी प्रकार भावों का सातत्य भी सबके लिए आसान नही है, दाव का सातत्य फिर भी सम्भव है, कम से कम प्रतिदिन तो दान का क्रम चल ही सकता है । इसलिए मोक्ष के चार मार्गों मे दान सर्वसुलभ, आसान और अल्पकष्टसाध्य होने से मानव-यात्री के लिए सर्वश्रेष्ठ राजमार्ग है। इसीलिए उपदेशतरगिणी मे दान को इस भुमण्डल मे सर्वेश्रेष्ठ बताया है--- 'पूथिव्या प्रवर दानम्‌ ।) धर्म के चार चरण ् मोक्षमार्ग को प्राप्त करने के लिए धर्म हो उत्तम साधन है। क्योकि धर्म के द्वारा व्यक्ति अपने सचित कर्मो का क्षय कर सकता है, दानादि गुणो को अपनाकर अपने मन, वचन, काया को पचित्र बना सकता है। दुर्गंति भे जाने से अपने आपको रोक सकता है। उस शुद्ध धर्म के" चार चरण महापुरुषों ने बताए हैं। जिनके आचरण से ही मनुष्य उपयुक्त स्थिति भाप्त कर सकता है। आचरण ही भनुष्य के पल ++->>नन-+-- १ सो घम्मो चउभेओ उवइट्ठी सयलजिणवर्रिदेहि | दाण सील च तवो भावों वि य, तस्सिमे मेंया ॥/! १६० दान॑ महत्व और स्वरूप जीवन को उन्नति के पथ पर ले जाता है । मगर धर्म फा आचरण तीत्रगति से न हो तो व्यक्ति आगे नही वढ सकता, अपने अभीष्ट लक्ष्य को भी प्राप्णन नही कर सकता । इसीलिए नी तिकारो ने कहा है-- 'घर्मत्प त्वरिता गति , चत्वार पादा: घमम की गति तीन है, उसके चार चरण हैं । नीतिकार तो इतनी-सी बात कहकर रह गए, अयवा ऊपर-ऊपर ही तैरते रह गए । मगर इसके तत्त्व की तह तक नही पहुँच सके । वास्तव में धर्म के ये ही" चार चरण हैं--दान, शील, तप और भाव, जिनके सहारे से धर्म अभीष्ट लक्ष्य की ओर त्वरित गति कर सकता है । :यद्यपि धर्म केर चारो चरण महत्त्वपूर्ण हैं, घर्मरथ को चलाने के लिए इन चारो की समय-समय पर जरूरत पडती है। किन्तु दान न हो तो शेष तीनो अगों से काम नही चल सकता । दान के अमाव में शेष तीनो चरणों से नज्नता भौर उदारता सक्रिय रूप नही ले सकती । दान मानव-जीवन मे स्वार्थ, लोभ, तृष्णा और लालसा का त्याग कराता है, मानवहृदय को वह करुणा, परोपकार ओर परसुख वृद्धि मे सहायता के लिए प्रेरित करता है)» जैसे खेती करने से पहले किसान खेत की धरती पर उगे हुए कटीले क्षाड-झखाडो, काटो, ककड-पत्थरो, फालतू घास आदि को उखाड कर उस घरती को साफ, समतल ओर नरम बना लेता है, तमी उसमे बोये हुए बीज अनाज को सुन्दर फसल दे सकते हैं | वैसे ही मानव की हृदयभूमि पर उगे हुए तृष्णारूपी घास, लालसा, स्वार्थ और अहतारूपी काटो, कटीले झाड- झखाडो एवं ककर-पत्थरो को उखाड कर उसे नम्न एव समरस बनाने के लिए दान की प्रक्रिया की जरूरत है, जिससे अन्य शील, तप आदि साधनाएँ भलीमांति हो सके, धर्म भावो की फसल तैयार हो सके । निष्कर्ष यह है कि हृदयभूमि को नम्न व समरस बनाकर बोये हुए दानबीज से धर्म की उत्तम फसल तैयार होती है) ॥ हृष्टि से देखा जाय तो धर्म के चार चरणों मे सबसे महत्त्वपूर्ण और आवश्यक चरण दान है, वही शेष तीनो चरणों भे तोब् गति पैदा कर सकता है) धर्म के चार अंगो मे दान प्रथम क्यो ? _ छ्लक्मार्ग के चार प्रकार बताये गये हैं, जिन्हे हम घर्मं के चार अग्र कह १ दान सील च तवो भावों एवं चउविहों घम्मो। ह सब्वजि्ेहि भणिओरो, तहा दुह्य सु आचरिते हि ।! --शप्ततिशतस्थान प्रफरण भा ६५६ २ दुर्गंति-प्रपतज्जन्तु घारणाद घ॒र्मं उच्यते । दानशील-तपोभावभेदात्‌ स ठहु चतुविध ॥ -भिषष्टिशलाफापुरषचरित १११।१५२ मोक्ष के चार भाग ११ सकते हैँ, उनमे दान को प्राथमिकता दी गई है। प्रश्न यह होता है कि इन चारो मे से शील, तप या भाव को पहला स्थान न देकर दान को ही पहला स्थान क्‍यों दिया गया है ? इसके पीछे भी कुछ न कुछ रहस्य है, जिसे प्रत्येक मानव को समझना अनिवायं है.) (द्वान को प्राथमिकता देने के पीछे रहस्य यह है कि शील, तप या भाव के आचरण का लाभ तो उसके आचरणकर्ता को ही मिलता है, भर्थात्‌ जो व्यक्ति शील का पालन करेगा, उसे ही प्रत्यक्ष लाभ मिलेगा, इसी प्रकार तप और भाव का प्रत्यक्ष फल भी उसके कर्ता को ही मिलेगा, जबकि दान का फल लेने वाले और देने वाले दोनो को प्रत्यक्ष प्राप्त होता है) (यद्यपि शील, तप और भाव का फल परोक्ष रूप से कुटुम्ब या समाज को भी मिलता है, किन्तु प्रत्यक्ष फल इन्हे नही मिलता । जबकि दान देने से लेने वाले की क्षुधा शान्त होती है, पिपासा ब्रुश्न जाती है, उसकी अन्य आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति होती है, उसके दु ख का निवारण होकर सुख मे प्रत्यक्ष वृद्धि होती है और देने वाले को भी आनन्द, सन्तोष, भौदायं, सम्मान एवं गौरव प्राप्त होता है। यदि दान लेने वाले को कोई लाभ न होता तो वह उसे लेता ही क्यो ? इसी प्रकार दान देने वाले को भी प्रत्यक्ष कोई लाभ न होता तो वह भी देता ही क्यो ? दान का लाभ दाता और समृहीता दोनो को साक्षात्‌ प्राप्त होता है। कभी-कभी दान का प्रत्यक्ष लाभ समाज को या अमुक पीडित, शोपित या अभावग्रस्त मानव को भी मिलता है। इसी कारण है) को धर्म के चार अगो में या मोक्ष के चतुविध मार्ग में सर्वप्रथम स्थान दिया गया है (दूसरी बात यह है कि शील का पालन या तप का आचरण कभी-कभी प्रत्यक्ष दिखाई नही देता, आम जनता सहसा नही जान पाती कि असुक व्यक्ति ने तप किया है या अमुक आम्यन्तर तप करता है तथा अमुक व्यक्तिशील का पालन करता है या कुशील का सर्वथा त्याग कर दिया है /जब॒कि दान का आचरण सबको प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तप और शील कदाचित्‌ सक्रिय नही भी होते, जबकि दान सदा सक्रिय होता है। और भाव तो सदा ही परोक्ष, अज्ञात और निष्क्रिय रहता है । भाव का प्रत्यक्ष दर्शन तो सिवाय मन पर्यायज्ञानी या केवल ज्ञानी के और किसी को हो नही सकता । इस कारण भी दान को सबसे पहला नम्बर दिया गया हैं) वीसरा कारण यहं है कि मनुष्य जब से इस दुनिया में आँखें खोलता है, तब से आँखें मु दने तक यानी मनुष्य-जीवन प्राप्त होने से मृत्युपर्यन्त दान की प्रक्रिया जीवन' मे चल सकती है, व्यक्ति दान दे सकता है, ले सकता है, जबकि शील, तप या भाव की प्रक्रिया इतनी लम्बी, दीघंकाल तक या जन्म से लेकर मृत्यु तक नहीं चलती । शील की प्रक्रिया ज्यादा से ज्यादा चलती है तो समझदारी प्राप्त होने से लेकर देहान्त तक चल सकती है | जबकि दान की प्रक्तिया तो व्यक्ति के भमरणोपरान्त भी उसके नाम से पीढी-दर-पीढी तक चलती रहती है। तपश्चर्या की १२९ दान महत्व और स्वरूप प्रक्रिया भी ज्यादा से ज्यादा समझदारी प्राप्त होने से देहावसान त्तक चलती है, वह भी प्रतिदिन नही चलती और शरीर मे रोग, सानप्तिक चिन्ता या शोक हो तो तप की प्रक्रिया ठ5प्प हो जाती है। दान का आचरण तो रोग, व्याधि, बुटापा, णोक आदि के होते हुए भी होता रहता है। और भावों की भ्रक्रिया भी समक्षदारी-- पवकी समक्ष प्राप्त होने से जीवनपर्यन्त चल सकती है, लेकिन बीच-बीच में रोग, चिन्ता या लोभादि अन्य कारण आ पडने पर उसकी घारा टूट भी जाती है। इसलिए दीर्घकाल तक, जिन्दगी मर और कभी-कभी कई पीढियों तक दान की घारा ही असण्डरूप से वह सकती है, इस दृष्टि से भी दान को सर्वाधिक उपयोगी समक्षकर प्राथमिकता दी गई है । चौथा कारण यह है कि वालको मे या पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उदारता, नम्नता, परदु खकातरता, सेवा, सहानुभूति एवं सहृदयता के सस्कार दान से ही जग सकते हैँ, दान के आचरण से ही बालको मे उदारता आदि के सुसस्कार बद्धमूल हो सकते हैं, परिवार एवं समाज मे भी दूर-दुर दानाचरण के पवित्र परमाणु अपना प्रभाव डालते हैं, सारे वायुमण्डल को दान का आचरण स्वच्छ वना देता है, जबकि तप, शील या भाव के सस्कार सहसा नही पडते, न ही छोटे बच्चे उन सस्कारो को ग्रहण कर सकते हैं। दान के आचरण से या बालक के हाथ से स्वय दान कराने से उसमे बहुत ही शीघ्र उदारता, सहानुभूति आदि के सस्कार जड जमा लेते हैं। यही कारण है कि तप, शील या भाव को प्राथमिकता न देकर दान को इन चारो में प्राथमिकता दी गई । पाँचवाँ कारण दान को प्राथमिकता देने का यह है कि दान से समाज को सहयोग मिलता है, समाजपर दुभिक्ष, अतिथृष्टि, बाढ, सूखा, भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोप आ पडने पर दान से ही उस आपत्ति का निवारण हो सकता है, वह सकट मिट सकता है, जबकि तप, शील या माव से समाज को ऐसे प्राकृतिक दुख निवारण में प्रत्यक्ष मे उतना सहयोग या सहारा नही मिलता | समाज के अनाथ, अपाहिज, दीन-दु खली या अमावग्रस्त व्यक्ति को दान से ही तुरन्त सहारा मिल सकता है, उनका सकट मिटाया जा सकता है। इसलिए दान को ही पहला स्थान दिया जाना उचित है । छूठा कारण दान को प्रथम स्थान मिलने का यह प्रतीत होता है कि समाज मे व्याप्त विषमता, अभाव, शोषण या असमानता को मिटाने के लिए दान का होना अनिवाय है। घनिको के धन का, थदि समाज मे व्याप्त विषमता को कुछ अश तक कम करने के लिए दान के रूप में ध्यय होता जाब अथवा सभाज की सूलभूत जाव- श्यकताओ की धरृत्ति करने भे उनकी घनराशि व्यय होती रहे, जैसे कि औषधालय, विद्यालय, अनाथालय आदि सस्थाओं को दिया जाता रहे तो समाज में व्याप्त जसन्‍्तोष ओर प्रतिक्रिया दूर हो सकती है, समाज में सुव्यवस्था और सुख्च-शान्ति रा मोक्ष के चार मार्ग १३ व्याप्त हो सकती है । इसी दृष्टिकोण से दान जितना समाज के लिए लाभदायक, सुख-शान्तिवद्धंक एव विषमतानाशक हो सकता है, उतने अन्य नहीं। अत दान को उत्कृष्ट मानकर प्रथम स्थान दिया गया है। श्रमण भगवान्‌ महावीर ने इसी हृष्टि से गृहस्थ साधको के लिए अतिथि सविभागब्नरत या यथासविभागन्नत निश्चित किया है, ताकि गृहस्थ अपनी आय एवं साधनों में से ययोचित सविभाग उत्कृष्ट साघको, सेवा- ब्रती सस्थाओों एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए करे । एक और कारण है, दान को प्राथमिकता देने का, वह यह है कि गृहस्थ के जीवन मे कूटने, पीसने, पकाने, पानी के घडो को मरने तथा सफाई करने आदि में अनेक प्रकार के आरम्भ-समारम्भ होते रहते हैं, अत इनके जरिये घर मे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट पात्र एवं अतिथि आदि को देने पर पुण्य तथा नि स्वार्थ व उत्कट भावना से योग्य पात्र को देने पर धर्म का लाभ हो सकता है। इस दृष्टि से गृहस्थ के लिए दान अनिवायें तथा प्रतिदित की शुद्धि का कारण होने से उसे महाघर्म भी कहा है । पद्मनन्दि पचरविशतिका मे स्पष्ट कहा गया है-- नानागृहव्यतिकराजितपापपुज्ज , खज्जीकृतानि गृहिणो न तथा ब्तानि । उच्चे फल विदघतीह यथेकदाडउपि, प्रीत्यातिशुदुसनसा. कृतपान्दानस्‌ ॥२॥१३ --लोक मे अत्यन्त विशुद्ध मन वाले गृहस्थ के द्वारा प्रीतिपूर्वक पात्र के लिए दिया गया दान जैसे उन्नत फल को देता है, वैसा फल घर की अनेक झप्टो से उत्पन्न हुए पापसमूहो के द्वारा कुबडे यानी शक्तिहीन किये हुए गृहस्थ के ब्रत नही देते । इस विपय में आचारयों ने और अधिक स्पष्टीकरण किया है--प्रश्न उठाया गया है कि" दानादि ही श्रावको (गृहस्थो) का परमधर्म कैसे है ? इसका उत्तर दिया है--“वह यो है कि ये गृहस्थ लोग हमेशा विपय-कपाय के अधीन हैं, इस कारण इनके आर्तंरोद्रध्यान उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए निश्चयरत्नत्रय रुप शुद्धोपयोग परमधर्म का तो इनके ठिकाना ही नही है, यानी अवकाश ही नही है ।” तात्पयं यह है कि गृहस्थ के द्वारा हुए आरम्भजनित पापो की शुद्धि के लिए दानधर्म जितना आसान होता है, उतना शील, तप और भाव नहीं। इसलिए दान को गृहस्थ के लिए परमधर्म कहा है, और यही कारण उसको प्राथमिकता देने का है। १ कस्मात्‌ स एवं परमोधर्म इत्ति चेत्‌ निरन्तरविपयक्पायाधोनतया आतंरौद्रध्यान- रताना निश्चयरन्न नयनक्षणन्य शुद्धोपपोगपरमधघमस्यावकाणशों नान्‍्तीति | “परमात्मप्रकाश टोका २११६१ १४ दान भहत्व और स्वरूप वैदिकधर्म के व्यवह्ारपक्ष का प्रतिपादन करने वाले मनुल्मृति बादि भ्रन्यो में गृहस्थ के लिए प्रतिदित दान,की परम्परा चालू रखने हेतु 'पच वैवस्वदेवयज्ञ का विधान है। अर्थात्‌ ग्रहस्थ के द्वारा होने वाले आरम्भजनित दोपो को कम करने के लिए भोजन तैयार होते ही सर्वप्रथम गाय, कुत्ता, कौमा, अग्नि एवं अतिथि इन पाचो के लिए ग्रास निकाला जाय | शील, तप या भाव का विधान वहाँ सभी ग्रृहस्यों के लिए नही किया गया है । इस दृष्टि से भी दान को प्रथम स्थान दिया गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। इसीलिए परमात्मप्रकाश में स्पष्ट कहा है--ग्रहस्थों के लिए आहारदान आदि परमधर्म हैं ।" दान को प्राथमिकता देने का एक कारण यह भी सम्भव है कि जगत्‌ में नि स्पृह, त्यागी साधु, सन्त या तीर्थंकर आदि ज्ञान-दर्शन-चारित्र का उपदेश, प्रेरणा था मार्गदर्शन न देते या न दें तो मनुष्य दुर्लमबोधि, वर्वेर, नरभक्षी या पिशाचवत््‌ अतिस्वार्थी बना रहता, अफ्रीका के नरभक्षी मनुष्यो को मानव (इन्सान) बनाने में वहाँ के साधुओ (पादरियों व घममंग्रुरुओ) ने बहुत कष्ठसाध्य तप किया है। परन्तु उनमे जो भिक्षाजीवी या गृहस्थो को दान पर आश्रित साधु, सन्त हैं, उनको जीवन की आवश्यक वस्तुएँ गहस्थ लोग दान मे देकर पूर्ति करें तभी वे साधु अपने शरीर, मन, बुद्धि आदि को स्वस्थ और सशक्त रखकर सघ (समाज) सेवा का उक्त महान्‌ कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार के मुनियो, श्रमणो या साघु-सन्‍्तो को आहारादि दान देकर गृहस्थ को शेष अन्न को प्रसाद के रूप सेवन करना चाहिए तथा ऐसे सत्पान्न को दान देना श्रावक का मुख्य धर्म बताया है। रयणसार मे इसी बात का समर्थन स्पष्टरूप से किया गया है--- जो भमुणिभुत्तसेस भुजइ सी भु जए जिणवद दिट्ठ । ससारसारसोब्ल _ कमसो._ णिव्वाणवरसोब्ख ॥ ४ दाण पूजामुबध सावय घस्मे, ण सावया तेण विणा अर्थात्‌--जो भव्यजीव मुनिवरों को आहार देने के पश्चात्‌ अवशेष अन्न को प्रसाद समझ कर सेवन करता है, वह ससार के सारशभूत उत्तमसुखो को पाता है ओर क्रमश उत्तम मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेता है। (कण को आहारादि चार प्रकार का दान देना श्रावक का मुख्य घ॒र्म है, जो प्रति दोनो को भुझू्य कतंब्य मानकर पालन करता है, श्रावक है, घर्मात्मा व सम्यन्दृष्ठि है। दान के बिना श्रावक श्रावक नही रहता है 9 १ गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो घ॒र्म ।--परमात्म प्रकाश टीका २/१११ २ रयणसार २२ हे रयणसार ११ भोक्ष के चार भागें १५ इस पर से जाना जा सकता है कि दान जब जीवन में अनिवाये कतंव्य है तो उसे प्राथमिकता दिया जाना कथमपि अनुचित नही है। (दान को पहला स्थान केवल इस लोक में ही नही, देवलोक मे भी दिया जाता है | यहाँ से आयुष्य पूर्ण करके जो भी व्यक्ति स्वर्ग मे पहुंचता है, उसके लिए पहला प्रश्न यह अवश्य पूछा जाता है--फि वा दच्चा, कि था भुच्चा कि वा फिच्चा, कि था समायरित्ता ? अर्थात्‌ यह भनुष्यलोक से स्वर्ग में आया हुआ जीव वहाँ क्‍या दान देकर, क्या उपभोग करके, क्या कार्य करके अथवा क्या आचरण करके आया है? मतलब यह है कि देवलोक मे पहुँचते ही स्वंप्रथम और बातो का स्मरण न करके दान के विषय में ही पूछा जाता है, दान की ही बात सबसे पहले याद की जाती है, अन्य बातें बाद में पूछी जाती हैं । इससे आप अदाजा लगा सकते हैं कि महापुरुषों ने दान को धर्म के चार अगो या मोक्ष के चार मार्गों मे पहला स्थान' क्यों दिया है?) प्र डर [3 | चल 3 दान से विविध लाभ दान से क्या लाभ ? कई लोग लाभवादी दृष्टिकोण के होते हैं, वे किसी काम को करने से पहले उसके हानि-लाभ के बारे मे अवश्य सोचेंगे, एक बार नही, बार-बार | अगर उस काम से कुछ फायदा नजर आता है तो वे उस कार्य को करने मे वे श्रवृत्त होते हैं, अन्यथा हर्गिज नही। अगर उन्हें उस कार्य में जरा-सी हानि मालूम होती है तो वे उस कार्य को करने मे हिचकिचाते हैं । समझदारो की एक उक्ति है--प्रयोजनमनुद्विश्य मन्दो5षपि न भ्रवर्तते' अर्थात्‌ किसी भी काम मे मूर्ख या मन्दबुद्धि भी तब तक प्रवृत्त नही होता, जब तक वह उस कार्य का प्रयोजन न जान ले अथवा उस कार्य का महत्त्व न समझ ले | मतलब यह है कि समझदार मनुष्य किसी उद्देश्य को सामने रखकर ही कार्य करता है। दान के सम्बन्ध में भी यह बात तर्कंशील व्यक्ति प्रस्तुत करते हैं कि दान हम क्यो दें ? एक तो हम अपनी चीज से वचित हो, और फिर उसके देंने से कोई प्रयोजन (मतलब) भी सिद्ध न होता हो, दान देंने से तिजोरी या भण्डार खाली भी हो और बदले मे कुछ भी लाभ न मिले, तो ऐसे दानकार्ये मे विवेकी व्यक्ति सहसा कंसे प्रवृत्त होगा ? क्योकि दान में तो अपने स्वामित्व की कुछ-न-कुछ चीज निकाली या छोडी ही जाती है, अगर दान के रूप मे किसी वस्तु को छोडने से कोई लाम मी न हो, तब ऐसा घाटे का सौदा भला कौन बुद्धिमान करना चाहेगा । दिया हुआ कुछ भी निष्फूल नहीं जाता-- इस भहत्त्वपूर्ण प्रश्न के उत्तर में नीतिकार कहते हैं-- पात्र धर्मनियन्धन तबितरे ओष्ठ दयाण्यापकस, सित्रे प्रीतिषिवर्न सबितरे वेरापहारक्षमम्‌, भृत्ये भक्तिभरायहू तरपतोा सम्मानसम्पादकस, भद्टादो सुयशस्कर वितरण न क्वाध्प्यहो निष्फलम्‌ ॥ -+सिन्दूर प्रकरण--ए रा कही मी निष्फल नही जाना । देखो, सुपात्र को दान देंने से वह धर्मे दान से विविध लाभ १७ का कारण बनता है । दीन-दढु खी या अनुकम्पा योग्य पात्रो को देने से वह दाता की दया को बखानता है । मित्र को देने से परस्पर प्रेम बढाता है, और शत्रु को दान देने से वह वैर भाव को नष्ट कर देंने मे समर्थ है। भृत्य (सेवक) को दान देने से उसके दिल मे भक्ति का प्रवाह पैदा करता है। राजा को देने से सम्मान दिलाता है। चारण भाट आदि को देने से वह कीत्ति फैलाता है। सचमुच, दान कभी निष्फल नही जाता )) सुपात्र॒दान से एकान्त घर्मे-प्राप्ति ध्वास्तव में दान कभी व्यर्थ नही जाता । दान से एकान्त धर्म-प्राप्ति होती है । एक सुपान्न महामुनि श्रमण या त्यागी साधु को दान देने से वह घ॒र्मं का कारण बनता है। वशतें कि उस दान के पीछे कोई नामना-कामना-लोम या स्वार्थ की भावना न हो । विधिपूर्वक दिया हुआ दान सवर और निजेरा का कारण बनता है।) उस दान मे वस्तु महत्त्वपूर्ण नही होती, भाव ही महत्त्वपूणि हीता है, भावो से ही कर्मों का क्षय होता है और भावों से ही जाते हुए कर्मों का निरोघ होता है | आचाराग सूत्र में इस विपय को अधिक स्पष्ट रूप से बताया गया है कि---'केवल ज्ञानी" (मतिमान) वरद्ध मान स्वामी ने बताया है, कि समनोज्ञ व्यक्ति, समनोज्ञ (सुविहित) साधु को अशन-पान-खादिम या स्वादिम आहार-वस्त्र-पात्रया शय्या प्रदान करे, उसे निमन्रित करे, परम आदरपूर्वक उसकी वैयावृत्य (सेवा) करे तो वह धर्म का आदान (ग्रहण) करता है ।” सुवाहुकुमार ने सुदत्त अनगार को भक्ति बहुमानपूर्वक प्रासुक एथणीय आहार दिया था, जिसके फलस्वरूप उसे अपार ऐश्वरयं तथा अन्त मे मोक्ष प्राप्त होगा । यानि तत्काल तो उसे स्वगें की प्राप्ति हुई, परन्तु उसके बाद वह भहद्दाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बनेगा । यह है सुपात्र दान का महाफल, जिसका महृत्त्व जैन-वैदिक-रोद्ध आदि सभी धर्म-प्रन्यो ने एक स्वर से स्वीकार किया है । जेनागम भगवती सूत्र मे तथास्प श्रमण या माहण को दिये गये दान को एकान्त नि्जेरा-धर्म का कारण स्पष्ट सप से बताया गया है ।+ लत अंत अकिततणओ+ १ धम्ममायाणह, पवेदिय वद्धमाणेण मइमया, समणुण्णं समणुणस्स असण वा पाण वा साइम वा साइम वा वत्थ वा पाय वा सेज्ज वा पाएज्जा-णिमतेज्जा कज्जा- वेयावडिय पर आढायमाणे । “-भआचाराग १ श्रु० ८- भ श्ड २ समणोवामगर्सण भते ! तहासरव समण वा, माहण वा फासुएसणिज्जेण असण- वपाण-साइम-सादमेण पिला नेमाणस्स कि कज्जद रै गोयमा । एगतसो निज्जरा कज्जड, नग्थि य से पावे कम्मे ऊज्जड । --नगवती ८४ा६ श्८ दान महत्व और स्वरूप 'भगवन्‌ ! श्रमणोपासक (सदग्रहस्थ) यदि तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक एपणीय भाद्वार देता है तो उसे क्या लाम होता है ” गौतम ! वह एकान्त कर्म नि्जरा (धर्म प्राप्ति) करता है, किन्तु किब्चित्‌ भी पापकर्म नही करता ।' यह है दान से धर्म-प्राप्ति रूप फल का ज्वलन्त प्रमाण | इसीलिए चाणक्य से कौटिल्य अरथशास्त्र भे दान को धर्म (दान धर्म) स्पष्ट रूप से कहा है । इससे आगे बढकर दान का फल समाघि प्राप्ति बताया है। दान से समाधि-प्राष्ति (जिस समाधि (मानसिक शान्ति, परम भानन्द) के लिए लोग जगलों की खाक छानते हैं, पहाडो मे घूमते है, यौगिक क्रियाएँ करते हैं, दीर्घ तप और त्याग करते हैं, फिर भी उन्हे वास्तविक समाधि प्राप्त नही होती । लेकिन भगवती सूत्र मे स्पष्ट कहा है कि त्यागी श्रमण-माहनो को जो श्रमणोपासक (सदगृहस्थ) उनके योग्य कल्प्य वस्तुओ का दान देकर उनको समाधि (सुखशान्ति) पहुँचाता है, उस समाधि- कर्ता को समाधि प्राप्त कराने के कारण समाधि प्राप्त होती है /) द (शालिभद्र ने पूर्व जन्म से ग्वाले के पुत्र के रूप मे एक मासिक उपवास के तपस्वी मुनि को उत्कट भावो से दान देकर सुखसाता पहुँचाई थी। उसका फल उसे भी सुख शान्ति (साता वेदनीय) के रूप मे मिला । ) इटली की एक ऐतिहासिक घटना है । शर्दियों के दिन थे। लोग गर्म कपडे पहने हुए बाजारों में घुम रहे थे । तभी एक बालक अपनी माँ के साथ बाजार भाया। बालक की आायु ७ वर्ष से अधिक न थी । सडक पर एक बूढा भिखारी बैठा था। वह मीख मांग रहा था। बूढ़ा शर्दी से ठिदुर रहा था। वेचारे के शरीर पर फटे- पुराने चिथडे थे । बालक की नजर भिखारी पर पडी। अपनी माँ की उँगली छोड कर वह बूढे को एकटक देखने लगा और अपनी माँ से कहा--..“माँ | इसे जरूर कुछ दो । बेचारा मूसा होगा । देखो न, बेचारा ठड से काँप रहा है ।” बूढे भिखारी की आँखो से खुशी के आँसू टपकने लगे | वह बोला--“यह बालक एक दिन बडा आदमी बनेगा । दु खियो के लिए इसके दिल में बडा दर्द है । फिर बृढे ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे आशीर्वाद दिया । यही बालक बडा होने पर इटली का नेता--“सेजिनी' बना । अत दु खियों और पीडितो को दान देकर उनके दु ख मिटाने से उनके हृदय ३ समणोवासएण तहारूव समण वा जाव पडिलामेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा साहणस्स वा समाहि उप्पाएति । समाहिकारएण तमेव समाहि पडिलब्भई ॥ “--भगवती सूत्र श ७उ १ दान से विविध लाभ १९ से भी आशीर्वाद के फूल बरस पडते हैं। इसीलिए तत्त्वाथेसूत्र मे आचारयें उम्रा- स्वाति ने स्पष्ट कहा है--दान से सातावेदनीय (शारीरिक, मानसिक सुख-शान्ति और समाधि) की प्राप्ति होती है। अर्थात्‌ प्राणिमात्र के प्रति अनुकम्पा करना, वृत्ति (आजीविका) देना यथोचित रूप से दान देना--सराग सयम आदि का योग, क्षमा ओर शौच ये सातावेदनीय के बन्ध के कारण हैं ।* दान से दूसरो के हृदय को शान्ति और समाधि पहुँचती है, इस कारण दान- दाता को उन दु खिती और पीडितो के अन्तर की हजार-हजार दुआएँ और आशीषें मिलती हैं । ससार मे अनेक मनुष्य ऐसे हैं, जिनके पास अपना कहने को कोई मकान तो दूर रहा, पर सिर छिपाने को भी झोपडा भी नही, जो फटेहाल हैं, जिनके तन पर पूरे कपडे भी नही हैं सर्दी से शरीर ठिठुर रहा है, अनेक व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके पास खाने के लिए एक जून की रोटी भी नही है, और न ही उनके पास पर्याप्त पैसा है । विश्व मे कई लोग अन्धे, अपाहिज और अशक्त हैं, दरिद्र हैं, असाध्य रोग से ग्रस्त हैं, ऐसे जरूरतमन्द एवं दयनीय व्यक्तियो को अनुकम्पा-पात्र समझ कर दान देने से उनकी अन्तरात्मा मे सन्तोष पैदा होता है, उनके अन्तर से ऐसे दाता के भ्रति माशीर्वाद फूट पडता है । इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि दान मानव-जीवन में समाधि प्राप्त करने का उत्कृष्ट कारण है । जो जिसको साता पहुँचाता है, दानादि के द्वारा, उसे अवश्य ही सुखसाता मिलती है । उससे भी बढ़कर उसे हजारो-लाखो व्यक्तियों हारा आशीर्वाद, प्रशसा और सद्भावना के शुभ शब्द सुनने को मिलते हैं । दान : सदुभावना पैदा करने का फरण अगर ऐसे अनुकम्पापात्रों को समय पर दान न दिया जाय तो ससार में विपमता फैलती है, ऐसे दीन-हीन दु खीजनो के हृदय मे भयकर प्रतिक्रिया पैदा होती है, कभी-कभी तो वह विद्रोह का सप ले लेती है । अत इस प्रकार की गरीबी-अमीरी की विपमता, भयकर प्रतिक्रिया, विद्रोह की भावना आदि उत्पातो को मिटाकर ससार में शान्ति और सुव्यवस्था, रसने के लिए सद्भावना पैदा करने के लिए दान ही ऐसा अमोघ परम मत्र है। हरिभद्रसूरि ने अप्टक में इसी 'रहस्य का उद्घाटन किया है*--- ४दान देने वाले और लेने वाले दोनो में शुभ आशय को पैदा करता है, धन- सम्पन्न वी घन के प्रति जो ममता भोर अहता का अभिनिवेश (आग्रह) ?ै, उसे यह १ “मूतवृत्त्यनुकम्पादान सरागसयमादियोग ज्लान्ति शौोचमित्ति सद्वेद्यस्थ । २ दान शुभाशयार हवमतदाग्रहच्छेदवारि च । सदब्युदयमारागमनुकम्पाप्रसृति च २० दान महत्व और स्वस्प तोड देता है, दान अभ्युदय की परम्परा को बढाता है, धर्म का सारभूत (श्रेष्ठ) अग है और हृदय में अनुकम्पा को जन्म देने वाला है ।” दान का यह लाभ क्या कम है ? एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को, एक सस्या या समाज दूसरी सस्था या समाज को, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दु ख, कप्ट, अमाव, तगी, घाकृतिक प्रकोप, आफत या जरूरत के समय सद्भावना और सदाशयता बनाये रखने के लिए दान देता है। साथ ही समय पर दान दैने से वहाँ की सुरक्षा व सुब्यवस्था बनी रहती है। इसलिए समाज या राप्ट्र आदि की सुव्यवस्था को टिकाए रखने के लिये तथा सुख-शान्ति के लिये भी दान की प्रवृत्ति जारी रसना अनिवार्य है। मान लो, किसी प्रान्त, या राष्ट्र पर आफत या सकट के समय उसे दान नही मिलेगा तो वह भूख या किसी अभाव से पीडित होकर अनीति, चोरी, हत्या, लूटपाट या अन्य बुराइयाँ करने पर उतारू हो जाएया। भारत का इतिहास साक्षी है कि जब-जब भारत के किसी आन्त मे दुष्काल की छाया पडी है और मनुष्य श्राहि-ताहि करके मरने लगा है, उस समय यातायात के साधनों के अभाव मे या अन्य किसी कारणवश उस भूखी जनता को अन्नदान के रूप मे सहायता नही पहुंचाई गई है त्तो वे चोरी करने पर, अपने स्वय के दुधममुहे बच्चो को मारकर खाने पर या लूटपाट आदि करने पर आमादा हो गये हैं। भूखा आदमी धर्म-कर्म को ताक मे रख देता है, उस समय उसे सिवाय पेट भरने के और कुछ नही सूझता---बुभूक्षित न भ्रतिभाति किचित्‌ ।' इसीलिए नीतिकार कहते हैं--- भूखा आदमी कौन-सा पाप नही कर बैठेगा, यह नही कहा जा सकता--बुभुक्षित कि न करोति पापम्‌' भूखा आदमी या पीडित व्यक्ति जब यह देखता है कि अम्ुुक सम्पन्न व्यक्ति के कोठार में अनाज भरा पडा है, अमुक व्यक्ति अच्छा खाते-पीते और पहनते हैं, और मैं भूख के मारे मरा जा रहा हूँ, कमाई कुछ होती नही, या शरीर से अशक्त या अपाहिज हूँ, तब वह लूटपाट और अपहरण करने पर उतारू हो जाता है, ऐसी स्थिति समाज या राष्ट्र भे विषमता और अध्यवस्था को जन्म देती है। आखिर ऐसे दु खी, दी नद्दीन एवं भूखे व्यक्ति अमुक समाज, व्यक्ति या सस्था को कोसते हैं, उनकी आँखों भे घनवान और साधन-सस्पन्न के घन और साधन खटकने लगते हैं। वे फिर कम्युनिस्टो या नक्सलपधियो की शरण मे जाते हैं और वे हिंसा और सारपीट या जबरन लूट द्वारा समानता स्थापित करने की सलाह देते हैं । पोचमपल्ली (हैदराबाद) मे जब एक रात मे साम्यवादियो की राय से कई जमीदारो का सफाया कर दिया गया, तो उस नृशस हृत्याकाण्ड को देखकर चारो ओर त्राहि-त्राहि मच गई तो राष्ट्र सन्‍्त विनोबाजी पैदल यात्रा करके वहाँ पहुँचे । सारी स्थिति का अध्ययन किया तो पता लगा कि जमीदारो ने गरीबो के पास रोटी का कोई साधन (जमीन) नही दिया है, बार-बार चेतावनी देने के बावजूद भी ये जमीदार नहीं समझे, न उन्होने अपनी जमीन मे से गरीबो को रोटी का साधन दिया दान से विविध लाभ २१ और न ही उन्हे कही रोजगार घघधा दिया, फलत साम्यवादियों से मिलकर उन्होने एक ही रात में वहुत-से जमीदारों का कत्ल कर दिया है। विनोबाजी ने इसका अहिसक हल खोज निकाला---'भूदान' । उन्होने बताया कि दान ही वह सजीवनी मौपचध है, जो जमीदारों और गरीबो (भुमिहीनो) को जिला सकती है। उन्होंने अपनी सभा में उपस्थित लोगो के सामने 'मूभिदान'ं की भाग की “है कोई इन भूमिहीन गरीबो को भूमि देकर विषमता को मिटाने के लिए तैयार ?” सभा मे से रामचन्द्रन रेही नामक एक जमीदार खडा हुआ और उसने अपनी जमीन में से १०० एकड जमीन भूमिहीनो में वाट देने की घोषणा की । बस, बही से मुदान की गगा वह चली और सारे हिन्दुस्तान मे फैल गई । स्वेच्छा से दिये गए भृदान के प्रभाव से जमीदारी अत्याचार बन्द हो गए, भूमिहीन लोग शान्त हो गए । भूमिधरो के हृदय मे भी करुणा और सहानुभूति प्रगट हुईं। कई जगह तो भुमिहीनो ने भूदाताओ को अन्तर से दुआ दी है। इसीलिए भारतवर्ष में जब-जब किसी प्रान्त या प्रदेश मे दुष्काल पडा है या बाढ, भूकम्प आदि की आफत आई है, साधनसम्पन्न लोगो ने भुक्तहस्त से सदुभावना- पूर्वेंक दान दिया है, साधन जुटाएं हैं । गुजरात में जब भयकर दृष्काल पडा था। जनता दाने-दाने को तरस रही थी । तभी गुजरात के खेमाशाह देदराणी जैसे कई शाहो ने मिलकर उस भयकर दुष्काल-निवारण का जी-तोड प्रयत्न किया । इसी प्रकार जगड़शाह ने अकेले ने विक्रम सम्वत्‌ १३१२ के बाद ई साल तक ग्रुजरात मे पडे हुए मयकर दुष्काल के निवारण के लिए मुक्तहस्त से अजन्लादि देकर उस प्रदेश की सुखशान्ति और सुव्यवस्था कायम रखी । जगड़शाह की दानवीरता की प्रशसा सुनकर अणहिलवाडे के राजा वीसलदेव ने अपने मत्री को भेजकर जगड़शाह को बुलाया । राजदरवार मे जगड़शाह का वहुमान करने के बाद राजा ने उनसे पूछा--“सुना है, तुम्हारे पास ७०० गोदाम अन्न के हैं । अत दुष्काल पीडितो की भूख की पीडा मिटाने के लिए तुमसे अन्न लेने के विचार से मैंने तुम्हे कष्ट दिया है ।” जगडूशाह ने राजा की बात सुनकर अत्यन्त विनयपूर्वक कहा--“महाराज | वह अन्न प्रजा का ही है। यदि मेरे कथन पर विश्वास न हो तो गोदामों मे लगे ताम्रपत्र देख लीजिए ।” फौरन ताम्रपत्त मगवाया गया | जिस पर लिखा थां--- जगडू कल्पयामास रकार्य हि कणानसृून्‌ ४! -और ८ हजार मूड़े यानी ३२ हजार मन अन्न जगड्शाह ने भहाराजा वीसलदेव को यह कहकर सौप दिया---“अगर किसी का भी प्राण दुभिक्ष से गया तो मुझे भयकर पाप लगेगा ।” उस समय दुष्काल का प्रभाव लगभग सारे देश में २२९ दान भहंत्व और स्वरूप था । इसलिए जगड़ूशाह ने सिन्धु देश के राजा हमीर को १२ हजार मूड, मोइज्जुद्दीन को २१ हजार भूडे, काशी के राजा प्रतापसिह को ३२ हजार मूडे और स्कधिल के राजा को १२ हजार मुडे अन्न दुष्काल निवारण के लिए दिया। ११२ दानशालाएँ खुलवाई तथा कुलीन तथा मागने मे शम्माने वाले व्यक्तियों के लिए करोडों सोने की दीनारें मोदक मे गुप्तरूप से रखकर मिजवाई ॥ इस पर से सहज ही समझा जा सकता है कि दुर्मिक्ष आदि के समय दान का कितना मूल्य है? उस समय भी मिरहकारिता पूर्वक दान देने वाले जगड़शाह को कितना गौरव प्रत्यक्ष मे मिला, कितने अन्तर से आशीर्वाद मिले होगे । और दानवृत्ति के साथ करुणाभावना के कारण कितना पुण्य, कितनी निर्जया और सवरख्प धर्म उपाजित किया होगा ! इसीलिए पचाशक-विवरण मे कहा है-- दानात्कीति सुधा शुस्रा दानात्सौभाग्यमुत्तमम्‌ । दानात्कामार्थमोक्षा. स्पुर्वनिधर्मो वरस्तत ॥ (दान से अमृत के समान उज्ज्वल कीति फैलती है, दान से मनुष्य को उत्तम सदुभाग्य (पुण्य) प्राप्त होता है। दान से काम, अर्थ और मोक्ष का लाभ होता है। इसलिए दानधर्म श्रेष्ठ है ) जहाँ शक्ति और साधन होते हुए भी अगर दान न किया जाय तो उससे भयकर परिणाम आता है, यह जाचीनकाल के इतिहास से भी प्रमाणित हो चुका है और वर्तमान भें भी कई जगह ऐसी घटनाएँ होती देखी जाती है । जिस समय राष्ट्र एव समाज पर कोई माफत आती है, कई वार भूकम्प, बाढ या दूसरे राष्ट्र द्वारा आक्रमण का खतरा बढ जाता है, उस समय भारत के लोगो से जब-जब राष्ट्रीय सरकार ने अपील की है, तब-तब भारत के दीषेद्रष्ठा उदारचेता लोगो ने राष्ट्र के आपदुग्रस्त, बाढपीडित या भूकम्पग्रस्त मानवो को बचाने के लिए तन, भन, घन एवं साधनों से जी-जान' से मुक्तहस्त से दान दिया है, यहाँ की नारियो ने उदारहदय से अपने गहने, खाने-पीने फा सामान एवं नकद रुपये भारत पर चीन एवं पाकिस्तान के आक्रमण के समय दिये हैं। वास्तव में, देश को बचाया है तो भारत की जनता के दान ने ही, बगलादेश को भी बचाया है तो भारत की जनता के उदारहृदय से दान के रूप भें सहायता ने ही । दान से देश फो सुरक्षा और शत्रुता का नाश दान से किस प्रकार नगर, राष्ट्र या प्रदेश को शत्रु के द्वारा होने वाले विनाश एवं लूटपाट से बचाया जाता है और वैरी को भी कैसे वश मे किया जा सकता है, इसका एक ज्वलन्त उदाहरण पढिए--- भहमदाबाद उस समय घोर विपत्ति मे डूबा हुआ था। सूबेदार इब्राहीम ऊुलीखों जगौर सिपहसालार हमीदर्खां का क्षणडा इस विपत्ति का कारण था । हमीदसल्ाँ हि दान से विविध लाभ र्रे 'निजाम-उल-पुल्क का चाचा था। उसके पास मराठा सेना थी। अहमदाबाद की रक्षा का भार इब्राहीम कुलीखाँ के हाथो मे था। परन्तु वह हमीदलाँ के आगे टिक न सका | भद्र के किलि को आँधी की तरह घेर लिया। इब्राहीम कुलीखाँ डर कर घर-किले में जा छिपा | अहमदाबाद का कोई रक्षक नही रहा ज्यो ही भद्र का किला टूठा, हमीदर्खाँ की सेना ने शहर में लूटपाट, हत्या, मारपीट, अग्निकाण्ड आदि करके विनाशलीला प्रारम्म कर दी। सोचा-द्वार पर आए हुए इस विनाश को कंसे रोका जाय ? जनता को जब-पराजय से कोई सरोकार नही था, वह शान्ति से सम्मान- पूबंक जीना चाहती थी । जब विनाशलीला किसी तरह न दकी तभी एक जैन व्णिक, जैन-जीवन का सच्चा उपासक, कघें पर दुशाला डाले आगे आया । नाम था--नगरसेठ खुशालचन्द्र ! अनेक वर्षों से कई पीढियो से अहमदाबाद की १८ जातियों की नगरसेठाई उसको मिली हुई थी। सेठ शान्तिदास के समय से उसे नगरसेठ पद मिला था| इसी कारण नगरसेठ का कतंव्य होता था--विपत्ति से शहर की सुरक्षा करना, नष्ट होने से बचाना । वे यह बखूबी जानते थे कि शहर की समृद्धि की रक्षा के बिना अपनी समृद्धि की रक्षा हगिज नही हो सकती । निर्घन बने हुए शहर मे घनिक व्यक्ति शान्ति से नही रह सकता। अपनी समृद्धि की रक्षा के लिए नगर की समृद्धि को रक्षा अनिवार्य है! अत नगरसेठ खुशालचन्द्र स्वय उस जाग से खेलने गए | समय ऐसा था कि आने-जाने वाला सुरक्षित नही था, तथापि वे सेनापति हमीदखाँ के पास सकुशल पहुंच गए। उन्होने उससे विनम्र प्रार्थना की कि नगर को भराजकता से बचाकर शीक्ष सुव्यवस्था एव अमनचैन किया जाय । सेनापति आरक्त नेत्रो से नगरसेठ की ओर घूरकर देखने लगा । अहमदाबाद की जरी की पगडी ओर स्वर्णकुण्डलो से सुशोभित सौम्याकृति से सेनापति प्रभावित हो गया । उसने कहा---“पहले घन का ढेर सामने रखो | उसके बिना सेना वापिस नही लौट सकती ।” “घन दूंगा, माँगो जितना दूंगा, लेकिन सेना को वापिस लौठाओ । ये अग्नि की ज्वालाएँ, सम्पत्ति का सर्वताश, दीनो के भाश्रयस्थानों का सत्यानाश और निर्दोष नागरिको की ह॒त्याएँ मुझसे नही देखी जाती ।” नगरसेठ के शब्दों भे हृदयद्रावकता थी । “अहमदाबादी वनिये ! माँगू जितना घन देगा ?” सेना- पति ने गरजकर कहा । “हाँ, अवश्य दूंगा ।” नग्रसेठ ने कहा । किन्तु 'हाँ' कहने वाला यह वनिया जानता था कि इस प्रकार सारा उत्तरदायित्व उसके अपने कन्घो पर आएगा । एक हाँ के पीछे तिजोरी का पेंदा दिख जाएगा। फिर भी नगरसेठ अपने वचन पर हृढ रहे | अपनी सम्पत्ति बचा लेने का स्वार्थी विचार उनके मन को छू भी नही सका। “भादेश दो, सेना वापिस लौट जाए। आपके कथनानुसार रकम अभी ले जाता हूँ ।” सेना को वापिस़न लौटाने कौ रणमेरी बजी । लूटमार करने वाली सेना उसी २४ दात भहत्व और स्वरूप समय शिविरो में पहुँच गई। अग्नि से जले हुए मकान बुजआाएं गए। जनता ते निश्चिन्तता की ठण्डी साँस ली । कुछ ही देर बाद ४ बैलो के सुन्दर रथ में रुपयो की धैलियाँ आ गईं। सेना- पति के सामने रुपयो का ढेर लग गया । सेनापति नगरसेठ की इस दानवीरता से प्रसन्न हो उठा । उसने नगरसेठ की प्रशतता करते हुए कहा--प्रिठ | तुम्हारा नगर अब सुरक्षित है । तुम्हारे उदारतापूर्वक घनदान ने नगर को बचा लिया ।” नगरसेठ खुशालचन्द्र ने सन्तुष्ट होकर कहा--“मुझे घन की परवाह नही, मुझे चिन्ता थो कि किसी तरह शहर विनाश-लीला से बच जाय । घन तो समाज चे ही कमाया है और समाज के चरणों में--सकट से रक्षा के लिए इसे अपेण करने में भुझे अत्यन्त प्रसन्नता है ।” पीढियो से उपाजित और सचित घन को एक विदेशी के द्वार पर उडेल दिया । कल हुडियाँ कैसे सिकरेंगी ? थोडी पूँजी से इतना बडा व्यापार कैसे चलेगा ? इसकी चिन्ता उन्हे नही थी । सोचा--“चलो, अच्छा हुआ । पैसा देना पडा, किन्तु शहर बच गया । विरोधी अपना बन गया, यह क्या कम हुआ /” नगरसेठ घर पहुँचे । वात चारो ओर फैल गई---“अजी ! नगरसेठ खुशाल- चन्द्र ने हमको --हमारे शहर को बचाया है। आज शहर को सम्मान रक्षा और लूठ- मार, उपद्रव आदि से सुरक्षा सिपाहियो ने नही, सरदारो ने नही, एक सेठ ने की । अपना सर्व॑स्त घन देकर । झत अब हमें अपना कत्तेंब्य निभाना चाहिए। शहर के प्रमुख व्यापारी एकत्र हुए । उन्होने सर्वानुमति से यह निर्णय किया कि नगरसेठ के समक्ष हम सब बडे व्यापारी यह प्रतिज्ञापत्र लिखकर दें कि अहमदाबाद के बाजार में जितना माल काँटे पर तुलेगा, उस पर चार आने प्रतिशत नगरसेठ को दिया जाएगा ।” तुरन्त प्रतिज्ञापत्र लिखा गया । उस पर हिजरी सवत्‌ ११३७, १० माह शाबान तारीख डाली गईं | उस पर राजमुद्रा भी लगाई गई। किशोरदास, रण- छोडदास भादि प्रसिद्ध व्यापारियों के हस्ताक्षर थे। तब से नगरसेठ को यहू रकम बराबर मिलती गई । यह है दान के द्वारा नगर की सुरक्षा और विरोधी को अपना बनाने की कला ! जब भेवाड भूमि यवनो द्वारा पददलित होने से बचाई न जा सकी । हल्दी- घाटी के युद्धत्याग के बाद मह्दाराणा प्रताप मेवाड के पुनरुद्धार की इच्छा से वीरान जगलो मे भटक रहे थे। वे पेचीदा उलक्षन में थे। महाराणा भ्रताप निराश और असहाय होकर मेवाडभूमि को अन्तिम नमस्कार करके जाने वाले थे, उनके मन्त्री भामाशाह को यह पता लगा । उनकी आँखों में भाँसू छलक आए | उन्होंने सोचा-- घन तो मुझे फिर मिल सकता है, लेकिन खोई हुई मेवाडभूमि की स्वतन्‍्तृता फिर मिलनी कठिन है।” अत भाभाशाह २५ लाख रुपये तथा २० हजार अशर्फियाँ लेकर प्रताप के पास पहुँचे । उनसे भामाशाह ने कहा--'ओो अन्नदाता ! आप ही दान से विविध लॉभ २५ मेवाड भूमि को अनाथ छोडकर चले जायेंगे तो उसका क्या हाल होगा ? “मामा ! क्या करूँ | लडाई लडने के लिए मेरे पास सेना नही है, न सेना के लिए रसद है और न ही उन्हे वेतन देने के लिए रुपये हैं। मैं स्‍्वय थक कर निराश हो गया !” --राणा ने कहा । भामाशाह--“अक्नदाता | इसकी चिन्ता न करें | ये लीजिए २५ लाख रुपये की थैलियाँ और २० हजार सोने की मुहरे | इनसे २५ हजार सैनिको का १२ वर्ष तक निर्वाह हो सकेगा । आप मेवाड भूमि की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए भेरी यह तुच्छ भेंट (दान) स्वीकार करें ।” महाराणा प्रताप भामाशाह द्वारा दिये गये इस दानस्वरूप धन' को देखकर खुश हो गए । उनकी आँखों में चमक आ गई । उन्होने भामाशाह को विश्वास दिलाया किअब मैं पूरे जी जीन से मेवाड की स्वतन्त्रता के लिए लड़ंगा । यह था दानवीर भामाशाह के दान का अदुभुत प्रभाव ! दान से शत्रु भी मिन्न बन जाता है यह पहले कहा जा चुका है कि दान से बडे-से बडा वैर-विरोध शान्त हो जाता है। इसका फलितार्थ यह भी होता है कि दान से शत्रु भी मित्र बन जाता है। महापुरुषो द्वारा यह अनुमवसिद्ध बात है कि जब भी कोई व्यक्ति उदार बन जाता है, अपने शत्रु को शत्रु नही मानता, घर आने पर उसका दान-सम्मान से स्वागत करता है, उसके साथ मैत्रीभाव या बन्घुभाव रखता है तो वह दान-- चाहे थोडी ही मात्रा में हो, शत्रु का हृदय बदल देता है, उसका शत्रुभाव मिन्रभाव में परि- णत हो जाता है। पश्मपुराण इस तथ्य का साक्षी है। वहाँ स्पष्ट बताया गया है-- 'शत्रावषि गृहाष्प्याते नास्त्यदेय तु किल्चन' --अगर शत्रु भी घर पर आ जाय तो उसे भी कुछ न कुछ दो, अपंण करो, दान-सम्मान से उसका स्वागत करो । किसी भी वस्तु के लिए उसे इन्कार मत करो, क्योकि शत्रु के लिए भी कोई वस्तु अदेय नही है। देंने से मचुरता बढती है । इस्लामधर्म के सस्थापक हजरत मुहम्मद पैगम्बर जिन दिनो मक्‍का में इस्लामधरम का प्रचार कर रहे थे, उन दिनो धर्म और रूढियो के नाम पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को जिंदा जला देता था। अरबस्तान मे ऐसे व्यक्ति के लिए जिंदा रहना बहुत बडी समस्या थी, फिर धर्म का प्रचार करना तो और भी दुष्कर कार्य था| परन्तु हजरत मुहम्मद बडे कष्टसहिष्णु और उदार थे। उन्हे लोगो को खुदा का पैगाम सुनाना था। इसलिए वे सभी विपत्तियों का घैयें से सामना करने के लिए तैयार रहते थे। चाहे वे सहनशील थे, किसी व्यक्ति को पीडा नही पहुँचाते थे, फिर भी पुरानो परम्परा के बहुत-से लोग उनका विरोध करते थे। , एक बार एक विरोधी ने प्रण किया कि “मैं जब तक मुहम्मद का सिर नही काट लूँगा, तव तक खाना नही खाऊगा और इस तलवार को भी तव तक म्यान २६ दान महत्व और स्वरूप में नही डालूंगा ।” वह व्यक्ति दोपहर मे ही रेगिस्तान पार करता हुआ मक्का आ धमका । उसने एक मकान के पास किसी को बैठा देखकर परूछा--“ब्यों भाई | मुहम्मद यहाँ कहाँ रहता है ?” उस व्यक्ति ने कहा--/'भाई ! तुम बहुत ही घवराये हुए हो, अत पहले सुस्ता लो, फिर मुहम्मद की तलाश करना ।” आगन्तुक---/'मैं जब त्तक मुहम्मद का सिर नही काट लूँगा, तव तक और कुछ नही करू गा ।” “तुम इतनी तेज घूप मे आए हो, पहले जरा ठटें हो लो, फिर मुहम्मद को बतला देंगे, और तव तुम उसका सिर काट लेना। मालूम होता है, तुम बहुत ही भूखे-प्यासे हो ।”” उस व्यक्ति ने पुन सहानुमृति वबतलाई । विरोधी ने कहा--“चाहे मुझे कितनी ही भूख-प्यास हो, मगर पहले अपनी प्रतिज्ञा पुरी करनी है ।” आगन्तुक को सभझा-वुझाकर ठहराया, और वह अपने घर मे गए । अपनी बीवी से बची हुई रोटी ली, और बकरी के दूध मे चूर कर तथा पानी का गिलास लेकर बाहर आए। समझाने पर आगन्तुक ने पानी पीकर खाना शुरू किया | आमन्तुक इस प्रकार के दान-सम्मान से वहुत प्रभावित होकर आभार स्वरूप कहने लगा--“भाई | तुम कितने भले हो | उस मुहम्मद के गाँव में तुम कैसे रहते होंगे?” जब उसने खा-पी लिया, तव पूछा--“हाँ, अब ले चलो, मुदझ्षे मुहम्मद के पास ।” उत्त आदमी ने मुस्करा कर कहा--“मुहम्मद सामने ही हाजिर है, सिर उतार लो ।” “अरे | यह क्‍या ? मुहम्मद और इतना उदार व दयालु ! तो क्‍या यह भोजन और ठडा जल मुहम्मद ने ही दिया है? क्या मैं अभी तक मुहम्मद से ही बातें कर रहा था 7” आपगन्तुक से पूछा । मुहम्मद ने कह्ा--/हाँ, भाई ! मुहम्मद यही है । यही आपकी खिदमत मे हाजिर था ।” यह सुनते ही विरोधी पानी-पानी हो गया । उसके हाथ से तलवार छूट गई उसने नतमस्तक होकर हजरत मुहम्मद से क्षमा भागी और कहा--आाज से मुझे अपना मित्र और सेवक समझें ।” मुहम्मदसाहब ने उसे गले लगाया और उसे अपना पट्ट शिष्य बनाया । वास्तव मे मुहम्मदसाहब के उदारतापूर्वक दान, सम्मान का ही यह प्रभाव था, कि शत्रु भी मित्र बन गया | दान मंत्री का अग्नवृतत भारतवर्ष मे जब-जब इस प्रकार के प्राकृतिक प्रकोप या सकट गाए है, तब- तब जनता ने और नरपतियों ने दिल खोलकर भरसक सहायता दान के रूप मे की है। उन्होने मुक्तहस्त से अपना अन्न भडार खोल दिया है, कई लोगो ने अपनी हैसियत के अनुसार दुष्काल के समय क्षुघापीडितो को किसी भी प्रकार के जाति पाँतति या धर्म-कौम के मेदमाव के बिना अपनी सम्पत्ति एव साधन दिए हैं। दान से विविध लाभ २७ कई बार शासक अपनी प्रजा को किसी सकट से पीडित देखकर दयाद् होकर अपनी सम्पत्ति का सहायता के रूप में या अन्न के रूप में दान देता था। भागवत- पुराण में राजा रतिदेव की कथा आती है कि उन्होने यह प्रणकर लिया था कि जब तक एक भी व्यक्ति भेरे राज्य मे भूख से पीडित होगा, तव तक मैं स्वय आहार नही लूंगा । कहते हैं, ४६ दिन तक वे निराहार रहे । अपने अन्न के भडार भूखी जनता के लिए उन्होने खुलवा दिये जिससे शीघ्र ही दुष्काल मिट गया | महाराजा रतिदेव का दान एक महान्‌ चमत्कार बन गया । हिरात का शेख अब्दुला अन्सार अपने शिष्यो से कह करता था--'शिप्यो ! भाकाश में उडना कोई चमत्कार नही है, क्योकि गदी से गदी मक्खियाँ भी आकाश मे उड़ सकती हैं। पुल या नौका के बिना नदियों को पार कर लेना भी कोई चम- त्कार नही, क्योकि एक साधारण कुत्ता भी ऐसा कर सकता है, किन्तु दु खी हृदयो को दान देकर सहायता करना एक ऐसा चमत्कार है, जिसे पविन्नात्मा ही कर सकते हैं ।” दान प्रीति ओर मंत्री का सवर्डक दान प्रीतिवद्ध क है, यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। वास्तव मे शास्त्र की यह उक्ति अक्षरश सत्य है-- “अहवा वि समासेण साधुण पीतिकारओ पुरिसो। इह ये परत्याय पावति, पोदीओ पीवतराओ ॥" “सारी बात का निचोड यह है कि दान से मनुष्य साघुओ का भी प्रीतिपात्र बन जाता है। जिसके फलस्वरूप वह दानी व्यक्ति इस लोक में भी जनता का प्रेम सम्पादन कर लेता है और परलोक में भो अतिशय प्रीतिमाजन बनता है !” साथ ही दान से सर्वत्र मित्र वन जाते हैं, यहां तऊ कि विरोधी शत्रु भी मिश्र वन जाता है, दान के प्रभाव से वह मैत्री परलोक में भी जाती है, वहाँ भी |; के मित्र, सुदृदय और अनुकूल बन जाते हैं। इसलिए---तथागत्त बुद्ध ने हा ह-- “दत्त मित्तानि गधति”* “दान से मित्र गाटे वन जाते है । अनिसलिता में भी एसी बात का समर्थन किया गया है-- नास्ति दानातू पर मित्रसिह लोके परत च । एाकान के समात इस जोब और परनोऊ में वोट मिश्र नहीं है । १ नियोयनति ६ मुत्तानिषात ३१॥३०।७ ्् पु २८ दान भहत्व और स्वरूप दान « एक वशीकरण भत्र इससे भी आगे बढकर कहे तो दान एक वणीकरण मत्र है, जो मभी प्राणियी को मोह लेता है, पराया (शत्रु) भी दान के कारण वन्धघु घन जाता है, इसलिए सतत्‌ दान देना चाहिए ।१ दान की देवता मनुष्य और ब्राह्मण सभी भप्रशमा करते हैं । दान से मनुष्य उन समस्त मनोवाडिछत वस्तुओ को प्राप्त कर लेता है, जिनकी वह कामना फरता है ।* राजस्थान में एक लौकिक कहावत है--“हाथ पोलो तो जगत्‌ गोलो' वह भी इसी कथन की पुष्टि वरती है। वस्तुत दान से शश्रु ही नही, भर पशु पक्षी भी वश भें किये जा सकते है। कुत्ता, गाय, भैस, घोडा आदि सव पशु दान से ही मालिक के वश में हो जाते हैं, मालिक की सेवा वफादारीपूर्वक करते हैं। दांन फा पशुओं पर इतना जबर्दस्त प्रभाव पडता है कि वे मालिक के द्वारा खाने-पीने को कूछ दिये जाने पर अपनी सतान की इतनी परवाह नही करते, जितनी अपने मालिक की वफादारी- पूर्वक सेवा का ध्यान रखते हैं । इसी हृप्टि से एक विचारक ने कहा है-- पुत्नादपि प्रियतर खलु तेन दान, भन्‍यो पशोरपि विदेक विवर्जितस्थ | दत्ते खलेन निखिल खजु पेन दुरुघ, नित्य ददाति महिषी ससुता5पि पश्य ॥ --मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि विवेकरहित पशु को भी अपने पुत्र से भी बढ़कर प्रिय दान है। देखिये, भेस मालिक के द्वारा खल, बिनौले आदि देने पर अपने पुत्र (पा) के होते हुए भी प्रतिदिन सारा का सारा दूघ अपने मालिक को दे देती है । दया एवं वान से आयु बढती है महाराष्ट्र मे महिला जागरण के अग्नदूत महर्षि कर्वे को पत्रकार परिषद्‌ मे प्रषन पूछा गया कि “ आपकी शतायु का रहस्य क्या है ? लोग अनुमान ही अनुमान मे शुम हैं कि आप नियमित व्यायाम करते होगे या दूध और फल पर रहते होगे, इस फारण आपकी आयु सौ साल की होगी ।” उत्तर मे कर्वे ने कहा--“मेरे यहाँ कई दशकों पहले एक नौकरानी रहती थी । वह एक दिन अपने पति के ऑपरेशन के लिए एक हजार रुपये मांगने आई । पति के स्वस्थ हो जाने पर रुपये वापस लौटाने की बात थी | परन्तु दुर्भाग्य से ऑप- 7 रैशन काल में उसके पत्ति का देहान्त हो गया । वह नौकरानी रोती हुई मेरे पास १ दालेन सत्त्वानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यात्ति नाशम्‌ । परोशपि बस्घुत्वमुपैति दानात्‌ तस्माद्धि दान सत्तत प्रदेयम्‌ ॥. ---धर्मरत्न >> दांत देवा प्रशसन्ति मनुष्याश्च तथा द्विजा । दानेन कामानाप्नोति थान्काश्चिनूमनसेच्छति ॥ दान से विविध लाभ २६ आई और आँसू बहाते हुए बोली--“मुझे सबसे अधिक वेदना तो इस बात की हो रही है कि मैं अब आपके रुपये कैसे चुका सकूगी ? अब तो मेरे वेतन मे से आप प्रतिमास काटते रहना ।” 'कँते (कर्वे ने) गदगद होकर कहा--“बहन तेरे इतने महान्‌ दुख के सामने इन मुट्टीभर (१०००) रुपयो का क्या मुल्य है ? मुझे वे रुपये तुमसे बिलकुल नहीं लेने हैं। वे रुपये मैंने तुम्हे अपनी बहन मानकर दे दिये, समझ लो ।” माभारवश हर्पाश्रुओ से पूर्ण माँखे ऊँची करते हुए वह विधवा नोकरानी, जिसकी आँतिें ठडी हो गई थी, बोली---/भाई | तू सौ वर्ष का हो ।” कर्वे आगे कहने लगे--“”चिकित्सा विज्ञान भले ही मेरे शतायु होने का कारण दूध-फल खाना ओर नियमित घूमना बताए, परन्तु मैं सौ वर्ष जीया हूँ, उसका कारण मुझे तो नि सहाय नौकरानी जैसी कई बहनो व दीन-दु खी भाइयो के अन्तर से मिला हुआ आशीर्वाद ही मालूम होता है और जिसे भी मैंने इस प्रकार से दान के रूप में सहायता दी, वह मेरे वश हो गया, मेरा अपना बनकर जिन्दगी भर तक रहा ।' उपयु क्त दृष्टान्त से यह भी फलित होता है कि दान करने से मनुष्य दीर्षायु होता है । इसीलिए नीतिकारो ने बताया 'दानादायुविवर्धतेदान देने से आदाता की ओर से हादिक आशीपें मिलती हैं, जिससे आयु का बढना स्वाभाविक है। जापान के शिटोमत के देवता 'इतिभान' ने तो स्पष्ट कहा है, अपने भक्तो से--पुजारियों ! तुम दरिद्रता और कोढ से चुहचुहाते मानवो के प्रति दया और करुणा का व्यवहार करो । इन निरीह प्राणियो की भी रक्षा करो | जो दया करते हैं और दान देंते हैं, उनकी आयु बढती है। जैनशास्त्र मे भी इसी बात की पुष्टि मिलती है--यहाँ बताया गया है--अमणेश्यों प्रासुफदानेन दीर्घायुरिति' अर्थात्‌ श्रमणो को प्रासुक (निर्दोष) आहार का दान देने से ग्रहर्थ दीर्घायु होता है। इन सबका निष्फपं यह है कि दान शत्रु को मित्र बनाने वाला, प्रीतिवद्धेक, बैर भाव को मिटाने वाला, धर्म लाभ का कारण, आयुष्यवर्धक सम्मान और यण का सम्पादक एवं वशीकरण मन्न है, वह कभी निष्फल नही जाता। दान समाज मे व्याप्त विषमता फा निवारफ समाज में दान का श्रवाह जारी रहने से गरीबी-अमीरी की जो खाई है, वह चौडी नहीं होती, और न ही गरीब में हीन-भावना पनपती है और गमीर मे अहकार की भावना आती है। जिस समाज में या जाति में ऐसी भावना होती है, वहाँ विपमता या शोपण की भावना प्राय नहीं पनपती | वहां निर्धन को प्रचुर घन सम्पन्न न होने पर भी अपनी निर्धनता नही असरती, वह यही समझता है कि मुझे अधिक घन रख कर गरना क्या है? जिनना और जब मुझे जरूरत होता हे, उतना भुप्े अपने घन्धे में मित्र जाता है, सथा लापातयाल में था किमी आनस्मिया संकट है समय धनिक स्वेन्ठा मे दे ही देता है, मुत्ते मचित करने या सहेज पर रापने की चिन्ता, चोरों से ३० दान महत्व और स्वरूप बचाने की चिन्ता या अन्य अनेक चिन्ताएँ नहीं करनी पढती, मैं इन चिन्ताओं से बरी रहता हूँ । इस प्रकार घनिक को वह अपना रिजवं वैंक समझता है कि जहाँ से जब चाहे और जितना आवश्यक हो, उसे मिल ही जाता है। अत घनिक का धन निर्धन की माँखों मे इसलिए नही खटकता कि वह वक्त जरूरत पर निर्धनों को देता रहता है, उनकी अतिरिक्त आवश्यकताओं या बीमारी, दु स, सकट या असुरक्षा के खतरे के समय वह उदार दिल से दान द्वारा मदद करता रहता है । भारतवर्ष मे ऐसी कई कौमे हैं, जिनमे दरिद्रता नाम की कोई चीज नही मिलती । सुसलमानों मे बोहरा कौम ऐसी है, जिनमे अगर किसी व्यक्ति की स्थिति बिगडने लगती है, अथवा कोई आकस्मिक सकट, बेरोजगारी या घेकारी भा जाती है तो जाति के सभी व्यक्ति मिलकर उसे चन्दा करके सहायता पहुँचा देते हैं और अपने बरावर का व्यापारी बना देते हैं या अन्य किसी उपयुक्त व्यवसाय में लगा देते हैं । उसे दान देकर भी यह महसूस नही होने देते कि मैं दीन-हीन हैँ या निर्धन हूँ इसी प्रकार की परिपाटी पारसी कौम में है। पारसी लोग अपनी विरादरी में किसी व्यक्ति को निर्धन या साधनहीन नही रहने देते । उनमे यह विशेषता है कि वे जब भी किसी भाई को सकटपग्रस्त देखते हैं तो उसे कोई न कोई रोजगार धन्धा दे या दिलाकर उसकी दरिद्रता को मिटा देते हैं । प्राचीनकाल के ओसवाल जैन बन्धुओ में भी इसी प्रकार की दान-परम्परा थी, जिसे वे दान कहकर अपने अहकार का प्रदर्शन नही करते थे, बल्कि समाज या जाति मे व्याप्त होने वाली विषमता को मिटाने के हेतु, वे अपनी सम्पत्ति का इस प्रकार सहायता के रूप मे उपयोग करते थे, जो सामुहिक दान का ही एक प्रकार होता था | कभी-कभी ऐसा दान-प्रयोग सामूहिक न होकर व्यक्तिगत भी होता था। निजाम हैदराबाद स्टेट के एक शहर मे एक उदार पूंजीपति थे । वे अपनी *< पूँजी को समाज की घरोहर समझते थे। इसलिए पूँजी के साथ-साथ उनका हृदय * बडा उदार कौर दानशील था। उनकी इच्छा थी कि राजस्थान मे बहुत पिछडापन और गरीबी है, इसलिए कुछ अच्छे कमंठ लोगो को कुछ सहायता देकर यहाँ बसाया जाय, उन्हे उनकी रुचि के अनुसार कपडे, अनाज आदि की दुकान करा दी जाय । अपनी उदार भावना के अनुसार राजस्थान से कुछ गरीब और बेरोजगार भझाइयो को. ' उन्होंने बुलाया और जो भी आता, कुछ कार्य करने की इच्छा प्रगट करता, उसे उसकी इच्छानुसार वे कपडें, अनाज आदि की दुकान करवा देते, प्रत्येक व्यक्ति को लगभग पाँच-सात सौ रपयो की मदद कर देते और उसे कहते--देखो, यह दृकान' सन्नालों, न्याय नीति से व्यापार करके पैसा कमाओ और अपनी कमाई मे से अमुक हिस्सा हमे _ भराबर देते रहा करना । जब दो-तीन साल मे उसकी दूकान जम जाती तो सेठ अपना * 'हिस्सा मिकाल लेते और पिछली जो कुछ हिस्से की रकम उन्होने उस नये व्यापारी ली थी, उसे वापिस उसे दे देते । इस प्रकार वह स्वतन्त्र रूप से सेठजी द्वारा दी | दान से विविध लाभ ३१ हुईं उक्त सहायता (दान की रकम) से कार्य करने लगता और फलता-फूलता था । इस तरह उन्होंने अपने शहर में करीब १५० परिवारों को बसाया, व्यवसाय के लिए अर्थे-सहयोग दिया गौर उन्हे बच्छी स्थिति में पहुँचाकर उनका हादिक आशीर्वाद प्राप्त किया । सेठजी को समाज की विषमता (दान द्वारा) मिटाने का सन्तोष हुआ भौर आदाता की दरिद्रता समाप्त हुईें। इसीलिए दान के लिए चाणक्यनीति में स्पष्ट कहा गया--- दारिद्र यनाशन दानम्‌ दान वास्तव मे दरिद्रता को नष्ट करता है । वियमता मिटाने का इससे भी बढ़कर सामूहिक दान का ज्वलन्त उदाहरण है--भाण्डवगढ का । वर्षो पहले की बात है। माण्डवंगढ के जैन बन्धुओ ने यह निश्रचय किया कि हम जैसे धर्म से समान हैं, वैसे ही अर्थ से भी सवको समान रखेंगे । हमारे नगर में बसने वाला कोई धनवान भी नहीं कहलाएगा और न कोई निर्घन कहलाएगा ।” जो भी जैनवन्घु यहाँ वसने के लिए आता उसका आतिथ्य प्रत्येक वर से एक-एक रुपया और एक-एक ईंट देकर किया जाता । यानी इस प्रकार के सामूहिक दान से प्रत्येक आगन्तुक को वहाँ बसे हुए एक लाख घरो से एक लाख रुपये व्यापार के लिए और एक लाख इंटें घर बनाने के लिए दी जाती । माडवगढ के जैनो के इस दान के नियम ने उन्हे और नगर को अमर बना दिया। आज भी _नालछाप से लेकर माण्डवगढ तक की ६ मील लम्बी खण्डहर के रूप मे एक सरीखे मकानो की पक्ति इस सामूहिक दान की कहानी कह रही है। इसलिए झनेक प्रमाणो और अनुभवों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि दान ही दह वज्ञ है, जो अमीरी और गरीबी की, विषमता और विभेद की दीवारें तोड सकता है। दान की अमोघ वृष्टि ही, मानव जाति मे प्रेम, पैत्री, सद्भाव और सफलता की शीतन धारा प्रवाहित कर सकती है । डर [4 | दान का माहात्म्य दान के लाम और उसके सुपरिणाम के विपय मे कुछ चर्चा पिछले प्रकरण में की गई है। वास्तव में दान वह शतशाखी या सहस्तरशाख्ती कल्पवृक्ष है जिसके सुपरि- णाम सुफल हजारो रूप मे प्रकट होते हैं । जैसे वर्षा की बूंद धरती पर जहाँ भी गिरती है वहाँ ही हरियाली, वनस्पति, फल, फूल, वृक्ष आदि अगणित वस्तुएं पैदा कर देती है वैसे ही सद्भावपूर्वक दिये गये दान' की बूंदें हजारी-हजार रूप में नये-नये विचित्र फल पैदा करती है। दान की अचित्य महिमा का विषय बहुत ही विशाल है, आज भी हम इस विपय पर चिन्तन करेंगे । प्राप्त करने के लिए दान हो अचूक उपाय घरती से अनाज की फसल प्राप्त करने के लिएं किसान को सर्वप्रथम धरती को बीजवपन के रूप मे, पानी के रूप मे, खाद तथा सेवा के रूप मे देना पडता है, बिना दिये घरती एक दाने से हजार दाने नही देती, इसी प्रकार जगतू का यह अचूक नियम है कि यदि प्राप्त करना चाहते हो तो अपित करना सीखो। दान ही प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है । दान भ्रीजवं (रक्षित करना) नही, अपितु ग्रो (सवद्धेन वृद्धि करना) है। कोल्डस्टोरेज मे यदि मौसम में आम रख दिये जाय तो वे सुरक्षित रहते हैं, और जितने रखे हैं उतने के उतने मौसम बीतने पर निकालते समय निकलते हैं, यह प्रीजवं है, किन्तु उन्ही आमो को बो दिये जाते हैं, तो उनमे से अकुर फूटते हैं, टहनियाँ, फूल आदि के बाद भ्रत्येक आम के पेड मे हजारो जम -लगते हैं, यह सब सवद्धेंन "- भ्रो' है। इसी प्रकार दात किया घन सवर्दधेन--झआ' का कारण बनता है । इसौलिए नेताजी सुभाषचन्द्र वोस ने कहा था--- यदि तुम प्राप्त करना चाहते हो तो आपित (दान) फरना सीखो !! बैक में रुपये जमा कर देने पर जैसे सुरक्षित भी रहते हैं और जब चादे तब व्यक्ति को वें रुपये ब्याज सहित मिल जाते हैं, वैसे ही दान भी पुण्य रूपी बैक में जमा क्या हुआ सुरक्षित घन है, समय आने पर यह घन भी अनेऊो गुनी परुण्यवृद्धि होने से ब्याज सह्वित प्राप्त हो जाता है । साधारण मनुष्य को विश्वास नही होता कि दिया नि पा रू हीरे न न < हि ४». ,» - _ - “दान का माहात्म. ३३ ३५ १५ | अं गया दान निधि मे सुरक्षित रहेगो और समय आतने“पर कई ग्रुना अधिक मिलेगा | किन्तु जिस व्यक्ति का विश्वास होता है, वह मुक्त मन से दान के बीज बोता है। चाहे वह नकद घन के रुप में मिले, या पुण्यवृद्धि के कारण सुख-साधन प्राप्ति के रूप मे मिल जाता है । जारी, ईरान का महादानी राजा साइरस अपने दान के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। वह प्रतिदिन राजभण्डार से बहुत-सा घन दान दे दिया करता था। एक दिन उनके यहाँ दूसरे देश का एक अति घनाढ्य राजा आया | उसने साइरस की यह - दानप्रवृत्ति देखी तो उसे बहुत बुरा लगा | उसने कहा--“अगर आप इस तरह अपना घन लुटाते रहे तो एक दिन खजाना खाली हो जाएगा। वक्त जरूरत पर आपको कौन मदद देगा ?” साइरस बोला--“मुझे पक्का विश्वास है कि मुझे जब और जितने रुपयो की जरूरत होगी, तब उतने ही रुपये प्रजा अवश्य देगी । अगर आपको विश्वास न हो तो मैं कल ही आपको वताऊँ।” अतिथि राजा बोला--“आप एक लाख खर्ब॑ रुपये साँगिए ।” राजा ने घोषणा करवाई कि 'कल मुझे एक लाख खर्व रुपयो की जरूरत है।! बस, घोषणा की देर थी । तुरन्त ही प्रजाजनो ने अपने प्रिय राजा के लिए अपनी थैलियाँ खाली करनी शुरू कर दी। बहुत-से लोगो ने राजा के लिए हीरे, पन्ने, माणक, भोती ओर सोने के आमूपण भेंट दिये | कुछ ही दिनो मे जब सबकी जोड़ लगाई गई तो रकम एक लाख खबव से ऊपर पहुँच चुकी थी। राजा साइरस ने अतिथि राजा से कहा--देखिये, राजनू ! मेरी प्रजा ने मेरी माँग पूरी कर दी है। यह रकम एक लाख खब रुपयो से काफी अधिक है । अगर मैं प्रतिदिन की लाखो की आमदनी सचित करके रखता तो मुझे उसके सचय, रक्षा व व्यय की कितनी चिन्ता करनी पड़ती । फिर प्रजाजन मुझसे ईर्ष्य करते । इस दान ने तो मुझे निश्चिन्त वना दिया है।” साइरस ने प्रजा के द्वारा दी गई वह सम्पत्ति भी दान कर दी । यह है, निश्चिन्तता, और समय पर अरंप्राप्ति के अमोघ उपाय--दान का भाहात्म्य । दान घन की सुरक्षा फा रिजवं बेक इसीलिए नीतिकार दान को घन की सुरक्षा का सर्वोत्तम उपाय बतलाते हैं-- उपाजितानामर्थाना त्याग एवं हि रक्षणम्‌ । तडागोदरसस्थाना परीवाह इवाम्भसाम्‌ ॥ --पचतन्‍्त्र २१५५ --उपाजित किये (कमाये) हुए घन का दान करते रहना ही उसकी रक्षा है । जैसे--तालाव के पानी का बहते रहना ही उसे गनन्‍्दा न होने देने का कारण है। ३४ दान महत्व भौर स्वरूप महाकवि नरहरिं सम्राट अकबर के दरधार मे प्रसिद्ध कवि थे। एक धार उन्होने दिल्‍ली से अपने पुत्र हरिनाथ के पास विपुल धनराशि 'मेंजी । हरिनाथ ने वह सारा घन गरीब ब्राह्मणो को दान कर दिया । कुछ समय वाद जब नरहरि घर आए तो उन्होंने अपने पुत्र से पूछा--“बेटा हरिनाथ ! मेरा भेजा हुआ धन तुमने कहाँ रखा है ?” हरिनाथ मे विनयपुृवक कहा--/पिताजी ! आप निश्चिन्त रहें। मैंने उसे पूर्णतया सुरक्षित कोप मे जमा कर दिया है। शाम को दिलाऊँगा ।” नरहरि सुनकर चुप हो गए । हरिनाथ ने उन सब ब्राह्मणो को कहला भेजा कि आप लोग सायकाल जब भाएँ तो जित्त-जिसको मैंने जो-जो द्रव्य-वस्थ आदि आपको मैंने दान दिए हैं, उन्हें साथ लेकर आवें ।” सायकाल ब्राह्मणो को अपनी गढी पर सामान साथ में लिए हुए उपस्थित होने पर हरिनाथ ने अपने पिता नरहरि से कहा---“पिताजी ! चलिए अपनी सम्पत्ति देख लीजिए | मैंने उसे कितने अच्छे सुरक्षित कोप में जमा कर रखा है ।” नरहरि ने जब ज्लाह्मणो को साधन-सामग्री पाने से हप॑ युक्त देखा तो वे एकदम अवाक्‌ हो गये । ब्राह्मणो को विदा करके उन्होने हरिनाथ' से कहा--“वेटा ! किया तो तूने खूब | जन्म-जन्मान्तर के लिए सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का इससे बढ़कर ओर कोई सुन्दर तरीका नही हो सकता । परन्तु यह सव दान अपनी कमाई से करते तो अच्छा रहता ” कहते हैं, अपने पिताजी के इस अन्तिम वाक्य से तेजस्वी पुत्र के हृदय को बहुत चोट पहुँची । वह घर छोडकर चला गया । उसने अपनी विद्तत्ता से लाखो रुपये कमाए और जरूरतमन्दो और दीनदु खिथो को दान कर दिये । जलाशय में पानी सचित होकर पडा रहे तो वह गनन्‍्दा हो जाता है, उस पानी का बहते रहना जरूरी है, इसी प्रकार घन का भी बहते रहना अच्छा है, अगर दान का प्रवाह बहता रहता है, तब तो धन अनेक हाथो मे जाकर सुरक्षित हो जाता है। दान के साथ ही पृण्यरूपी घत की भी सुरक्षा हो जाती है। दूसरे शब्दो मे कहेँ तो दान पुण्य का रिजवे बैक है। इसमे पुण्यरूपी घन सुरक्षित हो जाता है। नकद रुपयो के रूप में भले ही घन दान देने से कम होता प्रतीत होता हो, लेकिन ईरान के राजा साइरस की तरह दाता चाहे तो नकंद के रूप मे भी उसे मिल सकता है, कई ग्रुना अधिक मिल सकता है, क्योकि ऐसा उदार दानी व्यक्ति लोकप्रिय हो जाता है| इस- लिए उसके लिए किसी बात की कमी आने पर नही रहती ! बशर्ते कि उसमे अपने दान के प्रति अटल विश्वास हो | इसीलिए तथागत बुद्ध ने कहा-- “दिन्न होति चुनोहित' दान का माहात्म्य ३५ दिया हुआ दान ही चिरकाल तक निधि रूप मे सुरक्षित रहता है| दिया गया दान हो वास्तविक धन है वहुत-से लोग यह सोचते हैँ कि दान देने से तो हमारी तिजोरी खाली हो जाएगी, हमे तो तिजोरी भरी हुई देखने मे सन्‍्तोप होता है । परन्तु विचारणीय बात तो यह है कि द्रव्य का अगर दान नही दिया जाएगा तो उच्चकी दो गति होगी--या तो वह खाने (उपभोग) में खर्च होगा, अथवा उसका नाश किसी न किसी रूप में हो जाएगा । एक विचारक ने कहा है--- *प्रवत्तस्य॒प्रमृतक्तस्य दृश्यते महदन्तरम्‌। दत्त श्रेयासि ससुते, विष्ठा भवति भक्षितम्‌ ॥ दिये हुए एवं खाये हुए द्रव्य मे बडा-मारी अन्तर है | दिया गया द्रव्य श्रेय अजित करता है, पुण्योपार्जन करता है ओर खाये हुए का मल बनता है। इस प्रकार से आप समझ सकते हैं कि प्राप्त पदार्थ का स्वय सर्वस्व उपभोग फर लेने की अपेक्षा दूसरो को देना अभीष्ट है । जो दूसरो को दिया जाता है, वही वास्तविक घन है, क्योकि वही परलोक में साथ आने वाला है, और इहलोक मे भी पृष्यवृद्धि करके मनुप्य को सूख पहुँचाने वाला है। इसीलिए अन्रिसमहिता मे भारतीय ऋषि का अनुभवसिद्ध चिन्तन फूट पडा-- न्ास्ति दानात्परं मिन्नम्िहलोके परत्र व दान के समान इहलोक और परलोक मे कोई मित्र नही हैं। दान इस लोक में भी मित्र की तरह पुण्यवृद्धि होने से सुख-सुविधा जौर सुख-सामग्री प्राप्त करा देता है, सुख पहुँचाता है और परलोक में भी दान मित्रवत्‌ पुण्य उपाजित कराकर प्राणी को उत्तम सुर व सामग्री जुटा देता है। इसलिए दान मित्र से भी बढकर है । हाँ, तो खा जाना तो दान के फल को या सुकृत को खो देना है, और दान देना सुकृत का अर्जेन है। इसी मे मिलती-जुलती एक कहावत लोकव्यवहार मे प्रसिद्ध है-- सा गया, सो स्लो गया, दे गया, सो ले गया। जोड गया, सिर फोड गया, गाड गया, झख भार गया ॥7” इसका तात्पर्य यह है कि इस ससार मे व्यक्ति ने जो कुछ भी घनादि साधन जुटाए हैँ, उन्हें स्वय खाने वाला सव कुछ खो देता है, वह सुकृत के सुन्दर अवसर को हाथ से गेंवा देता है, और जो घन आदि पदार्थ कमा-कमा कर जोडता है, न खाता है, न खर्च करता है, न दान देता है, ऐसा व्यक्ति सारे के सारे पदार्व जोड-जोडकर रख जाता है, उसने अपने उपाजित द्रव्य से कुछ भी सुकृत नहीं कमाया, और न ही १ चन्दचरित्रम, पृ० ७१ ३६५ दान महत्व और स्वरूप स्वय उपभोग किया, उसके पहले तो सिर्फ जोड़ने और भहेज कर रखने की मायाकूट ही पडी, इतनी सिरफोडी करके भी वह कुछ भी लाभ नहीं उठा सका | जो दूमरो की पूंजी को हजम कर जाता है, या गाड जाता है, वह तो व्यर्थ ही झ्षख मारता है। इसलिए मनुष्य का वास्तविक घन तो वही है, जो वह दूसरों को दान दे देता है। उसकी वही पुण्य की पूंजी परलोक में उसके साथ जाने वाली है । इन्दौर के सर सेठ हुवमीचन्दजी से किसी ने पूछा--“आपके पास कुल सम्पत्ति कितनी है ? लोगो को आपके घन की थाह ही नही मिल रही है । आप लक्ष्मीपुत्र हैं । जनता अनुमान ही अनुमान में गुम है । कोई दस करोट रु० का अनुमान लगाते हैं, कोई बीस करोड रुपये का। वास्तविक स्थिति क्‍या है ?” सेठ मुस्कराते हुए बोले---“मेरी सम्पत्ति बहुत थोडी है। आपको सुनकर आश्चर्य होगा---२७६ लाख ।” प्रश्नकर्ता ने अविश्वास की मुद्रा मे कहा--“क्यो फुसलाते हैं, आप पचास लाख रुपये का तो केवल शौशमहल ही होगा । इसके सिवाय भिलें वगरह हैं सो अलग ।” सेठ बोले---“आप भेरे कहने का आशय नही समझे । अभी तक इन हाथो से सिर्फ २७॥। लाख ही दिये जा सके हैं। जो इन हाथो से दिये गये हैं और जनता के हित में जिनका उपयोग हुआ है, वे ही केवल मेरे हैं । कितनी थोडी-सी पूंजी दै भेरी ।” इसलिए हाथ से दिया गया दान ही अपना घन है । धान में दिया हुआ धन ही साथ जायगा इसीलिए नीतिकार कहते हैं कि “किसी विशिष्ट कार्य के लिए जिसे घन तू देगा, या जिसका उपभोग प्रतिदिन करेगा, उसे ही मैं तुम्हारा धन मानता हूँ। फिर बाकी का धन किसके लिए रखकर जाते हो ?”१ व्यक्ति की वास्तविक पूंजी तो वही है, जो उसके हाथ मे दान मे दी गई है, जो केवल गाड कर रखी गई है, वह पूंजी तो यही रह जाने वाली है, वह घूल या पत्थर के समान है। इसलिए दान दिया हुआ घन ही परलोक मे पुण्य के रूप में साथ जाता है, अन्य धन या साघन तो यद्दी पडा रह जाता है | प्रत्येक मनुष्य प्राय इस बात को भली-भाति जानता है कि मेरे मरने के बाद यह सम्पत्ति मेरे साथ आने वाली नही है, यह यही पडी रहेगी । मेरे साथ मेरे द्वारा किये हुए अच्छे-बुरे कर्म साथ चलेंगे। फिर भी भ्रान्तिवश वह यह सोचकर सपग्रह करता रहता है कि मेरे मरने के बाद घन मेरे पीछे, आएगा या ठाठबाठ से मेरा दाहंसस्कार किया जाएगा । मगर मरने के बाद उस घन को प्रलोक में ले जाया १ “यदु ददासि विशिष्टेस्यो यच्चाश्नासि दिने-दिने | तत्ते चित्तमह भन्ये, शेष कस्यापि रक्षसि ॥” दान का माहात्म्य ३७ नही जा सकता | केवल धन को देख-देखकर जीते-जी मनुष्य अपने मन को भले ही आश्वासन दे दे, पर वह धन भी कभी-कभी आँख-मिचौनी कर जाता है, मनुष्य के साथ । इसलिए सर्वोत्तम उपाय यही है कि उस धन का जितना हो सके, अपने हाथ से दान कर दे । जो धन दान' कर दिया जाता है वही साथ मे चलता है। सिकदर बादशाह ने मरने तक आधी दुनिया की दोलत इकट्ठी कर ली थी, और आधी दुनिया का राज जीत लिया था| किन्तु जिस समय वह मरने लगा तो अपने दरवारियो को वुलाकर कहा--मेरे घन का मेरे सामने ढेर लगा दो, जिससे मै देखकर सतुष्ट हो सक और साथ मे ले जा सकू ।” उन्होंने तथा बडे-बडे विद्वानों ने कहा--“जहाँपनाह ! इसमें से जमीन या पदार्थ का जरा-सा कण भी, एक तागा भी आपके साथ आने वाला नही, है, यह धन और घरती यही पडे रह जाएँगे, किसी के साथ में आते नही |” कहते हैं--सिकदर को यह जानकर बहुत ही अफसोस हुआ, वह रोने लगा कि “हाय ! मैंने व्यथं ही लोगो को सताकर, उखाड-पछाड करके इतनी दौलत इकट्टी की और इतनी घरती पर कब्जा किया । यह तो यही घरी रह जायेंगी ।” अन्तत उसे एक विचार सूझा और उसने चोबदारो से कहा--“मेरी अर्थी निकाली जाय, उस समय मेरे दोनो हाथ उत्त जनाजे (अर्थी) से बाहर रखे जायें, ताकि दुनिया यह नसीहत ले सके कि इतना घन या जमीन अपने कब्जे भे करमे पर भी इन्सान मरने के वाद खाली हाथ जाता है । भ्ाथ में कुछ नही ले जा सकता ।” उन्होंने ऐसा ही किया । निष्कपं यह है कि जो घन अपने हाथो से दान में दे दिया जाता है, वही सार्थक है, वही अपना है | “जो लक्ष्मी पानी मे उठने वाली तरगो के समान चचल है, दो-तीन दिन ठहरने वाली है, उसका सदुपयोग यही है कि दयालु होकर योग्य पात्र को दान दिया जाय । ऐसा न करके जो मनुष्य लक्ष्मी का केवल सचय ही करता रहता है, न उसे जधन्य, मध्यम जौर उत्तम पात्रो में दान देता है, वह अपनी आत्मवचना करता है। उसका मनुष्य जन्म पाना वृथा है ।”६ इसीलिए क्रियाकोपकार ने तो बहुत ही कठोर शब्दों मे उसे फटकारा है, जो घन को दान न देकर, यो ही पडा रखता है या गाडे रखता है-- “जानी गृद्ध-समान त्ताक॑ सुतदारादिका । जो नहीं करे सुदान, ताक॑ घन भामिष समा ह! १ लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण । जा जलतरग चबला दो-तिण्णि दिणाइ चिट्ट ३ ॥१२॥ जो पुण लच्छि सचदि णय देदि पत्तसु | सो अप्पाण वचदि, मणुयत्त णिप्फल तस्म ॥१३॥। --फाततिकेयानुप्रेक्षा ह८ दान भहत्व और स्वरूप जो दान नही करता, उसका घन मास के समान है, और उत्त धन का उपभोग करने वाले पुत्र-स्त्री आदि गिद्धों की मडली के समान हैं । दान वैने से हो जीवन व धन सफल उसी भनुष्य का जीवन सफल है जो समाज से अजित धन एवं साधनों का दान करता है, जरूरतमदो को बिना हिंचक के दे देता है। जो व्यक्ति अपने धन से चिपठा रहता है, रात-दिन ममत्त्वपूर्वक उसका संग्रह करता रहता है, समय आने पर उसका दान नही करता, उसका जीवन पशु-पक्षियों या कीडे-मकोडो की तरह निप्फल है। इसी सन्दर्म मे कार्तिकेयानुप्रेक्षा मे सुन्दर चिन्तन दिया है-- “जो मनुष्य लक्ष्मी का सचय करके पृथ्वी के गहरे तल मे उसे गाड देता है, वह उस लक्ष्मी को पत्थर के समान कर देता है जो मनुप्य अपनी बढती हुईं लक्ष्मी का निरन्तर घमंकारयों मे दान कर देता है, उसकी ही लक्ष्मी सदा सफल है, और पण्डितजन भी उसकी प्रशसा करते हैं। इस प्रकार लक्ष्मी को अनित्य जान कर जो उसे निधन धर्मात्मा व्यक्तियों को देता है और बदले मे प्रत्युपकार की वाद्या नही करता उसका जीवन सफल है।* उपयुक्त उद्धरणो से यह स्पष्ट हो जाता है, उसी व्यक्ति का धन और जीवन सफल होता है, जिसने घन या साधनों को जोड-जोड कर पत्थरो की तरह जमीन में न गाड कर भूखे-प्यासे अनाथ, अपाहिज दयापात्रो या गरीब धर्मात्मा व्यक्तियों को मुत्तहस्त से दिया है। इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक कहता है--/५ प्रशाए।- शश्ागा' जीवन का भरर्थ है--दान देना । इस सम्बन्ध मे जगड़शाह का उदाहरण पहले दिया जा चुका है, जिसने देश पर आई हुई दुप्फाल की आफत को दूर करने के लिए जी-जान से दिल खोलकर अपना घन एवं साधन लुटाया | गुजरात भें जैसे जगड़शाह हुए हैं, वैसे महाराष्ट्र मे शिराल सेठ भी दानवीर हुए हैं। एक बार जब १२ वर्ष का दुष्काल पडा तो उन्होने अपने घन और अन्न के भडार खोलकर लाखो अभावग्रस्त लोगो को घन और अन्न मुक्तहस्त से दिया, इससे उन लाखो लोगो को जीवनदान मिला और शिराल सेठ ने अपने धन और जीवन " को सफल किया। १ जो सचिऊण लच्छि धरणियले सठवेदि मइदूरे । सो पुरिसो त लच्छि पाहण-सामाणिय कुणदि ॥१४॥ जो वड्ठमाण-लच्छि मणवरय देदि घम्मकज्जेसु । सो पडियेहि थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥१६॥ , एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोग्राण धम्मजुत्ताण निरवेक्खो त देहि हु तस्स हबे जीविज सहल ॥२०॥। दान का माहात्म्य ३६ जब शिरालसेठ की दानवीरता की बात मुगल बादशाह के कानो मे पहुँची । तो, उन्होने दरबार मे बुलाकर उनका बहुत सत्कार-सम्मान किया और कहा-- “कुछ मायों ।” शिरालसेठ को अपने दान के बदले में किसी वस्तु के लेने की इच्छा नहीं थी, किन्तु वादशाह के द्वारा बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने साढे तीन घडी के लिए राज्य भागा । वादशाह ने उन्हे ३॥ घडी के लिए राज्य दे दिया। उतने ही समय मे उन्होने जगह-जगह सदान्नत खोले, कोई भी बेकार न रहे, इसका प्रबन्ध कराया । मन्दिर, मस्जिद और धर्मेस्थानों के लिए दी हुई जमीन के साथ वर्षाशन कायम कराए । कई पाठशालाएँ खुलवाई। बादशाह ने उनकी सब बाते मान्य की और उन्हे बडी जागीरी दी। आज भी श्रावण वदी ६ को किसी-किसी गाँव में शिरालसेठ की स्मृति में उत्सव--मेला मनाया जाता है । जो व्यक्ति अपने घन और जीवन को पफल बनाना चाहता है, वह घन से या साधनों से ममतापूर्वक चिपटता नहीं है। उसकी वृत्ति मुक्त-हस्त से दान कर देने की होती है। देशबन्धु चित्तरजनदास के जीवन की एक घटना है । रविवार का दिन था । भात काल बे अपने विशाल 'सेवासदन पुस्तकालय' मे बैठकर कोर्ट के कुछ महत्त्वपूर्ण कागज देख रहे थे । इसी समय चपरासी ने हॉल मे प्रविष्ट होकर बाहर मिलने के लिए बाये हुए किसी आगन्तुक का विजिटिंग कार्ड उनके हाथ में दिया | उस पर नाम लिखा था---“उपेन्द्रनाथ बन्ध्ोपाध्याय'--सम्पादक वसुमति” । नाम पढते ही दास बादू ने चपरासी से कहा--कार्ड देने वाले को आने दो ।” चपरासी बाहर गया और उपेन्द्रबावू को भीतर आते दिया। तुरन्त दास बाबू ने उनसे पूछा--“कहिए क्या भाज्ञा है ?” “आज्ञा तो कुछ नही है। प्रत्येक रविवार को प्रात काल आप दान देते हैं । अत मैं दान लेने आया हूँ ।” वसुमति के सम्पादक ने कहा । “में कौन हूँ, जो दान कर सकता हैं! मुझमे दान देने का सामथ्यं नही है। हम तो वकील हैं, देने का नही, लेने का घन्धा करते हैं। लोगो को लडाना ओर पैसे कमाना, हमारा धन्धा है।” चित्तरजन बावू ने कहा । उपेन्द्रनाथ---“आपको मेरी बात उपहास के योग्य लगती है। पर सच बात यह है कि मैं आपसे दान लेने को ही आया हैं। आपको कदाचित्‌ मालूम होगा कि कतिपय उच्च साहित्यकारो की सुन्दर पुस्तकें मुल्य अधिक होने के कारण जनता के हाथो मे नही पहुँच पाती । मत इस स्थिति को दूर करने और भाम जनता को उत्तम साहित्य सस्ते दामो मे देने के लिए वसूमति कार्यालय ने एक योजना बनाई है। भौर ८०० पृष्ठो की पुस्तक सिर्फ ढेंढ रुपये मे देने को हम तैयार हैं। यह पुस्तक देखिये--यो कहकर उपेन्द्रनाथ ने उनके हाथ में पुस्तक थमा दी । दासवावू ने ४०. दान महत्व और स्वरूप पुरतक हाथ मे ली । उसके प्ृष्ठी को एक दो मिनद तक उलट-पलट कर कहा-- "यह तो घाटे का व्यापार है।” 'तही, ऐसा नही है। अगर इस पुस्तक की एक साथ १० हजार प्रत्तियाँ छपाई जाएं तो घाठा नही है। परन्तु १० हजार प्रतियाँ छपवाने के लिए मेरे पास रुपये नही हैं । अत ईश्वरीय प्रेरणा होते ही मैं आपके पास आया हूँ ।” उपेन्द्रवाबू ने कहा । चित्तरजन बाबू--“लेकिन इसके सम्बन्ध में मेरी र्याति नहीं है । उसमे मैं यश भी नही चाहता। कलकत्ता में लगभग २०० जमीदार दानवीर हैं, उन्हें क्यो नही पकडते २” उपेन्द्रवावु--'उनके हृदय चित्तरजन बाबू जैसे विशाल और उदार नही हैं। उनके भकानो के जीने चढते-चढते जूतो के तलिये घिस गए हैं ।” दासबावू--कलकत्ते के घनवानो के लिए ऐसा मत कहिए ।” यो कहते हुए उन्होने टेबल की दराज में से चैक बुक निकाल कर उसमे कुछ लिखकर एक चैक उपेन्द्रबाबू के हाथ मे दे दिया। उपेन्द्रवाबू चैक पढते ही क्षणमर स्तन्ध रह गए । फिर उन्होने कहा--“यह तो ५० हजार रु० का चैक है| इतनी बडी रकम के लिए धन्यवाद ” परन्तु यह रकम वापिस कब देनी होगी * रकम का ब्याज भी निश्चित हो जाय गौर दस्तावेज भी लिखा लिया जाय ।” “यह सब खटपट रहने दो | मुझे न रकम वापिस चाहिए, न व्याज और दस्तावेज की जरूरत है ।” दासबाबू ने कहा । उपेन्द्रनाथ सिर्फ ५ मिनट में ५० हजार का चैक दान के रूप मे पाकर देखते ही रह गए। इस भर्थंराशि से उन्होने रवीन्द्र प्रन्यावली, रमेशचन्द्र प्रन्यावली, थोगेन्र अन्थावली वगेरह ३६ प्रत्थावलो प्रकाशित कराकर सस्ते दामो मे आम जनता को दी। यह है घन के सदुपयोग द्वारा जीवन को सफल बनाने का ज्वलन्त उदाहरण ' सचमुच, हमारे देश भे ऐसे अनेक उदार महानुभाव हुए हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व देकर देश का औौर अपना गौरव बढाया है। दान सिर्फ दान नहों, हृदय से अनेक गुणो का आदान भी है विदेशी साहित्यकार विक्टर हा गो ने एक दिन ठीक ही कहा था--न्योंही पसे रिक्त होता है, मनुष्य का हृवय समृद्ध होता है ।' वास्तव में दान देना, केवल देना ही नही होता, अपितु देने के साथ-साथ हृदय करुणा, मैन्ी, बन्धुता, सेवा, सहानुभूति, परोपकार एवं आत्मीयता के ग्रुणो से परिपूर्ण एव समृद्ध होता जाता है। अव्यक्त रूप से दानी व्यक्ति में इन भावो के _. सस्कार सुहढ होते जाते हैं। इसलिए एक अग्रेज विचारक का यह कथन अनुभव की कसौटी पर सही उतरता है--'परश७ वरद्यात पर्व 80०, 88॥०४ ! “जो मानव दान का माहात्म्य_ ४१ अपने हाथ से दान देता है, वह देता ही नही, वरन्‌ अपने हाथ से इकट्ठा (गुण, यश आदि) करता है ।” शक्ति होते हुए भी दात व दे, उसका घन घूल समान इसके विपरीत जिसके पास धन है, फिर भी वह दान नही देता है तो उसका घन घूल के समान है । उस घन में और पडी हुई घूल मे कोई अन्तर नही | घूल तो फिर भी किसी के काम भा जाती है, किन्तु पडी हुई तिजोरी मे बन्द, सम्पत्ति किसी काम में नहीं आती, वह पडी-पडी सडती रहती है, और अनेक चिन्ताओ का कारण प्री बन जाती है । एक बात और भी है, जब मनुष्य शक्ति होते हुए भी दान नही देता तो उसके हृदय में जिन उदारता, सहृदयता, करुणा, आत्मीयता आदि गुणों का सवर्द्ध न होना चाहिए था, वह नही हो पाता, उसके हृदय के कपाट ग्रुणो के लिए अवरुद्ध हो जाते हैं। इसलिए शक्ति होने पर भी दान न देने वाले का जीवन और घन दोनो निष्फल जाते हैं। कई बार तो ऐसे व्यक्तियो को, जो शक्ति होने पर भी दान नही देते, अभाव- ग्रस्तो को एवं भूखों को सहायता नही करते, साधारण-सा प्रतीत होने वाला मानव- प्रेरणा दे देता है। वयदाद का एक खलीफा (शासक) बहुत ही कजूस था। रैयत मूखो मरती हो तो भी उसके हाथ से घन छूटता नही था। एक वार ग्ुरुनानक बगदाद आए। उन्हे यह पता चल गया कि यहाँ का खलीफा बहुत कृपण है, मूखी जनता को देख कर भी उसके दिल में दात की भावना नही पैदा होती। सयोगवश खलीफा स्वयं गुदनानक से मिलने आया। गुरुतानक ने खलीफा को सौ ककर देते हुए कहा--- “खलीफा साहब ' ये सौ ककर लीजिए और इन्हे मेरी अमानत समझ कर अपने पास रख लीजिए । जब मै इन्हे माँगू तब मुझे वापिस सौंप देना ।”। खलीफा ने पूछा--'आप इन ककरो को कब तक वापस ले जाएँगे ।” गुरु नानक--“मुझे कोई उतावल नही है। आपके पास ये रह जायें तो भी कोई हज नही । वर्ना कयामत के दिन वापस दे दीजिएगा।” खलीफा---/वरूतु" “ कयामत के दिन खुदा के दरवार में मै इसे कैसे ले जा सकूंगा। मै तो मरने के वाद कोई भी चीज साथ मे नही ले जा सकूंगा, फिर इन ककरो को मै कंसे ले जाऊँगा ?” हे गुरु नानक ने अवसर देखकर कहा--“वस, यही वात तो मैं आपको समझाना चाहता था, कि ये ककर तो आप वहाँ साथ नही ले जा सकेंगे, पर अपना सग्रह किया हुआ विपुल घन का खजाना तो साथ में ले जा सकोगे न ?” ४२ दान भहत्व और स्वरुप खलीफा की आँखें यह सुनते ही खुल गई । उसने चौक कर फहा--ऐं ! यह क्या कहा, भापने ? में तो धन का खजाना कया, एक ताग्ा भी साथ में नहीं ते जा सकूँगा ।” “तो फिर इतना घन किसके लिए सग्रह करके रखें जा महे हैं? आप खुद अच्छी तरह खाते नही, न किसी जरूरतमन्द को देते हैं, यहाँ तक कि आपकी रैयत भूखो मरती हो तो भी आप उसके लिए एक भी पैसा सर्च नही करते | घन को केयरामत के दिन नही ले जा सकते, तव फिर क्या होगा, इसका ?” गुर नानक ने कहा | खलीफा ने अपनी गलती मजूर की, उसे अन्दर की सच्ची दौलत मिल गईं, भर उसी दिन से खलीफा ने अपना सारा घन जनता के चरणों मे रख दिया। जो व्यक्ति सब प्रकार के साधन होते हुए भी अपने देश में अमाव से पीडित, भूखे नंगे, फटेहाल व्यक्तियों को देकर उनका दुख नही मिटाता, उसका जल्म वृथा है, उसका धन था साधन भी मिट्टी के समान है, उसकी माता उसे जन्म देकर व्यर्थ ही बोन्न मरी । कई बार राजामो की आंखें वैभव-विलास के मद मे चघूर होकर उन दीन- हीनो को देख नही पाती, वे राज्य की बाहरी चमक-दमक और जी-हजूरियों की व्कुरसुहाती देख-सुनकर उसकी एव जनता की वास्तविक स्थिति से परिचित नही होते | इसी कारण उन्हे ऐसे अभावग्ररतो की पीडा को देखकर भी सहायता के रूप में दान देने की प्रेरणा नही होती । धारानगरी का राजा भोज अपनी साहित्यप्रियता और दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। सरस्वती और लक्ष्मी दोनो का उसमे भद्भुत सगम था | एक दिन राजा अपनी स्फुरणा से घोड़े पर चढा हुआ जनता के दुख का स्वय अन्दाजा लगाते के लिए उद्यान की ओर जा रहा था । जब उसका घोडा घानमडी से ग्रुजर रहा था, तो उसने देखा कि 'एक भिखारी घूल मे पडे हुए अनाज के दानो को बीन-बीन कर खा रहा है। कशकाय एव दरिद्रता की मूर्ति भिक्षुक को देखकर राजा भोज विचार में पड गया--“भैरी राजधानी भें ऐसी भुखमरी |” भुखमरी के कारणों पर विचार करते-करते राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि 'जनसख्या बढ जाने के कारण ही ऐसी हालत होती है । क्यो भाताएँ ऐसे पुत्रो को जन्म दे देती हैं” इस पर वह बोल उठा “ जनती ! ऐसो ना जणो भोय पड़या कण साय 7 राजा भोज के व्यग्यमिश्चित दोहे की ध्वनि भिक्षक के कानो में पडी । सहसा उसने ऊपर दृष्टि फेंकी । वैभव के नशे मे चूर राजा भोज द्वारा दरिद्र पर कसे हुए ताने को सुनकर उसका हृदय व्यधित हो गया । भिखारी सोचने लगा--“वबैभव के नशे में चूर व्यक्ति हमारे पेट की ज्वाला को क्या जाने? गरीबों पर कैसी बीत रही है, इसे तो हम ही जानते हैं | पेट की ज्वाला को बुझाने के लिए घूल सने कण मुह में ढाल रहा हैं, यह भी इसे खटकते हैं। स्वय बादाम-पिश्ते चबाते हैं और चने चबाने वाले दान का माहात्म्य डरे पर दोष मेंढते हैं। राजा ने मेरी माता को दोष दिया है, इसका उत्तर तो मुझे देना ही पडेगा । दोहा भी तो आधा है। वह आधी लाइन और जोड देता है--'छते योग दुख ला हरे, ऐसो ने जणियो माय ।” माता ! ऐसे पुत्र को पैदा करने की भूल मत करना, जो सम्पत्ति होने पर भी जनता के दु ख-दारिद्रय को दर करने की चेष्टा नही करता, उसकी वह सम्पत्ति अगर समाज या राष्ट्र के काम में नही आती है, तो उसका मूल्य घूल से अधिक नही है। घूल तो अमीर-गरीब सबके लिए समान है । किन्तु शक्ति होने पर भी किसी अभाव से पीडित की दान के रूप में सहायता नही की, तो वह सम्पत्ति किस काम की ? | दान न देने वाला बाद से पछताता है / दान का अवसर पूर्व॑जन्म के किसी प्रबल पुण्य से ही मिलता है | बहुत लोगो को तो दान देने की कभी भावना ही नही होती, उन्हे यह सूझ ही नही पढती कि ससार मे ऐसे भी मानवबन्धु हैं, जिनके पास खाने-पीने की सुविधा नही है, रहने को झौंपडी भी नही है, अथवा रोग, बाढ, भूकम्प या अन्य किसी प्राकृतिक प्रकोप से पीडित हैं। उनके प्रति भी हमारा कुछ कत्तंव्य है।” इसके आगे बढकर कई लोग ऐसे भी हैं, जिनके सामने दान की महिमा या दान की आवश्यकता स्पष्ट प्रतीत होती है, किन्तु उनके सामने अवसर नहीं आते, अथवा यो कहना चाहिए, वे दान के अवसरो को जान नही पाते, अथवा दान के पात्र उनके पास नही पहुँचते। किन्तु सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति उस व्यक्ति की है, जिसके सामने दान' के अवसर आते है, वह स्पष्ट रूप से उन्हे पहिचानता भी है, उसकी हैसियत भी दूसरो को देने को है, उसके पास इतने साधन हैं कि वह चाहे तो दान के पात्रो को दे सकता है, किन्तु वह उन अवसरो को हाथ से जाने देता है, सोचता है, ऐसे अवसर तो अनेक बार आये हैं, और भविष्य मे आएँगे, परन्तु उत अवसरो को खो देने के बाद फिर पछताता है, जब या तो दान देंने की स्थिति मे नही रहता, अथवा वह दान देने के लिए इस लोक में ही नही रहता । जो लोग रात-दिन यह सोचा करते हैं कि इतना दान देने से इतना पैसा कम हो जायगा, अथवा अभी तो नही, फिर दान दे दूंगा, इतनी जल्दी क्या है ? वे अन्त से हाथ मलत्े रह जाते हैं और अन्तिम समय मे कोई ऐसी अडचन आ जाती है कि वे सोचा हुआ दान नही दे पाते । उनके मनसूबे भन में ही घरे रह जाते हैं । एक घनी सज्जन थे । उनके गाँव मे एक सावंजनिक सस्था का निर्माण हो रहा था | वे उस ससथा के भवन-निर्माण के कार्य को इधर से उधर ग्रुजरते हुए प्रतिदिन देखा करते थे । कभी-कभी उस ससथा के लिए दान करने का मन भी होता, पर दूसरे ही क्षण वे हिंसाब लगाने लगते कि इस दान' से मेरी पूँजी मे जो कमी होगी, उसे कंसे पूरी की जाएगी ? इस तरह से वे उस मकांन के पास बाते, कुछ सोचते, ड४ दान महत्व और स्वरूप फिर एक चक्कर लगा कर वापिस लौट जाते | एक मन होता कि कु करना चाहिए, दूसरा मन उस विचार को दवा देता । इसी तरह सोचते-सोचते वे इस दुनिया में चल बसे । उनकी सारी सम्पत्ति और खजाना धरा का बरा रह गया। वे कुछ दान देने की बात सोचते ही रह गए । इस धनी सज्जन की तरह प्सार में बहुत-से लोग हैं, जो मन में दान देने के मनसूबे बाँधते रहते हैं, लेकिन अवसर आने १२ कुछ दान कर गुजरने की उनकी भावना भर जाती है । इसलिए सिद्धान्त यह निकला कि दान देने की भावना उठते ही, या दान का अवसर आते हो 'शुभस्य शी घ्रम्‌” के अनुसार झटपट दान दे डालो | आगे-पीछे की न सोचो । भगवान्‌ महावीर का प्रेरणासूत्र यही सन्देश देता है-- “मा पडिवध फरेह' छुभ कार्य मे जरा भी ढोल न करो । दान जैसे शुभ कार्य मे प्रमाद करने पर बाद मे उस अवसर के खोने का पश्चात्ताप होगा । कई लोग यह सोचा करते हैं, दान तो दे दूं। पर आपत्काल में पास भे पैसा न हुआ तो मेरी क्या हालत होगी ! अत दान न देकर आपत्काल के लिए घन को सुरक्षित रखना चाहिए | परन्तु वे यह नही सोचते कि दुर्देवात्‌ जब कमी आपत्काल आएगा तो क्‍या सचित पूंजी भी नष्ट नही हो जाएगी ?ै इसलिए सकटकाल के लिए धन को गाडकर या सचित करके रखना व्यर्थ है। दान का अवसर आने पर प्राथ- मिकता दान को देनी चाहिए, यही श्रेवस्कर है घर्मलाभ का कारण है। सचित करके रखी हुईं सम्पत्ति कौन-सी श्रेयस्कारिणी या घर्मलाभ की कारण बनेगी ? इस प्रकार सचित करके आपत्काल के निमित्त सम्पत्ति को रखने से भी मनुष्य को बाद में पश्चात्ताप करना पडता है कि हाय ! मैं उस समय दान के लिए आए हुए पात्र को दे देता तो अच्छा रहता । घारानगरी का राजा भोज बडा दानवीर था । दान' देते समय वहू आगा- पीछा नही सोचता था, न दान देने के बाद पश्चात्ताप या किसी प्रकार का और विचार ही करता था| उसका प्रेरणा सुत्र यही चिन्तन था--'3॥ए७ ए/ता०्ए & £४००४॥४ दो, पर किसी प्रकार का विचार किये बिना दो । उसके मन्त्री मे सोचा- “राजा अगर इसी तरह दान देता रहेगा त्तो एक दिन खजाना खाली हो जाएगा। इसलिए उसने कागज पर श्लोक की एक लाइन लिख कर राजा की शय्या के सामने दीवार पर टाँग दी । उस पर लिखा था--“आपदस्थें घन रक्षेत्‌' आपत्तिकाल के लिए धन बचाकर रखना चाहिए ।” राजा की दृष्टि श्लोक की इस लाइन पर पढ़ी, उससे मन ही सन सोचा--मुझे दान से रोकने के लिए शायद यह पक्ति लिखकर टाँगी गई है। अत उसने उस पक्ति के नीचे लिख दिया--'श्रीमतामापद फुत ' भाग्यशालियो को भापत्ति कहाँ है ? दूसरे दिन मन्त्री अपने लिखित श्लोक की पक्ति की प्रतिक्रिया * जानने की दृष्टि से राजा के पास आया और उसने राजा के द्वारा लिखी हुई उत्त दान का माहात्म्;म_ ४४ पक्ति देखी तो सोचा--अभी तक राजा के मन पर कोई असर नही हुआ है। अत उसने राजा की लिखी हुई पक्ति के नीचे एक पक्ति फिर लिख दी--'कदाचित्‌ कुपितो देव ' अगर भाग्य ही कभी कुपित हो गया तो? राजा ने उसे देखा और मन ही भन मुस्कराकर उसके नीचे यह लाइन लिख दी-- संचितो5पि विनश्यति' यानि सचित की हुईं सम्पत्ति भी देव के कुपित होने पर नष्ट हो जाती है, इसलिए धन का सचय करके रखने के बजाय दान करते रहना चाहिए। भविष्य मे घन काम आएगा, इस लिहाज से अच्छे कार्य में दान न करने वालो के लिए राजा के ये विचार मननीय हैं। निष्कर्ष यह है कि घन का सचय करने की अपेक्षा उसका दान करना बेहतर है, क्योकि दान करने से बाद में पश्चात्ताप करने का अवसर नही आएगा। स्वेच्छा से दिया गया दान मन को सन्तुष्टि और शान्ति प्रदान करता है । इस सम्बन्ध मे चाणक्यनीति* का यह श्लोक बहुत ही प्रेरणाप्रद है-- देय भो ! हाथने घत सुकृतिसितों स्चयस्तस्य वै। श्रीकृष्णस्प बलेश्व विक्रमपतेरआईपि फीलति स्थिता ॥ अस्माफक सघु दान-भोगरहित नष्ट चिरात्सचितस्‌ । निर्वेदादिति नेजपादयुगल घर्षन्त्यहों ! सक्षिफा ॥ मधु-मक्खियो का कहना है--(ुण्यात्माओ को घन का केवल सम्रह न करके निर्धनो को दान देते रहना चाहिए । क्योकि उसी (दान) के कारण कर्ण राजा, बलि- राजा और विक्रमादित्य आदि राजाओं का यश आज तक विद्यमान है। आह ! देखो, हमने जो शहद चिरकाल से सचित किया था, उसे न॒तो किसी को दान दिया और ने स्वयं उपयोग किया, इस कारण वह नष्ट हो गया। इसी दु ख़ से हम मधुमक्खियाँ अपने दोनो पैरो को घिस रही हैं ।' इसी तरह जब दान और भोग से रहित सचित घन नष्ट हो जाता है, तो व्यक्ति मधुमक्खी की तरह सिर घुनकर हाथ मलता हुआ पश्चात्ताप करता है । इसके विपरीत जो उदारचेता होते हैं, वे राजा कर्ण की तरह देने मे आनन्द की अनुमूति करते हैं। इसलिए धन सचित करके रखना, दान देने से वचित करना है। पश्चात्ताप # हा देना है। गुजरात के प्रसिद्ध कवि दलपतराय ने ऐसे लोगो को चेतावनी “माखिए मघ सचय कोध्‌, नवि खाधु नवि दानज दीधु । लूटन हाराए लूटी लोधु रे, पामरप्ाणी, चेते मत्षो चेताऊ तने रे ॥ समय पर दान न मिलने फा परिणाम * आत्महत्या ससार में कई इतने कठोर हृदय व्यक्ति होते हैं कि उनके पास घन और १ चाणक्यनीति ११॥१८ ४६ दान भहत्व और स्वरूप साधन प्रचुर मात्रा भे होने पर भी वे किसी जरूरतमद को देना नही चाहते, उसके पास कोई योग्य पात्र आता है तो वे उसे पहिचान नहीं पाते, उस पर चोर-उचवके की शका करके उसे अपमानित करके निकाल देते है, लेकिन उसका नतीजा कभी- कभी इतना भयकर आता है कि बाद में उसे अत्यन्त पश्चात्ताप करना पडता है, दान के योग्य पात्र को समय पर दान न मिलने के कारण वह स्वाभिमानवश आत्म- हत्या भी कर बैठता है। वास्तव में, ऐसी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार वे लोग हैं, जो शक्ति होते हुए भी योग्य पात्र मिलने पर भी उसे कुछ नही देते, इतना ही नहीं, अपनी मानवता को ताक में रखकर उसे दुत्कार देते हैं, अपमानित करके निकाल देते हैं। इसलिए दान के महत्त्व को समझकर हृदय को उदार बनाना चाहिए। माँगने वाले या दयापात्र व्यक्ति की परिस्थिति तथा मन स्थिति को समझकर देश- काल के अनुसार मुँह से नही, बल्कि हाथ से ही उत्तर देना चाहिए अर्थात्‌ दान वृत्ति का परिचय देना चाहिए । डर [5] दान: जीवन के लिए अमृत दान को मानवजीवन के लिए अमृत कहा है। अमृत मे जितने गुण होते हैं, उतने ही बल्कि उससे भी वढकर ग्रुण दान मे हैं । भारतीय ससस्‍्कृति के एक विचारक ने कहा है--- 'दानामृत यस्य फरारविन्दे, वाचामृुत थस्य सुलारविन्दे। दयाष्मृत यस्य सनो5रविन्दे, त्रिलोकपन्योहिं नरो वरोध्सो॥! जिसके करकमलो मे दानरूपी अमृत है, जिसके मुखारविन्द में वाणी की सरस सुधा है, जिसके हृदयकमल में दया का पीयूषनिश्लेर बह रहा है, वह श्रेष्ठ मनुष्य तीन लोक का बन्दनीय-पूजनीय है । कर का भहत्त्व कम नही, परन्तु कर का महत्व दान देने से है अन्य उपयुक्त व्यर्थ के कार्यों से कर का महत्व नही बढता | कर कमल बने, तभी दान अमृत बनता है । यो कोरा दान, जिसके साथ मधुर अमृतयुक्त वाणी न हो, हृदय में आत्मीयता से ओतप्रोत दया का अमृत निश्चिर न बहता हो, अमृत नही बनता | कहने का आशय यह है कि दान तभी अभृत बनता है जब हाथ के साथ वाणी और हृदय एकजुट होकर दान दें । कर तमी कमल बनता है, जब उसमे दान की मनमोहक महक उठती है, लिए दानामृत जिसके करकमल में हो, वह मनुष्य इतनी उच्च स्थिति पर पहुँच जाता है, वह विश्ववन्ददीय और जगत्पूज्य बन जाता है। ऐसा दानरूपी अमृत हजारो-लाखो मनुष्यो को जिला देता है, रोते हुओ को हँसा देता है, रूणशय्या पर पड़े हुए रोगियो को स्वस्थ एव रोगमुक्त कर देता है, पौडितो मे नई जान डाल देता है, बुमुक्षितो और तृषितो की भूख-प्यास मिटाकर उन्हे नया जीवन दे देता है, सकटसग्रस्तो को सकट मुक्त करके हुए से पुलकित कर देता है । सचमुच दान सजीवनी- बूटी है, अम्ृतमय रसायन है, रोगनाशिनी अमृतघारा है, अदुभुत शक्तिवद्धंक टॉनिक है, दरिद्रतानाशक कल्पतरु है, मनोवाड्छित पूर्ण करने वाली कामधेतु है। दान मे आश्चर्यजनक चमत्कार है, यह वशीकरण मत्र है, आकर्षक ततन्न है और प्रेमवर्धंक यत्र है । है दान महत्व और स्वरूप एक जगह वहुत-से विद्वान्‌ इकट्ठें हो रहे थे । वहाँ एक चर्चा छिंड गईं कि 'सच्चा अमृत कहाँ है ” एक विद्वान बोला--“समुद्र में | समुद्र मनन्‍्यन करके देवो ने अमृत मिकाला था ।” दूसरा बोला--“अजी ! समुद्र तो सारा है, उसमे अमृत नहीं हो सकता । अमत तो चन्द्रमा में है। जिस अमृत से सभी ओऔपधियाँ पोषित होती हैं ।” तीसरा कहने लगा--“चन्द्रमा तो घटता-बढता है । इसलिए वह तो क्षय रोग वाला है। उसमे अमृत नही हो सकता ।” चौथा वोला--अमृत तो नारी के मुख में है ।” पाँचवा कहने लगा--यह असभव है, नारी का मुह तो गदा है। अमृत तो नागलोक मे है । क्योकि अरजुन को जीवित करने के लिए नागलोक से अमृत लाया गया था ।” छठा बोला--'सर्पों के मुह मे अमृत होता होगा, भला ! वहां तो विष है। अमृत तो स्वर्ग मे है। क्योकि अमृत पीकर ही देव अमर बहलाते हैं ।” सातवाँ बोला, जो घामिक था--“भाई | अमृत तो भावनापूर्वक दान देने मे है। क्योकि भावपुर्वक दिया गया दान मानव को जिला देता है, रोते हुए को हँसा देता है, रोगी को स्वस्थ बना देता है । इससे सहज ही समझा जा सकता है कि विद्वानों की सभा ते काफी चर्चा के बाद दान को ही सर्वेसम्मति से अमृत घोषित किया | भारत में अमृत की बहुत चर्चा है। आम आदमी भी अमृत को पाने के लिए बहुत लालायित रहता है । प्रागैतिहास काल की एक घटना है । एक राजा को अमृत पीकर अमर बन जाने की लालसा जागी। उसके मन में एक दिन विचार---“आया यह सब सुख- सामग्री, सम्पत्ति, सत्ता, वैभव आदि तो मृत्यु आते ही छीन लेगी अत क्‍या किया जाय, जिससे मैं अमर हो जाऊँ ।” राजा के जीहजूरियो ने कहा---"इसका भी उपाय है। आप अमर बन जाइये ।” “कंसे बनू ?” राजा ने पूछा। 'अमृतपान कीजिए, उससे निश्चय ही आप अमर बन जाएँगे।' नौकरो ने कहा । राजा--“अमृत कैसे और कहाँ मिलेगा ?” नौकर--“महाराज, आपके पास इतना धन-वैभव और सत्ता है, आप सभी त्ामी वैज्ञानिको को बुलाइए, उन्हें पुरस्कार दीजिए | वे अपने आप अमृत बनाने का उपाय बतायेंगे । आप उन्हे पुरस्कृत करके आज्ञा दीजिए ।” राजा ने शीघ्र ही अमृत बनाने वाले वैज्ञानिको को बुलाने के लिए मत्रियों से फहा | प्रधानमत्री ने सारे देशभर के वैज्ञानिको को विशाल पारितोषिक का लोभ देकर बुला लिया। अमृत बनाने के लिए राजकोश खुल्ला ही था | मुल, रस, वन- स्पति, जडी-बूटी, पारस, हीरा, पन्ना, स्व, मुक्ता आदि द्वव्यो की बाढ आ गई | और एक दिन सचमुच उन रसायनशास्थत्रियों ने राजा को खुशखबरी सुनाई--'महाराज | अमृत बनकर तैयार हो गया है। राजा सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने अमृतपान के लिए एक दिन' निश्चित क्रिया, और इस दिन भव्य समारोह मनाने की घोषणा की। अमृतपान के लिए सप्तघातुओ का एक खास मडप बनवाया गया । जहाँ बैठ दान जीवन के लिए अमृत ४8 कर राजा अमृतपान कर सके । इस भव्य सिद्धि को देखने के लिए देश के विभिन्‍न भूमायों से अनेक नामी कलाकार, विद्वान, ज्ञानी, शूरवीर एवं वैज्ञानिक आदि भा पहुँचे । सभी अपने आसन से उठ-उठकर राजा को अमृतपान के लिए अभिनन्दन देने लगे । परन्तु राजा के वृद्ध महामत्री का आसन खाली पडा था | वे अभी तक नहीं आये थे। राजा ने देखा---इस देश के सभी विशिष्ट व्यक्ति इस अद्वितीय अवसर पर आकर मुझे अभिनन्दन दे रहे हैं, पर वृद्ध मुख्यमंत्री अमी तक क्यो नही आए ? इतने में सफेद केशों से मण्डित मस्तक वाले वृद्ध महामच्ी आये | राजा को हाथ जोडकर वन्दन करके वे अपने आसन पर बैठ गये । राजा की नजर महामन्नी पर टिकी, कि वे अभिनन्दन देने उठेंगे, पर वे तो राजा को नमस्कार करके नोचा मुह करके चुपचाप बैठ गये अपने आसन पर । राजा को जरा-सा रोप जाया, फिर उसने वाणी का रूप लिया--“महामत्री ! क्या आज का समारोह आपको पसद नही है ?” महामत्री--“यह देवदु्लंभ अवसर किसे पसन्द न होगा, महाराज !” राजा--ठो फिर आप इसके वारे में एक भी अक्षर न बोले, क्या कारण है? देशभर के समागत मेहमान मुझे अमृतपान के लिए अभिननन्‍्दन दे गए हैं, पर आप चुप बैठे हैं। कहिए, जो कुछ भी आपके मन मे हो । क्या इस अमृत को पीकर मैं अमर नही बनूृंगा ?” महामत्री---“यह अमृत तो है, महाराज ! परन्तु सच्चा अमरत्व इससे नही मिलेगा ।” राजा--/ह ! क्‍या कहा ? क्या यह सच्चा अमरत्व प्रदान नहीं करेगा | तव क्या किया जाय ट” महामत्री--“नि सदेह, महाराज, ऐसी ही बात है। इस अमृत को तो फेंक देना चाहिए ।” सभा में सन्नाटा छा गया । हजारो भाँखें और कान महामत्री की ओर लग गए । कुछ लोग शोर मचाने लगे । कुछ आवाजें आई--महामन्नी की बुद्धि स्या गई है । इनकी वुद्धि पर पाला पड गया है । कहते है--/इस अमृत को फेक दो | ऐसा मत होने दो, राजन्‌ ! कितने वर्षों की साधना के बाद प्रथम वार यह अमृत बना है ।” राजा ने सवको शात रहने का आदेश दिया और महामत्री से पूछा--“मत्री जी | आप मेरे हितैपी हैं, कया आप इसका रहस्य बताएँगे ?” महामत्री---/अवश्य महाराज ! मैं वताऊँगा, सच्चा अमृत कैसा होता है, कौन-मा है २?” राजा--“कहिए, शीघ्र कहिए ।” महामत्नी-- 'हजारो वर्ष बीत गए, परकार्यार्थ जीतेजी देह को समाप्त करके ४० दान महत्व और स्वरूप हड्डियों का दान करने वाले महर्पि दधीचि को विश्व याद करता है या नहीं ? एक शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए अपनी काया को समपित बरने वाले द्विवि राजा (या मेघरथ) का स्मरण लोग करते हैं या नही ? प्रृथ्वी का दान करने वाले वलि अमर हैं या नही ? इसी प्रकार दुप्काल पीढित भूखी जनता के लिए अन्नदान देने वाले राजा रतिदेव का नाम अमर है या नही, महाराज ?” “जरूर है, महामत्रीजी ?” राजा ने उत्सुकतापूर्वक कहा । महामन्नी--“तो महाराज | सच्चा अमरत्व तो सृष्टि के पीडित मानवों के कल्याणार्थ अपने आपको समपित कर देने, अपना सर्वस्व दीनदु लियो, अभावग्रस्तो को दान कर देने और अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु परहितार्थ अर्पेण कर देने वाले को मिलता है | इस दानरूपी अमृत से ही आप सच्चा अमरत्व प्राप्त कर सकेंगे। यही सच्चा अमृत है ।” राजा--तब फिर में क्या करूँ ?” “आपके पास जो अपार घन है, सत्ता है, उसे करोडो लोगों के हित के लिए लाखो अनाथो, अपाहिजो, असहायो, अभावश्रस्तो एवं पीडितो की सेवा मे खर्च कीजिए | जीवन का प्रतिक्षण विश्वकल्याण में योगदान दीजिए । महाराज ! यही (दान ही)सच्चा अमृत है। जिसे क्रियान्वित करके जाप अमर हो जाएँगे । इस अमृत को ढोल दीजिए ।” इस वार विरोध मे एक भी स्वर न उठा । राजा ने वह अमृत वही का वही गिरा दिया और सच्चा अमृत प्राप्त करने के लिए दानशालाएँ खुलवा दी । निष्कर्ष यह है कि (मृत को पीने से मनुप्य कदाचित्‌ अमर बन जाता होगा, लेकिन दानरूपी अमृत का सेवन करने वाला निश्चय ही अमर हो जाता है, दान लेने वाला भी दानामृत पाकर अमर हो जाता है। इसीलिए ऋग्वेद मे, ऋषियो ने एक स्वर से इसी बात का समर्थन किया है- 'वक्षिणावन्तो5मृत भजन्ते” (दान देने वाले और दान लेने वाले दोनो अमृत को प्राप्त करते हैं 9) दान वास्तव मे मानव-जीवन के लिए ममृत है। जब मलुप्य भूख से पीडित हो, प्यास से छटपटा रहा हो, बाढ या भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोपो से व्यथित हो, उस समय उसे मिला हुआ दान क्या अमृत से कम है ? वह दान मानव को'अमृत की तरह सजीवित कर देता है | पीडितो ओर पददलितो के लिए तो दान अमृत से भी बढकर काम करता है। एक बार गाँधीजी दक्षिण भारत के गुरुवापुर से कालीकट होकर उत्तरी मलाबार कि और वहाँ से पुन कालीकट आकर वे कालीकट से ५० मील दूर, सुन्दर पव॑तीय प्रदेश से युक्त कुलपटा पहुँचे । इस तालुके मे पर्वतीय अछूतो की सख्या ४२ हजार करीव है। इनमे १३ उपजातियाँ हैं। जिनमे परस्पर छुआ-छूत का भाव पाया दान जीवन के लिए अमृत ५१ जाता है। ये लोग खेतो और काफी के वगीचों में उस जमाने मे ३ पैसे प्रति दिन पर मजदूरी करते ये । गाँधीजी की सभा मे ये लोग सबके साथ बैठे थे। इन लोगो के पास बैठना भी साहस का कास था । कपडे मैले से काले हो गए थे, बाल बहुत बढे हुए थे, मैल़ा शरीर, भयकर बदयू आ रही थी | इन लोगो की दशा सुधारने के लिए इसी गाँव के एक दानशील जैन बन्धु श्री सुबैया गोडन नामक जमीदार ने कमर कसी औौर वे जब तक जिंदा रहे, तब तक इन ग़रीबो की खूब सेवा करते रहे | मरते समय उन्होने अपनी १०० एकड खेत की जमीन, एवं ६४५ एकड का बाग इन' पीडितो एव पददलितो को दे दी । महात्मा गाँधीजी ने इस जैनबन्धु के दान की प्रशसा करते हुए कहा था---“यह कोई ऐसा-वैसा दान नही है, यह तो महादान है, जो ऐसे पिछडें एव पददलितो के लिए अमृत रूप बना । नही तो ऐसे जगली प्रदेश मे कौन' इन पीडितो की पुकार सुनता ?” क्या यह दान पीडितो के लिए वरदान रूप अमृत नही है? क्‍या इस दाने से सुबैया गोडन अमर नही हो गया ? इस दान से पीडितो में नई जान था गयी । कभी-कभी ऐसे मौके पर थोडें-से दान का सहारा अमृत रूप बन जाता है। कई वार व्यक्ति अभाव से ग्रस्त होकर चिन्ता ही चिन्ता में भपकर रोग का शिकार बन जाता है। अगर उस समय दानामृत मिल जाता है तो वह मरते हुए व्यक्ति को जिला देता है, रोते हुए को हँसा देता है । धन्‍ जर्मनी में एक अत्यन्त दयालु राजा हो चुका है--सम्राट्‌ जोसतेफ । वह जनता के दु ख देखकर पिघल उठता था । कभी-कभी तो वह साधांरण-सी पोशाक पहनकर अकेला ही अपने नगर मे जनता की हालत देखने निकल पडता था । एक वार वह शहर की सडक पर साघारण वेप्र में घूम रहा था, तभी उसे एक छोटा-सा बालक मिला । उसे देखकर सम्राट जोसेफ रुक गये तो वह बोला--- “भाई साहब ! मेरी सहायता कीजिए मैं गरीव वालक हैँ ।” सज्ाद ने उसकी सूरत शक्ल देखकर अनुमान लगाया कि यह कोई कुलीन घर का विपत्तिग्रस्त लडका है | अत सम्नादू ने उससे कहा-- “बेटा ! तू भिखारी का जेडका तो भालूस नही होता, क्योकि तुझे भीख माँगने की कला नही आती । मालूम होता है, कुछ ही दिनो से तूने भीख माँगनी शुरू की है ।” यह सुनकर लडके की माँखो मे माँसू जा गये । वह रोते-रोते बौला-हाँ, भाई साहव ! मैंने तो क्या, मेरे कुल में भी किसी ने भीख नही माँगी, किन्तु दिन फिरते क्‍या देर लगती है ! समय आने पर मनुष्य वो सब कुछ वरना पढता है ।” लड़का यह सब कहता जाता और आँसुओ से सञ्जाद के चरण धोता जाता था । ६३330 प्यार से पूछा-- “बेटा ! जरा बताओ तो सही, तुम्हे मीख क्यों माँगनी पडर ॥' बालक ने विनयपूर्वक कहा--“भाई साहव । कुछ दिन हुए मेरे पूज्य पिताजी ५९ दान महत्व और स्वरूप का देहान्त दो गया । मुझे वे बहुत प्यार करते ये | हम दो भार हैं । एक मुझसे छोटा है | हमारे पास साने के लिए इस समय फुछ भी नहीं है । माताजी सल्त बीमार हैं । जो कुछ हमारे पास था, वह सब माताजी को बीमारी में सर्च हो चुका | हमारी सदद करने वाला भी इस समय कोई नही रहा | जो अपने थे, वे सीघें मुँह वात नहीं करते, सहायता की तो बात ही दूर रही । अब तो पेट भरना भी कठिन हो रहा है। दवाई के लिए भव एक पैसा भी नही रहा | डॉक्टर बिना पैसे के वात ही नहीं करते । मेरी माँ कई दिनो से बिलकुल भूसी है । हम दोनो भाई भी दो दिनो से मृले हैं। हमे छोटे वालक जानकर कोई मेहनत-मजदूरी के काम पर भी नही रखता। इसलिए विवश होकर आज मैं भीख माँगने निकला हूँ ।” बालक की करुणापूर्ण कहानी सुनकर सम्राट की आँसो में माँसू छलछला आए । सम्राट ने लडके के हाथ में कुछ रुपये देकर कहा--“जल्दी जाओ । डॉक्टर को बुलाकर अपनी माँ का इलाज करवाओ ।” लडका खुशी से फूला न समाया । वह अपनी माँ के लिए डॉक्टर को बुलाने चल पडा | जर्मन के सम्राट्‌ ने डॉक्टर को पोशाक पहनी ओर वे पूछते-पुछते उस गरीब बालक के घर पहुँच गये । वहाँ जाकर उसकी रुग्ण माता का हाल पूछा तथा डॉक्टर की तरह उसके रोग की जाँच की। अन्त मे कहा--“कोई चिन्ता न करो, सब ठीक हो जायगा।” लडके की माँ बोली--..डॉक्टर साहव ! कोई ऐसी दवा दीजिए, जिससे मैं जल्दी स्वस्थ हो जाऊँ और कुछ काम-घन्घा करके इन दोनो वालकों का पालन कर सकूँ। आज दु खी होकर मैंने सलडके को भीख माँगने के लिए भेजा है। न जाने वह कहाँ-कहाँ घकके खा रहा होगा ।” यह कहते-कहते उसका जी भर आया और वह फूंट-फूटकर रोने लगी । उसकी इस दशा को देखकर सम्राट्‌ की आँखो में भी आँसू उमड पडे, किन्तु वे उन्हे पलकों की वाँधो मे रोक कर घोले--"माता ! घबराओ सत | मैं ऐसी दवा दूंगा, जिससे तुम्हारा सव दु ख जाता रहेगा | किन्तु दवा लिखने के लिए एक कागज चाहिए ।” गरीब लडके की माँ ने कागज का एक टुकडा सम्राट्‌ के आगे बढा दिया। सम्राट्‌ ने उस पर बडी उदारता से दवाई का नाम लिख दिया--“दवाई--इस दु खी परिवार को शाही खजाने से शीक्र ही दस हजार रुपये सहायता के रूप मे दिये जाँय ।” हस्ताक्षर सतज्ाद जोसेफ' यह चुरखा लिखकर रुण महिला की खाट पर रख दिया और सम्रादू चल दिये। बाहर से भीख भाँगकर जब उसका लडका लौटा तो उसकी माँ ने कहा-- “बेटा | यह लो रोग की दवाई | अभी-अभी डॉक्टर साहब लिखकर गए हैं | जाओ, भीख से कुछ पैसे मिले हो तो क्षटपट दवा ले आओ, बेटा |” दान जीवन के लिए ममृत._ ५३ लडके ने वह कागज उठाकर पढा तो उसका रोम-रोम खिल उठा। वह झट बोल उठा--'माँ ! यह नुसला लिखने वाला कोई साधारण डॉक्टर नही, वह तो स्वय सम्राट जोसेफ थे, जिन्होने लिखा है---फौरन दस हजार रुपये शाही खजाने से दे दिये जाँय ।” यह वात सुनते ही उसकी बुढिया माँ प्रसन्नता से उछल पडी और उसके रोम- रोम से आशीर्वाद वरस पड । सचमुच इस दवा के मिल जाने के वाद उस सारे परिवार का दुख सदा के लिए समाप्त हो गया । उस परिवार में नये जीवन का सचार हो गया । इसीलिए दान को अमृत कहा है। दानामृत से रुप्ण, अभाव-पीडित परिवार मे नई चेतना आ गयी, सम्राद्‌ जोसेफ के दान ने अमृत का काम किया | इसी प्रकार दान ऐसा अमृत है कि मुर्झाए, उदास और व्यथाग्रस्त चेहरे में नये प्राण फूंक देता है। एक वार जब दान से गिरा हुआ, मृत-प्राय व्यक्ति ऊपर उठ जाता है तो फिर उसमे नई ताकत आ जाती है। वह अपने आपको सभाल लेता है। दान का अमृत पाकर मृतप्राय व्यक्ति मे भी जान आ जाती है। पीढित व्यक्ति के भुरझाएं हुए प्राणो मे नवजीवन का सचार हो जाता है। इस प्रकार दान मानव-जीवन के सभी क्षेत्रों मे नई आशा, नई चेतना और नई उत्साहतरग पैदा कर देता है। वह जीवन के हर मोड पर अमृत का-सा अद्भुत कार्य करता है। इसमे कोई सन्देह नही । दान से हृदयपरिवतंन प्राय यह देखा जाता है कि मनुष्य जब किसी अभाव से पीडित होता है, अथवा किसी प्रकार के प्राकृतिक प्रकोप या विपत्ति का शिकार बन जाता है, तब उसकी बुद्धि डावाडोल हो जाती है, उस समय उसकी बुद्धि को स्थिर करने और उसके हृदय को बदलने मे समर्थ दान ही हो सकता है। जब उक्त विपदुग्रस्त व्यक्ति को कोई सहायता नही मिलती है, वह सब ओर से निराश हो जाता है, तब उसकी वृत्ति अन्याय, अनीति या चोरी जैसे अनाचरणीय दुष्कर्म करने पर उतारू हो जाती है । बगला में एक कहावत प्रसिद्ध है-- “अमाजे स्वभाव --अर्थात्‌ अभाव मे आादमी का स्वभाव बदल जाता है। अभाव के समय अपने स्वभाव में स्थिर रखने वाला दान ही है । कई दफा बाहर से अभाव न होने पर भी मानसिक अभाव मनुष्य के मन मे पैदा हो जाता है, वह दूसरों की बढती देखकर मन मे अभाव या हीनता को महसूस करता है, अगर उस समय उसकी विक्ठत वृत्ति को कोई बदल सकता है तो दान ही । मोरबी (सौराष्ट्र) के प्रसिद्ध विद्वान प० शकरलाल भाहेश्वर सोराष्ट्र के जाने- ५४ दान : महत्व और स्वलूप माने विद्वानों मे से एक थे। उनकी विशेषता तो यह थी फि विद्धत्ता के माथ-माय उनमें हृदय की उदारता भी थी । उनका यह मानना था कि मनुष्य पढ़ने के साव- साथ अपने जीवन में धर्माचरण भी करे । एक दिन शास्त्री जी अन्दर के कमरे भें बैठे गीतापाठ कर रहे ये | तमी एक ब्राह्मण मिक्षक द्वार पर आया और 'लदक्ष्मीनारायण प्रमनन्‍्न हरे ! कहता हुआ आटा मागने आया । कुछ देर तक प्रतीक्षा मे सडा रहा | जब घर में से कोई उसे आा देने न आया तो उसने सोचा--धर मे कोई नही होगा। शास्त्रीजी उसकी ह्दि में नही भाएं। अत उसने इधर-उधर देखा ओर घर की खिड़की के पास नीचे के जीने पर ट्ट्टी जाने का एक पीतल का लोटा पडा था, उसे उठाया और चट से अपनी झोली में डाल दिया । फिर आटा लेने के लिए कुछ देर खडा रहा। कमरे के एक कोने मे गीतापाठ करके उठते हुए शास्त्री जी की हृष्टि अकस्मात्‌ सामने की खिंडकी पर पडी, उन्होने ब्राह्मण भिक्षुक को लोटा उठा कर झोली मे डालते देख लिया। किन्तु हल्ला नहीं मचाया । सोचा---'वेचारे को जरूरत होगी । भूखा होगा, इसलिए लोटा उठा लिया होगा । दूसरा होता तो डाटता-फटकारता, मारपीट करता और पुलिस के सुपुर्दे कर देता, मगर शास्त्रीजी ने गीता का समत्वयोग अपने में रमा लिया था। उन्होने तुरन्त अपने नौकर को बुलाकर बाजार से एक नई थाली, एक लोट और एक कटोरी लाने को कहा । नौकर को उधर भेजकर शास्त्रीजी उस ब्राह्मण भिक्षुक से प्रेमपूर्वक बातें करने लगे । कुछ ही देर मे नौकर उक्त तीनो चीजें लेकर आ गया। शास्त्रीजी ने थाली मे आाठा लोटे मे घी और कटोरी में दाल भर कर तीनो चीजें भिक्षुक ब्राह्मण के चरणों मे रख कर कहा--“लो, महाराज ! ये लोटा, थाली और कटोरा ले लो और जो पीतल का ट्ट्टी जाने का गदा लोटा आपकी श्लोली मे पडा है, उसे निकाल कर वही रख दो ।” ब्राह्मण भिक्षुक तो भोचकक्‍्का-सा हो गया, उसे काटो तो खून नही! शर्म के मारे उसका मुंह नीचा हो गया । उसने घीरे से वह लोटा लिकाल कर पहले जहाँ पडा था, वही चुपचाप रख दिया । शास्त्रीजी ने उसे प्रेम से कहा--“भुंदेव ! आप भी ब्राह्मण भुलोत्पन्न हैं, मैं भो उसी कुल का हूँ । हम सब बन्घु हैं। इसलिए आप किसी बात का सकोच न करें, जिस चीज की आपको जरूरत हो, मुझे कहें । परन्तु ऐसा कार्य कदापि न करना, जिससे हमारा कूल कलकित हो ) ऐसा करने से ब्राह्मण जाति बिगढती है। क्या आपके पास लोटा नही था ?” भिक्षुक ने आँखों मे आसू लाते हुए कहा--मुझे क्षमा करें । मुझसे बहुत बडी गलती हो गई। भेरे पास लोटा नही था, पे बात माह है। किन्तु मैरी दृ्ि चोरी की हो गई। परन्तु आपकी उदारता ने, आपके इस दान ने मेरे हृदय को क्षकक्षोर दिया। मैं आज से जापके सामने प्रतिज्ञा करता है, कि कभी इस प्रकार से चोरी नही करूंगा | अगर किसी चीज की जरूरत होगी तो मैं आपसे कहेंगा ।” ५६ दान महत्व और स्वरूप की । पर श्रावक अपने आत्मचिन्तन में लीन रहा और चोरी के कारण-- गरीबो सम्रह- खोरी पर ही विचार करता रहा। प्रात जब उसे मालूम हुआ कि चोर रंगे हाथी पक गये हैं, वे जेल मे बद हैं तो राजा से प्रार्थना कर चोरो को छुडवाया भौर चुराया हुआ सब घन उन्हे सोपकर कहा--तुम गरीबी के कारण चोर बने हो, एसलिए यह धन लो, और आज से चोरी छोड दो । चोर की माँ तो गरीबी है, वही मनृष्य को चोर डाकू के रूप में जन्म देती है। दान की शक्ति उसी चोर की मा--गरीबी, सम्रहपोरी को समाप्त करती है। नि सन्‍्देह, दान हृदयपरिवर्तन में वमत्कारी ढंग से सहयोगी दोता है। इसलिए बौद्धघर्म ग्रन्थ विसुद्धमग्गों (६।३६) में स्पष्ट कहा है-- अदन्तदमन दान, दान सब्वत्यलाधक दान अदान्त (दमन न किये हुए व्यक्ति) का दमन करने वाला तथा सर्वाये- साधक है। दान से केवल चोरो का ही नही, लुटेरो, वदमाशो, वेश्याओ का भी जीवन बदला है, उनके जीवन में दान से नया प्रकाश आया है, जीवन में व्याप्त पुरानी आदतें, दुव्यंसन ओर बुराइयाँ नष्ट होकर वे अच्छाइयो के रास्ते पर चल पडे हैं। दान ने उन्हे अपने आपको बदलने को वाघ्य कर दिया, वे दान देना प्रारम्भ करने से पहले अपने जीवन को माजने मे प्रवृत्त हो गए। यह दान का ही अदुगुत प्रभाव था कि राजसी ठाठबाठ से रहने वाले राजा हरिश्चन्द्र को ऋषि विश्वामित्र को राज्य दान देने के वाद अपने जीवन को अत्यन्त श्रमनिष्ठ, सादगी और सयम से ओतप्रोत बनाना पडा । अमेरिका के धनकुवेर डेल कानेंगी ने जब दान प्रवृत्ति शुरू की तो स्वय तमाम मादक द्रव्यो का परित्याग कर दिया । उन्होने स्वय एक बार कहा थां-7 “मेरा मादकनिषेघ भाषण तब प्रभावशाली एवं सर्वोत्तम हुआ, जबकि मैंने स्वय भद्यत्याग करके अपनी जागीर की आय में से सभी मादक द्रव्यो का सर्वेथा परित्याग करने वाले सभी ्रमिको को दश प्रतिशत पुरस्कार वृत्ति देने की घोषणा की थी ।” इसलिए दान जीवन परिवर्तन का अचूक उपाय है । दान से जीवन-शुद्धि ओर सनन्‍्तोष एक वेश्या थी । उसके पास सौन्दर्य था। जवानी थी और वैभव का भी कोई पार न था। सैकड़ों युवक उसके इशारे पर नाचते थे। परन्तु उसे अपनी वेश्यावृत्ति से सन्‍्तोष नही था, उसके दिल मे अशान्ति थी । बह दुनिया का शिकार करती थी, जेकिन वास्तव में दुनिया ही उसका शिकार करती थी । उसने तथागत बुद्ध के चरणो मे पहुंचकर शान्ति ओर सन्तोष का मार्ग पूछा तो उन्होने कहा-- “शान्ति और सन्तोप का मार्ग तुम्हे तभी प्राप्त हो सकता है, जब तुम अपने तन- मन-घन को इस वेश्यावृत्ति से मुक्त कर दो, जब तक छुम अपने तन, मन और धन को इसी प्रकार के कसब कमाने और अपने शरीर को वेचने मे लगाये रखोगी, तब दान जीवन के लिए अमृत प्र्छ तक तुम्हे शान्ति का वह सात्विक मार्ग प्राप्त नही हो सकता ॥” बुद्ध के उपदेश से उसने अपनी वेश्यावृत्ति छोड दी और सादगी से जीवन बिताने लगी । एक दिन वह पुन ॒तथागत बुद्ध के चरणों मे पहुँची और उनसे निवेदन किया--“भगवन्‌ | अब मै अपना शरीर बेचने का घधा छोड चुकी हूँ । सात्विक जीवन बिताती हूँ । मुझे ऐसा भार्ग बताइए, जिससे शान्ति मिले ।” बुद्ध ने उसे बताया कि नि स्वार्थभाव से दान का भाग ही ऐसा उत्तम है, जिसे अपनाने पर तुम्हारे तन-मन को शान्ति मिलेगी, तुम्हारा घन शुभकार्यों मे लगेगा, जिससे तुम्हे सनन्‍्तोष प्राप्त होगा ।” बस, उसी दिन से उस भूतपूर्व वेश्या ने दानशालाएँ खुलवादी, रास्ते पर कई जगह यात्रियों के ठहरने के लिए घमंशालाएँ आदि बनवादी, गरीब, विधवा एवं अनाथ स्त्रियों के खानपान का प्रबन्ध कर दिया । गरीबो को वस्त्र, अनाज या अन्य आवश्यक वस्तुएँ देती रहती । मध्यमवर्गीय कुलीन लोग, जो किसी के आगे हाथ नही पसार सकते थे, उन्हे वह चुपचाप मदद करती थी । इस प्रकार दान का मार्ग ग्रहण करने से पहले उसका जीवन शुद्ध बन गया और दान के बाद भी उसका धर्माचरण मे जीवन रग गया । इस दानप्रवृत्ति से उसे बहुत ही सनन्‍्तोष एवं भात्म- शान्ति मिलने लगी। दानप्रवृत्ति के कारण घर-घर मे उसका नाम फैल गया। इतिहास मे वह आम्रपाली वेश्या के नाम से प्रसिद्ध हुई। बाद में उसने तथागत बुद्ध के चरणों मे अपनी सारी सम्पत्ति अर्पित कर दी, और भिक्षुणी बनकर अपने जीवन की पूर्णतया शुद्धि करली । इस प्रकार दान से व्यक्ति की जीवन शुद्धि और आत्मशान्ति प्राप्त होती है । व्यक्ति अपने तन-मन-घन को दानप्रवृत्ति में लगाकर परम सन्तोष का अनुभव करता है । पे दान से सारे परिवार का सुधार आप और हम देखते हँ--परिवारों मे अक्सर स्वार्थभावना क्षुद्रता और लोभवृत्ति के कारण आए दिन चख-चख होती रहती है, जरा-जरा-सी बात पर महाभारत मच जाता है, किन्तु उसी परिवार मे अगर किसी व्यक्ति भे उदारता, दूसरो को अपनी ओर से देने की वृत्ति-प्रवृत्ति हो, स्वार्थ त्याग की भावना हो तो उसका असर सघर्ष और कलह करने वालो पर भी पडता है, किसी कारण को लेकर हुआ ग्रहकलह भी शान्त हो जाता है और सारे परिवार मे सुव्यवस्था और सुख- शान्ति बढ जाती है। और गृहस्थ जीवन मे पारस्परिक प्रेमवृद्धि के कारण लक्ष्मी भी आकर अपने बसेरा वही कर लेती है। इस तरह दान परिवार और समाज के सुधार में भी महत्त्वपूर्ण हिस्सा अदा करता है। एक बडा परिवार था। उसमे पति-पत्नी, ५ पुत्र, दो पुत्रियाँ और ५ पुत्र- वधुएँ थी। परन्तु परिवार मे आए दिन काम के लिए बहुओ मे परस्पर झगडा होता रहता था । परस्पर प्रेम का अभाव, हर्ष्या, द्वंघ एवं स्वार्थंभाव होने से घर मे धरू८ध दान महत्व और स्वरप अशान्ति का राज्य था। सबसे छोटी वहू ने शादी के वाद कुछ द्वी दिन हुए इस घर में प्रवेश किया तो वह प्रतिदिन के ग्रहकलह और अशान्ति को देखकर घबरा उठी । वह वहू सुशिक्षित सुसस्कारी और उदार थी । उसने मत ही मन भगवान्‌ में प्राथना की--भगवन्‌ ! मैं इस अशान्तिमय वातावरण मे बसे रहेंगी, कैसे जीवन जीऊेंगी ? कोई रास्ता बताइए, जिससे मैं शान्ति से रह सर्वे ।” प्रार्यंना फरते-करते उसकी आँखों से अश्रुधारा बह चली, अचानक उसके हृदय में अपने प्रश्व का समृचित उत्तर स्फूरित हुआ--“'इस घर के अशुद्ध वातावरण को बदलने के लिए ही तू इस परिवार में आई है, अत स्वार्थत्याग, श्रम, घन एव वस्त्रादि के दान का मार्ग ही तेरे लिए सर्वोपरि है, इसी से परिवार मे शान्ति हो सकती है ।” वस, उम्र पारिवारिक अशान्ति हे के निवारण की असली कुँजी मिल गई। उसने सास से विनयपूर्वक कह-सुनकर सुबह-शाम रसोई बनाने और तथा धर के अन्य कार्य अपने जिम्में ले लिए। उसकी सास और जिठानियो ने जब उससे पूछा कि तू अकेली सारे कार्य अपने ऊपर क्यो लेती है? तब उसमे यही कहा कि “मुझे श्रम के कार्य करने में आनन्द आता है, आलस्य निवारण भी हो जाता है ।” जिठानियाँ अपनी छोटी देवरानी के द्वारा श्रमदान की प्रवृत्ति देख-देख कर प्रसन्न होती, उनके मन मे देवरानी की उदारता को देख कर विचार आया कि हम तो काम करने भें आनाकानी करती या बहाना बनाती, मगर यह अकेली सारा कार्ये स्फूरत से कर लेती है। धीरे-धीरे उसकी जिठानियो ने भी परस्पर झगडा करना बन्द फरके स्वयमेव श्रम के कार्य करने लगी। एक वार उसके ससुर प्रत्येक बहू को देने के लिए १२-१२ साडियाँ लाए। उसने अपने हिस्से की बारहो साडियाँ अपनी जिठा- नियो और ननदो को आग्रहपूर्वक दे दी । पूछने पर कहा--“मेरे पास बहुत साडियाँ पडी हैं, मुझे जरूरत नही है। फिर बढिया साडी पहिनने से मेहनत के काम करने का जी नही होता । छोटी बहू की इस उदारवृत्ति का भी जिठानियो पर बहुत प्रभाव पडा । दूसरे ही साल व्यापार मे अच्छी कमाई होने से उसके ससूर ने सब बहुओ के लिए गहने बनवाए। परन्तु छोटी बहू ने अपने हिस्से के सब गहने अपनी जिठानियो को दे दिये। इससे और भी ज्यादा प्रभाव उन पर पडा | अब क्या था ? छोटी बहू की इस प्रकार की उदारता और अपनी चीज जिठानियो को दे देने की प्रवृत्ति ने उनके हृदय को बदल दिया। जिठानियो में अब स्वार्थ त्याग एवं मेहनत के काम करने की वृत्ति बढ गई, और एक ही वर्ष मे घर का वातावरण शान्तिमय, प्रेममय और उदार बन गया । छोटी बहू ने अपने परिवार मे ही इस प्रकार की दानभ्रवृत्ति चलाई ही थी, भास-पास के क्षेत्र मे भी भुखो, पीडितो एव दु खियो को खुले हाथो अन्न-वस्त्र आदि का दान भी करती थी । परन्तु उसके इस पारिवारिक क्षेत्र के दान ने सास तथा जेठानी व ननद के जीवन में अचूक परिवर्तन कर दिया । उनका पारस्परिक मनोमालिन्य, दान जीवन के लिए अमृत. ४५६ झगड़ा और बात-वात मे किसी काम के लिए चखचख अथवा तृन-तू-मैं-मैं मब नही होती । कोई भी वहू काम से जी नही चुराती । घर की व्यवस्था अच्छी हुई, घर में सूख-शान्ति का राज्य हो गया । इस पारिवारिक शाति का रहस्य क्‍या है ? बाप अगर अपने मन से ही इसका उत्तर पूछेंगे तो आत्मा से एक तेज आवाज उठती सुनाई देगी, स्वार्थत्याग । अपने स्वार्थ और सुख का त्याग कर डालना ही तो उत्तम दान है, और उसी से पारिवारिक शात्ति का राजमार्ग खुलता है। यह है दान से परिवार मे सुघार का उदाहरण दान से गृहुकलह और दारिद्रय फा निवारण दान में अनेक गुण निहित हैं । दान से ग्रहकलह भी शात हो जाता है। प्राय देखा गया है कि ग्रहकलह रूप वीमारी की जड गरीबी हैं। दारिद्रय प्रभवा दोषा--- कलह, अभशाति बौर झगडें का मूल दरिद्रता है । आवेश के कारण परिवार मे दरिद्धता को लेकर कई बार ग्रहकलह छिड जाता है, परिवार के सदस्य एक-दूसरे को कोसने लगते हैं जौर मारपीट तक की नौबत आ जाती है। उस समय दान की शीतल वारि- घारा ही उस ग्रहकलह की आग को बुझा सकती है । राजा भोज के राज्य मे एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह निधन होने पर भी स्वाभिमानी जौर सतोपी था । धन-सग्रह करने के उद्देश्य से वह कभी किसी से मायता नही था, न अपमानित होकर भिक्षा लेता | प्राय भिक्षा पर निर्वाह करता था । घर मे तीन प्राणी घथे--वहू, उसकी पत्नी और माता । पर्याप्त भिक्षा न मिलने पर कभी-कभी भूखे पेट रह जाना पडता था । एक दिन की वात है । ब्राह्मण बहुत घूमा, धक गया, लेकिन कही भिक्षान मिली । रत खाली हाथ वापस लौठ बाया। ब्राह्मण ने सोचा--'मूल बहुत जोर क्नी लगी है । स्त्री ने कुछ बचाया होगा तो वह खिलाएगी ।” यो सोच कर घर नौट बाया । इघर उसकी माता ओर पत्नी उसकी प्रतोज्ना कर रही थो | मगर ब्राह्मण को खाली हाय देख निराम हो गयी । ब्राह्मण ने बाते हो पत्नी ने कहा--“लाओ, कद हो तो खाने को दो ।” पत्नी--' रछुछ लाए हो तो वना दूं। घर में तो कुछ भी नही है ।” ब्राह्मण वोला--“मैं हो रोड लाता ही हूँ । जाज नही मिला तो क्‍या हुआ ? क्या जुत्री होकर एक दिन जग भी भोज्न नही दे सकती ?” द्राह्मपी जरा गर्म होकर वोलो--"क्भी एक दिन हे ज्यादा का भोजन साये हो तो मुझसे कहो कि समाल कर क्यो नही रन ? लाकर देना नही, मायना मौर मेरे घर मे तेरे जैसी झाईं तो अब खाने को कैसे मिलता ? ब्लोई मुल्लयी बानी तो कमा लाता । मगर तू अ्माणिनी ऐसी मिली कि मटकते-मटकते हैरान हो गया । चार कु रा] दाने अन्त न मित्र सका। तू अर्ंगिनी है, तु्ले नी रृछ जरना मेहनन-मजदसी करने ६० दान महत्व भौर स्वरूप तुझे भी कूछ बचाकर रखना चाहिए | कदाचित्‌ कोई अतिथि आा जाय तो !” ब्राठाणी का पारा गर्मे हो गया | वह बोली--बस, बहुत हो गया । अपनी जीम बन्द कर लो। घिनकार है, उन सासूजी को, जिन्होंने तुम्हे जन्म दिया । में अभागिनी थी तो नही, पर तुम्हारी माता तो भाग्यशालिनी है उसके भाग्य से भी कुछ मिला होता । दरअसल, वही अभागिनी है, जिसने तुम सरीसे सपुत पैदा किए | में कप्ट पा रही हैं ।/ ब्राह्मण अत्यन्त कुद्ध होकर वोला---'तरे माँ-बाप ने तुझे खब पैदा किया है, जो अपनी सास के लिए ऐसे शब्द घोलती है। निर्लेज्जे | कुछ शर्म भी नहीं।” यो कहर ब्राह्मण पत्नी को पीटने लगा। ब्राह्मणी चिल्लाई--"हाय ! वचाओ-वचाओं, दौढों कोई ।” ब्राह्मणी के सिर से खून वहने लगा । स्त्री की पुकार सुनकर पुलिस भा गईं। उसने पूछताछ की तो ब्राह्मणी बोली-- देखो, एइन्होते वितना मारा है, मेरे सिर से खून निकल आया । घर मे खाने को है नही, मुझसे खाना मागते हैं। इस राज्य में ऐसे भी लोग बसते हैं, जो विवाह कर लेते हैं, पर स्त्री की मिट्टी पलीद करते हैं। पृष्ठ लो उनसे ।” पुलिस ने दोनो ओर की जाच करके कहा--“तुमने निर्दोष स्त्री पर अत्याचार किया है, इसलिए पकडे जाते हो ।” पुलिस ने ब्राह्मण को गिरफ्तार करके कोतवाल के सामने पेश किया। ब्राह्मण मे सोचा--“मैंने क्रीध मे आकर पत्सी को पीट तो दिया, लेकिन अब कहूँगा क्या ? पुलिस या कोतवाल के सामने अपनी कष्टकथा कहने से सिवाय लज्जित होने को और लाभ भी क्या है ? अत राजा के सिवाय किसी से कुछ भी ने कहूँगा ।” कोतवाल ने जब ब्राह्मण से कहा कि “अपने वयान लिखाओ, तुमने क्या किया ? किस अपराध में पकड़ें गए हो?” इस पर ब्राह्मण बोला-- “मैं राजा भोज को छोडकर किसी के सामने बयान न दूँगा ।/ कोतवाल ने बहुत डाटा-फटकारा, ज्ेकिन वह टस से मस न हुआ । आखिर ब्राह्मण को जिही समझकर भहाराजा भोज के सामने उसे पेश किया । राजा भोज राजसभा मे सिंहासन पर बैठे थे। क्रमश अपराधी उनके सामने पेश किये जाते थे। सयोगवश आज सबसे पहला नम्बर इसी ब्राह्मण का था | राजा मे ब्राह्मण के मामले मे सारी बात सरकारी कर्मचारी से पूछताछ करके ब्राह्मण से पूछा-- क्या यह बात ठीक है ?” ब्राह्मण बोला--भौर सब बात तो ठीक है, पर मुझे ये ब्राह्मण बता रहे हैं, पर मैं ब्राह्मण नही चाण्डाल हूँ । भीतरी बात का इन्हे पता नही । जो ब्राह्मण होगा, वह आपके सामने अभियुक्त बनकर नही आएगा | मुझ् मे चाडाल के लक्षण हैं, महाराज !” राजा ने कहा--“तुम ब्राह्मण हो या चाण्डाल, जो अपराध करेगा, वह दण्ड पाएगा । बोलो तुमने अपनी स्त्री को क्यो मारा ?” ब्राह्मण पढा-लिखा था। वह बोला--“राजत्‌ ! भेरी बात आप सुन लीजिए, फिर जिसका कसूर हो, उसे दण्ड दीजिए ।” राजा---“क्या कहना चाहते हो, कहो |” दान जीवन के लिए अमृत ६१ ब्राह्मण बोला-- “अस्बा तुष्यति न सया, न तया, साउपि नाम्बया ने सया। अहमपि न तया न तथा, चद राजन्‌ ! फस्य दोषोध्यम्‌ ॥ --मेरी माँ न मुझसे खुश है न पत्नी से, पत्नी भी न माँ से खुश है न मुझसे, और मैं भी उन दोनो से खुश नही हूँ, राजन्‌ ! आप ही सोच लें, इसमे किसका दोष है ? राजा व्राह्मण की बात से बहुत प्रभावित हुआ। बोला--'मैं सब समझ गया ।” शीघ्र ही राजा ने भडारी को आज्ञा दी--“इस ब्राह्मण को एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दे दो ।” राजाज्ञा सुनकर भडारी आश्चयं में पड गया। सोचा--“स्त्री को पीटा, जिसके बदले एक हजार मुहरें |” राजा भण्डारी की मुखमुद्रा देखकर भाव ताड गए । वोले---' तुम्हे क्‍या शका है ? आश्चय क्यो है ? कहो !” भण्डारी--“स्त्री को पीटने के वदले एक हजार मुहरें देने की वात नगर में फैल जाएगी, तो बेचारी स्त्रियों पर घोर सकट टूट पडेगा । राज्य का खजाना खाली होने का अवसर आ जाएगा । सभी इनाम लेने दौडेंगे ।” राजा--“मेरी बात तुम्हारी समझ में नहीं भाई। जो आदमी खाता-पीता और सुखी है, वह अगर स्त्री को पीटेगा तो जरा भी रियायत नही की जाएगी, चाहे मेरा पुत्र ही क्यो न हो । मै स्त्री को पीटने के बदले ब्राह्मण को मुहरें नही दिलवा रहा हूँ, अपितु जिसका अपराध है, उसे ही दण्ड दे रहा हूँ । अगर कानून के अनुसार इसे कैद कर लूँगा तो हालत और भी खराब हो जायगी। अभी तो लड़ते हुए भी मा-बेटा, पत्नी तीनो एक साथ रहते हैं, फिर सब एक दुसरे को छोड जाएँगे । भण्डारी ! तुम इस न्नाह्मण की स्थिति पर विचार करो तुम्हे स्पष्ट प्रतीत होगा कि अपराध ब्राह्मण का या इसकी पत्नी का नहीं, अपराध दरिद्रता का है, उसी का मैंने दण्ड दिया है, ये मुहरे दिलाकर ।” भण्डारी का भ्रम दूर हो गया | उसने मन' ही मन राजा की प्रशसा की और एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ न्नाह्मण के सामने लाकर रख दी । राजा ने ब्राह्मण से कहा--“जिसका अपराध था, उसे दण्ड दिया गया है, लेकिन इस काण्ड की पुनरावृत्ति हुई तो फिर मैं तुम्हे भारी दण्ड दूंगा।” ब्राह्मम---“आपके उचित निर्णय की प्रशसा करने को मेरे पास शब्द नही हैं । अविप्य में अपराध हो तो मेरे शरीर के टुकडें टुकड़े करवा देना ।” ब्राह्मण स्वर्ण- मुद्राओं की थैली लेकर चला | उधर घर में सास-वहू के बीच कलह हो रहा था। सास कह रही थी--““तुने उससे ऐसा क्यो कहा ?” बहू कह रही थी--“उन्होने मुझसे ऐसा क्यो कहा ?” बस, इन्ही मूलसूत्रो पर भाष्य और टीका हो रही थी । इतने मे ही दुर से थैली लिये आता हुआ ब्राह्मण दिखाई दिया | उसे देखकर सास-वहू दोनो शान्त हो गई। दोनो को तसल्‍ली हुई कि आज तक कभी इतना अनाज घर में नही आया था, आज गृहस्वामी बोरी भर कर ला रहा है। नजदीक आने पर वोरी मे कुछ गोल-गोल चीजें दिखाई दी। दोनो ने सोचा--इतने पैसे हो, तो भी बहुत हैं । अब दोनो की लडाई बन्द हो चुकी । दोनो की विचारधारा पलटी | सास कहने लगी--“बेटे को वजन लग रहा ६२९ दान भहृत्व और स्वल्प होगा, मैं यैली ले लूँ।” बहू बोली--“आप बुद्ढी है, रहने दें, माँ ! मैं ले ले सास बोली--'वहू ! तुम्हारे सिर मे चोट लगी है, तुम रहने दो |” बहू मुरु बोली--इस मार में क्या है ? पति की भार और धी की नाल बराबर है ।” सास-बहू दोनो थैली लेने के लिए दौडी । दोनो को सामने बढते देख ब्राह्मण ने कहा---“'तुम दोनो कप्ट मत्त यह बोझ मेरे ही सिर पर रहने दो। अपने अपराध का भार मुझे ही उठाने यो कहता हुआ ब्राह्मण थैली लेकर घर मे प्रविष्ट हुआ । थैली नीचे रसी तो माँ और पत्नी दोनो इतनी रवर्ण मुद्राएँ देखकर भौंचवकी-सी रह गई । माँ थो “बेटा ! मेरे जैसी कठोर हृदया माता नही, तुझ-सा सपूत बेटा नही । मैं सदा स रही । तुझसे सीधे मूंह वात न की, अपना कर्तंव्यपालन न किया, मुझे क्षमा कर तभी गिडगिडाकर पत्नी बोली--“यह कसूर तो मेरा ही है, माँ ! मैं ' इस घर में आई, तब से सबको कप्ट में पडना पडा। मैंने पति और सास की अवज्ञा की । प्रिय वचन तक न' कहा, मुझे क्षमा करना ।” ब्राह्मण ने कहा--“ भाँ और प्रिये ! तुम दोनो मुझे क्षमा करना क॒र्तेव्य था--तुम्हारा पालन करना । सपूत बेटा वृद्धावस्था में माँ की सेवा कर सच्चा पति सदेव अपनी पत्नी की रक्षा करता है। पर मैंने दोनो मे से एक भी ' का पालन न किया । इस प्रकार तीनो ने अपनी-अपनी गलती स्वीकार करके दूसरे से क्षमा माँगी । ब्राह्मण ने अन्त मे कहा--“अब भूतकाल की वात भूल जा गुण गाओ राजा भोज के, जिन्होंने अपना असली दु ख जान लिया और एक। स्वणमुद्राएँ दान देकर अपना दरिद्रता का दु ख मिटा दिया । इस प्रकार वह ब्राह्मण कृटुम्ब शीघ्र ही सुधर गया । इसके पश्चात्‌ परस्पर कलह कभी नही हुआ । तीनो बडें प्रेम से रहने लगे और घर्मार करने लगे । सचमुत्र, दान में इतनी आकर्षण शक्ति है कि हसके कारण वर्षों पुराने 8 दरिद्रता के कारण होने वाला गृहकलह, परस्पर की खीचातानी भौर ₹ भावना शीघ्र ही मिट जाती है और दरिद्रता देवी तो दान को देखते ही पलायिर जाती है। कितनी गजब की शक्ति है, दान मे । जिस बात को लेकर कलह का सूतपात होता है, अगर उसका मूल पृकड दान के रूप मे उदारता की जाती है, तो कलह को शान्त हो ही जाता है, उससे भागे बढकर परस्पर प्रेमभाव, उदारता और सहयोग की भावना बढती है| कु ओर राग-द्वे पो के भड़कने के कारण जो अशुभ कर्मों का बन्ध प्रतिदिन होता 'र था, वह भी बन्द हो जाता है। घर मे शान्ति और सुख बढता है तो सम्पत्ति (लक भी बढती है, दरिद्रता भी दूर हो जाती है। तथा पारस्परिक ऐक्य और पारिवा। सगठन के कारण बडी से बडी विपत्ति माने पर सव मिलकर उसे निवारण कर स दान जीवन के लिए अमृत. ६३ हैं। धर्मांचरण करने का उत्साह भी बढ जाता है, चिन्ता और कलह के वातावरण में घर्मष्यान नही होता, प्राय आत्तं ध्यान ही होता है। इसके अतिरिक्त परिवार में सुख- शान्ति और परस्पर प्रीति होने से उसका असर समाज पर भी पडता है और उस परिवार की प्रतिष्ठा मे चार चाँद लग जाते है, इसमे कोई सन्देह नही । दात से पापो फा प्रायश्चित्त और उच्छेद दान से जब हृदय परिवतंन होता है, तब कुत पापों का नाश हो जाता है, और भविष्य अनीति, चोरी आदि पापकर्म करने की वृत्ति समाप्त हो जाती है । इसके अतिरिक्त पापकर्मों के प्रायश्चित्त के रूप में दान देता है, तब भी पापकर्मों का उच्छेद हो जाता है। इसलिए समकझ्षदार और विचारक व्यक्ति प्राय यही सोचता है कि मैं दान देकर किसी पर एहसान नही कर रहा हूँ, न वह दान देने का गर्व करता है, बल्कि समतावादी विचारक तो यही सोचता है कि मुझे किसी प्रकार की ढिढोरा पीटे विना एवं विज्ञापन किये बिना अपने पापकर्म के प्रायश्चित्त स्वरूप दान करना चाहिए । अगर मैंने दान नही क्या तो मेरा पापकर्म रूपी फोडा बढता जाएगा, और एक दिन मेरे जीवन को ही ले डूबेगा, इसलिए पापकर्म रूपी फोडे को दान का नश्तर लगाकर उसे फोड डालना ही मेरे लिए हितावह है | इसलिए रूस के 'पीटर दि ग्रेट ते अनुभव की आँच में तपी हुई वात कही है -- "दान असंख्य पापो का छेदन फरने वाला है ।' इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए रॉकफेलर का जीवन प्रसग प्रस्तुत किया जाता है-- जॉन डी रॉकफेलर' अमेरिका का एक धनाढ्य व्यक्ति था। उसने अनैतिकता से व्यापार में बहुत ही घन कमाया था | वह अपने नौकरो को बहुत सताता और उनसे कस कर काम लेता था। गरीबो को वह कभी दो पैसे की सदद नही करता था । वह इतना हृदयहीन था कि कभी किसी दु खी, भूखे या अभावग्रस्त को देखकर उसके हृदय मे करुणा, दया या सहानुभूति नही पैदा होती थी, न वह कभी किसी को दान देता था । एक वार रॉकफेलर बीमार पडा | उसके इलाज के लिए डॉक्टर पर डॉक्टर जाने लगे । मगर कोई भी डॉक्टर उसे स्वस्थ न कर सका । ज्यो-ज्यो इलाज करते गए, मर्ज बढता ही गया। रोग धीरे-घीरे सारे शरीर मे फैल गया । रॉकफेलर पीढा के सारे कराहता, बेचैन रहता, भगर परिवार, समाज या डॉक्टर या और कोई उसे, शान्ति न दे सका, वह अशान्त रहने लगा। उसके माता-पिता ने यह घोषणा कर दी कि “जो कोई इस बीमारी को मिटा देगा, उसे मैं अपनी सारी सम्पत्ति का मालिक बना दूँगा ।” रॉकफेलर ने भी कहा--“चाहे जितना धन ले लो, मेरा रोग मिटा दो” परन्तु रोग यो चाहने से मिट नही सकता था । वह तो पापकर्म का--असाता-वेदनीय ६४. दान ' भहत्व और स्वरूप कर्म का--फल था। उस फल को स्वय भोगे बिना कोई चारा नही था। हाँ, इतना जरूर है कि असातावेदनीय कर्म का क्षय या उपशम करने से अथवा सातावेदनीय कर्म की प्रवलता होने से भयकर रोग का दु ख मिट सकता था | रॉकफेलर की पत्नी, बच्चे सव उसकी शय्या के पास खड़े-खडे आँसो से अश्रुधारा वहूते, सहानुभूति भी दिखाते, पर रोग को मिटा नही सकते भौर न ही दुखया पीडा में हिस्सेदार वन सकते थे, न रोग को कम कर सकते ये । एक दिन रॉकफ़ेलर के मन में अपने प्रति सलानि, आत्मनिन्‍्दा और पश्चात्ताप की भावना पैदा हुईं । उसने सोचा-- मैंने अपने जीवन में कितने पापकर्मे कमाए, मैने पैसे को जीवन का सर्वस्व समझा । एक रातभर में मैने लाखो कमाए, पर किसी को एक पाई का भी दान नही दिया, आज तक मैंने धन इकट्ठा ही इकट्ठा किया । जिस धन के पीछे मुझे गे था कि मै इससे दुनिया के सभी कार्य कर सकता हूँ, वह आज मिथ्या सावित हो चुका है, वह घन मुझे अपने रोग से मुक्ति नही दिला सका। रत्नाकरपच्चीसी की भाषा मे वह अब पदताने लगा-- दत्त न दान, परिशीलित च, न शक्ति शील, न तपोन तप्तम्‌ । शुभो ने भावोष्प्यभवद्‌ भवेडस्मित्‌ विभो ! मया अआन्तमहो सुघंव ॥* --मैंने न तो किसी को कभी दान दिया, न ही यथाशक्ति शील का हृदय से पालन किया, न ही तपस्या की ओर न ही शुभ भाव पैदा हुए । अत विभो | मैं व्यर्थ ही इधर-उधर भटकता रहा । अपनी जिदगी मे कोई भी अच्छा कार्य नही किया । मैं इस अ्म में ही रहा कि मेरे पास घन ही धन है, फिर दु ख्र॒ कह टिकेगा, परन्तु मेरी सभी धारणाएँ निर्मल सिद्ध हुईं । प्रभो ! मैंने अपने जीवन में भयकर लूठ मचाई, परन्तु किसी भी दु खी या पीडित के आँसू नहीं पोछे, न ही किसी को सुख शान्ति पहुँचायी । पैसे को ही मैंने परमेश्वर समझा । किसी को दान देकर मैंने न किसी का दु ल मिटाया। इस रोग ने मेरी आँखें खोल दी है । अब मुझे यह भान हो गया कि मैं अगर किसी को सुख-शान्ति पहुँचाता तो मुझे आज सुख-शान्ति मिलती । मैंने तो दुसरो के काठे ही चुभोए, अब मुझे फूल कैसे मिल सकते हैं? अगर मैंने किसी दुसरे की आत्ो को ठडक पहुँचाई होती तो मुझे आज ठण्हक मिलती | यदि मैं दूसरे की राह का रोडा' न बनता तो मेरी सुख-शान्ति की राह मे आज रोडे न होते ।” इस अ्रकार पर्चात्ताप की घारा मे बहते रॉकफेलर ने अपने आाँसुओ के साथ ही बहुत-सा कालुब्य घो डाला | उसने मन ही मन सकल्‍प किया--'यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा या बच जाऊँ तो अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दूंगा। बस, यह मेरा हृढ निश्चय है।” यो सोचते-सोचते रॉकफेलर को अच्छी नीद आ गई । वह भुबह जागा तो अपने आपको स्वस्थ भौर स्फूति मान भहसूस करने लगा। उसको पत्नी ने कहा--“भाज तो आपको सुख की नींद भाई थी? ऐसी ग्राढ निद्रा इस दान जीवन के लिए अमृत ६५ बीमारी के बाद मैंने पहली दफा देखी है। मालूम होता है--डॉक्टर की दवा का प्रभाव हुआ है ।” रॉकफेलर---”प्रिये, तुम क्या कह रही हो ” अब तो मेरा रोग ही समाप्त हो गया है। मेरे रोग पर किसी भी डाक्टर की दवा का असर नही हुआ है । मेरे शुभ- भावरूपी डॉक्टर की दान रूपी औषध का प्रभाव हुआ है । इस दान की भावना से मेरे अधिकाश कलूषित कमें--अशुभकर्म हट गए, नष्ठ हो गए, मेरे पुण्य कर्म प्रबल होते गए, और वास्तविक शान्ति हो गई। दुसरो को दान देकर शान्ति पहुँचाने को भावना आई और स्वय को शान्ति मिल गई ।” रॉकफेलर प्रात काल नित्यकम से निवृत्त होकर बैठा ही था कि उसके मैनेजर का फोन आया--हम जो सुकहमा लड रहे थे, उसमे हार गए हैं। लाखो रुपये बर्बाद हो गए हैं।” मैनेजर सोच रहा था कि रॉकफेलर यह सुन कर बहुत ही करुद्ध होगा, लेकिन उसकी आशा के विपरीत रॉकफेलर बोला--कोई बात नहीं। जो कुछ हुआ सो ठीक है ।” मैनेजर को विश्वास नही हुआ कि यह ॒ रॉकफेलर बोल रहा है या और कोई ' उसने पूछा--“आप कौन बोल रहे है ?” रॉकफेलर--- मैं खुद रॉकफेलर बोल रहा हूँ ।” मैनेजर को बडा आश्चयं हुआ, इस आकस्मिक परिवततन पर । वह घर पर आकर रॉकफेलर से रूबरू मिला तब भी रॉकफेलर ने वही बात कही । परल्तु रॉकफेलर ने विशेष बात यह कही कि “जो भाया है, वह तो जाने वाला हो है। तुम एक काम करो | यहाँ जितनी भी सस्थाएँ हैं, उन सबकी लिस्ट बना कर मुझे दो | मैं सबको थोडा-थोडा दान देना चाहता हूँ ।” मेनेजर सभी संस्थाओं की सूची बनाकर लाया । रॉकफेलर ने उस सूची के अनुसार सभी सस्थाओ को चेक लिख कर भिजवा दिये । फिर रॉकफेलर ने अपने मैनेजर से कहा--'“मैंने अपनी जिंदगी मे जो आनन्द अभी तक प्राप्त नही किया था, वह आज इस दान के कारण मुझे प्राप्त हुआ है। मुझे इतनी आनन्द की अनुभूति होती है कि मैं रात-दिन दान देता ही रहें। एक मिनट भी दान के बिना खाली न रहूँ ।! मैनेजर यह सुनकर स्तब्घ रह गया। उसे यह लगा कि 'मालिक को आज हो क्या गया ? पहले तो एक पाई भी यह किसी को नही देते थे, किन्तु आज लाखो का दान ) इतना परिवतेन कैसे आया ?” परन्तु अफसोस ! रॉकफेलर के चेक जिन-जिन सस्थाओं के पास गए उन सब सस्थाओ ने उन्हे वापस कर दिए | कोई भी सस्था रॉकफेलर का पैसा लेने को तैयार न हुई । चक वापस करने के साथ उन्होने पत्र मे लिखा कि “यह अन्याय-अनी।/ते से कमाया हुआ पैसा हम अपने पास नहीं रख सकते । इससे हमारी वुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी ।” ६६ दान महत्व और स्वरूप रॉकफेलर को बडा दु ख हुआ कि “हाय | कोई मेरा पैसा लेना नहीं चाहतः कितना खराब है मेरा पैसा ? में भी अब उसे अपने पास कैसे रस सकता हूँ । उस ' सस्था के अधिकारियों से कहा--”आप समझे रहे हैं, वैसा अब में नही रहा। मैं अपने पापो का प्रायश्चित्त समझकर इस घन को दे रहा हूँ | मुझे इस दान के बदले * अपनी नामबरी या प्रसिद्धि की भी चाह नही है| मैं इस घन को नम्रभाव से सस्थ , के चरणों में अपित कर रहा हूँ । सस्था इसे स्त्रीकार कर म्ज्ले उपकृत करे ।” इतना कहने पर भी कोई सस्था लेने को तैयार न हुई । आसिरकार रॉकफेलर ने अपने एक मित्र को बुलाया, जिसका जीवन प्रामाणिक और न्यायनीतिपूर्ण या। रॉकर्फेलर ने उस मित्र से कहा--“मुझे इतने रुपये दान मे देने हैं, अपने पापो के प्रायम्चित्त के रूप से। भुझे नाम नही चाहिए । अत तुम ये रुपये ले जाओ और अपने नाम से अमुक- अमुक सस्थाओ को दे दो, और मुझे अपने पाप के बोझ से हलका करो ।” उसके मित्र ने वह सारा धन उन' सस्थाओ को दे दिया । अब संस्थाओं ने उस घन को स्वीकार कर लिया । रॉकफेलर को इस दान से बहुत आनन्द आया | इस प्रकार दान प्रायश्चित्त के रूप मे पापो के विच्छेद (नाश), आत्मशान्ति और आनन्द का कारण बना । आप देख चुके हैं कि दान का अमृत जीवन मे किस श्रकार से सूख, शाति, समता और आनन्द का स्रोत बहाता है, समाज में व्याप्त, विषमता, दरिद्रता दैन्य ओर दुखो के जहर को नष्ट करता है। और मानव को सचमुच में अमर जीवन प्रदान करने में समर्थ होता है । ड्र्र दान से आनन्द की प्राप्ति ऋषि-मुनियों ने यह अनुमवसिद्ध वात कही है कि इन्द्रिय-चिपयो के उपभोग से सच्चा आनन्द नही मिलता, जो कुछ मिलता है, वह क्षणिक और दु ख़बीज रूप होता है, सच्चा और स्थायी आनन्द दान से मिलता है। क्योकि प्राय दान स्वेच्छा से किया जाता है । अगर कोई चोर घन चुरा ले जाता है, डाकू लूट लेता है या ठग ठगी करके ले लेता है अथवा वेईमान या शोपक शोषण या बेईमानी करके घन-हरण कर लेता है अथवा किसी व्यर्थ के कार्य मे खर्च हो जाता है या खो जाता है तो मनुष्य को उसका बहुत ही दु ख होता है, पश्चात्ताप होता है, जबकि मनुष्य जब अपने हाथ से धन किसी को दान कर देता है, या किसी अच्छे कार्य मे खच कर देता है या पर- हितार्थ समर्पण कर देता है तो उसे उसका प्राय दुख या अफसोस नही होता, प्रत्युत उसके हृदय मे आनन्द की अनुभूति होती है। दान देकर मनुष्य समाज के प्रति अपने क॒रेव्यभार से मुक्त भी हो जाता है, जिसका आनन्द किसी भी कदर कम नही है। वह आनन्द डॉक्टरो, वैद्यो, वकीलो या अन्य लोगो को लुटाने मे प्राप्त नही हो सकता, न हजारो रुपये खर्च करके भोग-विलास या आमोद-प्रमोद के साधन जुटाने से प्राप्त हो सकता है | उस वास्तविक आनन्द के लिए दान' ही सर्वोपरि उपाय है। अमेरिका का एक अरबपति सेठ सडक से होकर घूमने जा रहा था । रास्ते में उसने एक निराश, विपन्न, गृहविद्ीन फटेहाल विधवा स्त्री को देखा, जो जोर-जोर से रो रही थी। पास मे ही उसका सामान पडा था। उसके बच्चे भी वही बैठे थे । इस पूंजीपति से उसका दु ख नही देखा गया । उसने उक्त विधवा सन्नी को अपने घर चलने के लिए राजी कर लिया और तुरन्त अपनी मोटर मे बच्चो सहित उसे बिठा लिया । अपने घर ले जाकर उस अरबपति ने उसे रहने के लिए एक मकान दे दिया, उसके व बच्चो के खाने-पीने का प्रबन्ध कर दिया और कुछ नकद राशि भी उसे खर्च के लिए दे दी | विशेषतया उसने यह किया कि उक्त महिला के नाम से बैक में सौ डालर जमा करा दिये। उक्त महिला के अन्तर से उस अरबपति के प्रति आशीर्वाद फूट पडे, उसने प्रत्यक्ष मे भी बहुत आभार माना । अरवपति की उम्र ७० वर्ष की थी। उक्त महिला को सहायता के रूप में दान देने पर उसके मुँह से यही उद्गार निकले कि “मुझे अपनी सारी जिन्दगी मे जो ६८ दान महत्व और स्वरूप आनन्द नहीं मिला, जो आज इस नि स्वार्थ दान से मिला है।” उसलिए दान आनन्द का अनुभव सिद्ध उपाय है। रॉकफेलर के जीवन को स्वस्थ, शान्त एवं आनन्द से परिपूर्ण बनाने वाला दान ही था, जिसे उसने पाप के भार से मुक्त होने के लिए पापी का प्रायश्चित्त के रूप मे अपनाया था। दान से मनुष्य को हांदिक आनन्द कैसे प्राप्त होता है, इस सम्बन्ध में एक सच्ची घटना भ्रस्तुत है--- सन्‌ १६६८ के नवम्बर की वात है। एक विदेशी भद्रास शहर के बाहरी ग्रामीण इलाकों में मुक्तहस्त सै रुपये वाँट रहा था। लोगों में इससे वडी उत्तेजना फैली । अपने दान के बदले वह किसी से कुछ प्रतिदान भी नहीं माँगता था। अपनी काले रग की कार मे बैठकर वह विभिन्न प्रकार के नोटो के पुलिन्दे हाथ में लिए हुए घुमता और खेतों मे काम करने वाली या सडको पर चलती हुईं जो भी महिला उसे मिल जाती, उसके हाथ में बिना गिने ही कई नोट थमा कर चल देता था । तीन दिनो में उसने काफी दूरी तय कर ली --पुश्नमल, तिरुतन्नी, तिस्वल्लुर से आरकोनम तक । अधिकाश महिलाएं ही उसके दान से लाभान्वित हुईं । एक महिला के हाथ में उसने सौ-सौ के बारह नोट रख दिये, जो उसने जिन्दगी भर मे नही देखे थे । उक्त विदेशी से लोगो ने परिचय जानना चाहा, मगर उसने मुस्कराने के सिवाय अपना कोई परि- चय नही दिया। दान देते समय उसके चेहरे पर प्रसन्नता और आनन्द की लहरें दौड जाती थी। वह अपने आप में वडा आनन्दित दिखाई देता था । कहा जाता है--बाइविल मे उल्लिखित एक दानशील व्यक्ति के चरित्र को उसने २०वी शताब्दी में चरितार्थ करके दिखा दिया। मद्रास के पुलिस इन्स्पैक्टर जनरल एम० मार० महादेव ने बताया कि उक्त विदेशी की मूल भावना दान देकर आनन्द भ्राप्त करने की थी और दान करना कोई अपराध नही है। इस पर से दान को आनन्द का मूल ज्नोत कहा जा सकता है। जैसे माता अपने बच्चे को वात्सल्य भाव से अपना सर्वेस्व देकर, आनन्द प्राप्त करती है, वैसे ही वात्सल्यद्ददय व्यक्ति भी परिवार, समाज, राष्ट्र और नगर को अपना तन, समन, घन, साधन आदि देकर आनन्द प्राप्त करे, इसमे कोई अत्युक्ति नही है । जून १६३४ मे समाचार पन्नो मे एक सच्ची घटना प्रकाशित हुईं थी, वह भी वात्सल्यमय हृदय से दान देकर आनन्द प्राप्त करने के तथ्य को प्रकाशित करती है-- लन्दन के एस्वेकमेण्ट मे एक पचास वर्ष की प्रौढ महिला वर्ष में चार बार अमुक दिनो में रात के नी बजे से बारह बजे तक प्रतिदिन अचूक रूप से आती थी भौर निराधार, अनाथ, दीन, दुखी और गरीबी को अन्न, वस्त्र और नकद धन दान दान से आनन्द की प्राप्ति ६६ देती थी । दान देने से पहले वह सवको एक जगह एकत्रित कर लेती थी और उनके सामने हृदय को रुला देने वाला गायन बड़े करुण स्वर में गाती थी | जब आँसू उसके कलेजे को शीतल कर देते, तव प्रसन्न और आनन्दित होकर वहु सबको क्रमश दान देती । इस तरह वह वर्ष भर मे ५०० से १००० पौण्ड तक दान देती थी । वह कहाँ रहती है? कौन है ? उसे घन कहाँ से मिलता है ” उसने अपनी युवावस्था कंसे बिताई ? यह कोई नही जानता । जान पहता है, उसके जीवन मे ऐसी कोई करुण घटना घटित हुईं है, जिसने उसके जीवन क्रम को ही बदल दिया है । वह दान देने के समय हृदय में करूणा और वात्सल्यभावों से ओतप्रोत होकर अपने दिल को एकदम हल्का बना देती है, तब आनन्द की भस्ती में झूम उठती है। यह दान का ही अद्भुत प्रभाव है, जिससे उसे अपने जीवन में सन्‍्तोष और आनन्द का अनुभव होता है । सचमुच, दान का आनन्द अनोखा ही होता है। एक वार तो दान कुंपण से क्ृपण व्यक्ति के दिल में भी आनन्द की अनुभूति पैदा कर देता है ! कृपण के दिल मे भी दान से प्रसिद्धि की फततल देखकर गुदगुदी पैदा हो जाती है और एक दिन क्ृपण समझा जाने वाला वह व्यक्ति दान देकर उदार हृदय बन जाता है। उसके हृदय में घन सचय करने और न देने के आनन्द से कई ग्रुना अधिक आनन्द दान देने से भरादु- भूंत होता है । एक अतुल सम्पत्ति वाला भनुष्य था, जिसके विषय में यह श्रसिद्ध था कि उसने अपनी जिन्दगी में किसी को एक कौडी भी दान में नहीं दी । एक वार उसके एक परम मित्र ने, जो उस समय दुष्काल पीडितो के लिए चन्दा इकट्ठा कर रहा था, उससे कहा--मित्र | तुम मुझे एक पैसा नगद मत दो, सिर्फ दस हजार रुपयो का एक चैक दे दो, जिसे दिखाकर मैं दु खी जनता के लिए औरो से अधिक रुपया प्राप्त कर सकूंगा । फिर कल ही चाहोगे तो तुम्हारा चैक मैं वापस कर दूंगा ।/ कजूस धनिक बडे सकोच मे पडा, फिर भी यह सोचकर कि कल मुन्ले चैक वापस न मिला तो मैं बेक को भुगतान न करने की सूचना दे दूंगा, अपने मित्र को १० हजार रुपये का क्रास चैक काट कर दे दिया। उस भले आदमी ने उसी दिन नगर के महाजनो की एक विशाल सभा का आयोजन करके वह दस हजार रुपये का चंक सबको दिखाया। फलस्वरूप उसे बहुत-से रुपये मिले, जो उसने तुरन्त दुष्कालनिधि मे जमा करने के लिए भेज दिए । दूसरे दिन जब वह परोपकारी मनुष्य अपने कजूस मित्र के पास चैक वापस लेकर पहुँचा तो क्जूस घनिक की वात सुनकर दग रह गया । कजूस घनी ने कहा---भाई ! आज तक मैने दान की महिमा नही जानी थी, कल शाम से बहुत रात बीते तक मेरे यहाँ लोगो का ताँता लगा रहा, और जो भी आता, वही मेरी प्रशमा करता था | कल रात मुज़ें इतना अधिक आनन्द आया, जितना आज तक कभी नही ७० दान महत्व और स्वरूप आया था। कल मैं ऐसी सुख की नींद सोया, जैसी नींद पहले कभी नहीं सोया था। दान की इस प्रत्यक्ष महिमा को जानकर भी यदि मैं यह चैक वापस ले लूँ तो मुझसे बढकर मूर्ख भौर कौन होगा ? दु ख्री जनता के लिए मुझसे दस हजार का एक तक और ले जाओ [ और सचमुच उसने दस हजार रुपये का एक चैंक और काटकर अपने मित्र को दे दिया | तव से वह एक परम उदार दानी के रुप भें प्रसिद्ध हो गया और दान द्वारा वह परम आनन्द खरीदता रहा । मया अब भो कोई सन्देह रह जाता है, दान से आनन्द प्राप्ति के सम्बन्ध में नि सन्देह दान आनन्द का एक व्यापार है, जिससे कई गुना आनन्द प्राप्त किया जा सकता है । कभी-कभी दान के आनन्द की मधुर अनुभूति मनुष्य को तव होती है, जब वह सब भोर से दु खी हो जाता है, उसके पास दान के सिवाय तब आनन्द प्राप्ति का कोई उपाय नही रह जाता । सचमुच वह आनन्द ऐसा ही है, जैसे अत्यन्त तपन के बाद वर्षा होने पर सुखद और मधुर आनन्द होता है | ऐसे समय में वह व्यक्ति रुपया- पैसा, समय, श्रम, साधन, परामर्श, आश्वासन या और किसी भी वस्तु से दान के रूप मे दूसरो को सहायता पहुंचाकर आनन्द का अनुभव कर लेता है । एक नवय्रुवक व्यापारी था | बडा ही उत्साही और महत्वाकाक्षी ! वह अपने व्यापार में इतना व्यस्त रहता था कि एक क्षण के लिए भी वह किसी दूसरी ओर घ्यान नही देता था । परिणाम यह हुआ कि तनाव, व्याकुलता और उद्िग्नता के लक्षण उसके जीवन में प्रतीत होने लगे । उप्तकी प्रगति बुझ गई । वह निराश और उदास-सा रहने लगा। एक दिन वह प्रसिद्ध मानसिक चिकित्सक सतराम बी० ए० के पास परामर्श के लिए आया और कहने लगा--'मुझे यह बताइए कि मैं अब अपने जीवन में पहले की तरह प्रसन्नता और आनन्द का अनुभव क्यो नही कर पाता ” सतराम ने उनके कोरणो का सर्वेक्षण किया, जिनसे आन-द उत्पन्न होता है। उन्होंने यह भी मालूम करने का प्रयत्न किया कि वह ऐसे कितने कार्यों मे भाग लेता है, जिनसे उसे कोई लाभ नही मिलता | अन्त मे, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह व्यक्ति अपने ही स्वार्थों के सीमित दायरे में बन्द रहता है, इसलिए इसे आनन्द नही प्राप्त होता | सतराम जी ने उससे कहा--''आपको आनन्द प्राप्त न होने का मुख्य कारण यह है कि आप अपने घरवालो के सिवाय और किसी को कुछ नही देते ।' आप जिस चर्च मे जाते हैं, वहाँ भी नाममात्र को ही चन्दा देते हैं और जहाँ तक मनोयोग और सहानुभूति का प्रश्न है वह भाप किसी को नही देते । यही कारण है कि आप अपने जीवन मे असन्‍नता और आनन्द प्राप्त नही कर पाते । आपके गिरे हुए और चुझ्े हुए रहने का कारण यही है कि प्रत्येक वस्तु आपके भीतर तो प्रविष्ट होती जा है, मगर कोई वस्तु बाहर नही निकल पाती | आप उस सागर के सहृश हैं, जिसमें दान से आनन्द की प्राप्ति ७१ जल प्रवेश के मार्ग तो अनेक हैं, लेकिन निकासी का मार्ग एक भी नहीं | इसो का परिणाम है--आध्यात्मिक और मानसिक तदाव और गतिहीनता ।! उसने सतरामजी से पूछा--तो फिर आप कोई योजना सुझाइए, जिससे मुझे पुन आनन्द और उल्लास प्राप्त हो सके ।” सतरामजी ने उसके सामने निम्नोक्त योजना प्रस्तुत की -- (१) भगवान्‌ के कार्यों के लिए गिरजाघर को वह अपनी आय का दशाश दे ॥ (२) वह अपने घरबार और मित्रमंडली के बाहर ऐसे लोगो की खोज करे, जो सहायता (दान) के पात्र हो, ये लोग ऐसे होने चाहिए, जो इस सहायता के बदले में स्व्य उसकी कभी सहायता न कर सकें । सहायता (दान) का रूप कोई भी हो सकता है--घन, साधन, उपदेश, सहानुभूति, समय या केवल दिलचस्पी । (३) जो लोग उसके साथ काम करते हैं, या जिनसे उसकी मुलाकात होती रहती है, उनसे उसका सम्बन्ध केदल कारवार तक ही सीमित न हो, अपितु उसे उनके साथ मानवता और सहायकता का सम्बन्ध बनाना चाहिए। कारखाने के निकट खडा पुलिस का सिपाही, चपरासी या अखबार बेचने वाला भादि लोगो से भी उसे निकटतर हो जाना चाहिए । (४) इसके अतिरिक्त रोगियो, अशक्तो, अपाहिजो भौर असहायो को अनिवार्य रूप से सहायता (दान) देनो चाहिए |” वह इस योजना की रुपरेखा सुनकर वोला-- पर इन सब दानो के रुप में सेवाएँ करने के लिए समय कहाँ से लाऊँगा ? उन्होंने उत्तर दिया--“यह ठीक है कि इन सब कामो मे समय अवश्य लगेगा, लेकिन आपकी रुचि होगी तो समय भी निकल आएगा और वह समय सार्थक होगा। आपको केवल रुपया, सहानुभूति और परामर्श ही नही देना है, अपितु दूसरो को लाभान्वित करने के लिए समय दान भी करना है।' उसने इस योजना को कार्या- न्वित क्या और थोडे ही समय में वह अपने पडौस भे, अपने साथ काम करने वालो में, चर्च मे, और विभिन्‍न समाजो मे अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। उसे अपना खोया हुआ आनन्द इस प्रकार के दान से पुत मिल गया। उसका जीवन मानन्द से ओत- प्रोत्त हो गया । सचमुच, दान में आनन्द को उपलब्ध कराने को एक विशिष्ट शक्ति निहित है। यद्यपि मनुष्य वृक्ष, वनस्पति, अग्नि, जल आदि की भाषा नही जानता, इसलिए सहसा उनके भावों को समझना उसके लिए कठित है । फिर भी कई व्यक्तियों में इतनी आत्मीयता होती है कि वे उसकी भूक मावना को पढ लेते हैं, मौर उससे अक्षय आनन्द का बद्भुत बोध प्राप्त कर लेते हैं। एक दिन कलिंग नरेश ७२ दाने महत्व और स्वस्प उद्यान-क्रीडा करने जा रहे थे । तभी उन्होंने एक फलभार-नम्न वृक्ष से आम तोढा । राजा का अनुकरण प्रजाजनो ने किया । सध्या को जब राजा वापिस लोटे तो वहां एक ढूंठमात्र देखकर वे बडे सतप्त हुए । वृक्ष राजा की व्यया को पहचान गया। वह बोला---“राजन्‌ ! जैसे प्रात कालीन वैभव अनन्त नही था, वैसे ही सायकाल का पतन भी अनन्त नही है। अनन्त तो है यह काल, जो मेरे फलो की भेट (दान) लेकर इस अकारण सुख-दु ख (वैभव से सुख और पतन से दुख की कल्पना) से हमे भुक्त करता है। मैं इसी मुक्ति से होने वाले सहज आनन्द का दाता हूँ । अपनी जीवन- शक्ति को प्रतिवर्ष मीठे फलो में फलित करते हुए, जब एक दिन मैं इस प्रकार का दान करके पूर्णत क्षीण हो जाऊंगा, तव मुक्ति के रूप मे जीवन साफल्य के अक्षय आनन्द को प्राप्त कर लूंगा। राजा ने वृक्ष से वोध प्राप्त किया और उसी क्षण से दान के द्वारा आत्मानन्द प्राप्ति मे लीन रहने लगा । वास्तव मे समृद्धि मे सुख और पतन में दु ख की कल्पना से मुक्त होकर अक्षय भऔर अविचल आनन्द को प्राप्त करने का सच्चा नुस्खा दान ही है । जिस तरह माँ अपने पुत्र के लिए स्वय कष्ट सहकर, भूली-प्याप्ती रहकर दुग्धदान करती है, उसके पालन-पोषण में अपना सर्वेस्व दान करती है, और उत्त दान के बदले आनन्द पाती है, वैसे ही स्वय कष्ट सहकर किये गए दान से मानव को असीम आनन्द की अनुभूति होती है । रूस की राजकुमारी कैथराइन बहुत ही उदारहृदय और वात्सल्यमयी थी। साता-पिता बहुत घनिक थे, इसका जरा भी अभिमान उसे नही था। परन्तु उसके दिल में रह-रहकर गरीबो और अभावपीडितो के लिए विचार आाता। वे बेचारे कंसे रहते होंगे ? उनकी कौन सुध लेता होगा ?” इन विचारो से प्रेरित होकर माता-पिता के न चाहते हुए भी वह अकेली घर से बाहर निकल पडती और जिस किसी व्यक्ति को गरीबी, अभाव एव दु ख से त्रस्त देखती, तुरन्त मदद दे देती थी । कभी-कभी तो उसके कहने की अपेक्षा भी नही रखती थी । एक दिन कैथराइन सुन्दर रेशमी कपड़ें पहनकर शहर मे घुम रही थी, तभी सामने से एक गरीब भिखारी आता दिखाई दिया । जिसके शरीर पर पहनने को बिलकुल कपडे नही थे । ठड से उसका रोम-रोम काप रहा था। उसने कैथराइन से कहा---भुझे तीन' दिन से कुछ भी खाने को नही मिला। कुछ हो तो दो / कैथराइन को उसकी दशा देखकर दया आईं | उसने अपनी जेब में हाथ डाला और जितने भी सिक्के थे, वे सब उस दयनीय भिखारी को दे दिये ओर कह्ा---'इनसे खाने की चीज से लेना ।' वह आशीपें देता हुआ चल पडा | उसके चले जाने पर कैथराइन नें सोचा--बिचारे के शरीर पर भी तो कोई कपडा नही है ।” अत उसे आवाज देकर वापस बुलाया और अपने कीमती कपडे उतारकर दे दिये । कैथराइन ने सोचा--'देश भे वहुत गरीबी है। गरीबों के लिए उसके हृदय दान से आनन्द की प्राप्ति ७३ में बहुत दया थी | इसलिए वह प्रतिदिन गरीबो की झौपडियाँ मे जाकर उनके सुख- दुख के समाचार पूछती और जिसे सहायता करना आवश्यक समझती, उसे सहायता करती थी । परन्तु गरीब लोग उसकी बढिया कीमती पोशाक देखकर उससे मिलते मे झ्षझ्कते थे । उसके सामने अपना दिल खोलने से डरते थे । अतः केथराइन ने बढिया कपडे पहनने छोड दिये, अब वह मोटे खुरदरे सादे कपडे पहनकर गरीबों से मिलने जाती । परन्तु सुन्दरता तो कपडो से छिप नही सकती थी | गरीब किसान उसका सौन्दर्य देखकर पहिचान जाते थे | कैथराइन के मन में बडा विचार आया --मैं कैसी अभागिन हूँ, मेरी सुन्दरता के कारण ये गरीब मुझसे दुर भागते हैं ।” अत उसने सुन्दरता को नष्ट करने के लिए अपने मुंह पर तेजाब छिडक लिया । इसमे उसका चेहरा एवं शरीर जगह-जगह से जल गया, काले धब्बे भी पड गये अब उसे सहसा पहचानना कठिन हो गधा । अब किसान और सजदूर उससे बिना किसी झिल्कक से मिलते और नि सकोच अपनी कष्टकथा सुनाते । कैथराइन दिल खोलकर उन्हे अन्न, वस्त्र, धन आदि दान देकर सहायता करती । कैथराइन को इस दान से बडा आनन्द आया | उसे अपनी सुन्दरता खोने का जरा भी पश्चात्ताप नही था । सचमुच, दान से प्राप्त होने वाले आनन्द को पाकर व्यक्ति सौन्दर्य खोने या कष्ट पाने का दु ख भूल जाता है। दान के प्रभाव से दिव्यता की प्राप्ति भारतीय सस्क्ृति के एक मननशील मेधावी सन्त ने कहा--“जो अपेण करता है, वह देवता है, 'देवे सो देवता! । जो दूसरो को देता है, वह देव है। भराठी में दान को 'देव” कहा जाता है। जिसके अन्तर मे देवत्व विद्यमान रहता है, वह देता है। सूर्य निरन्तर प्रकाश देता रहता है, इसलिए वह देव है । इसी तरह चन्द्रमा और तारे भी प्रकाशदाता होने के कारण देव हैं। वायु भी निरन्तर बहकर सब प्राणियों को जीवनदान देती है, इसलिए भारत के चिन्तको ने देव न होते हुए भी देव माना है । इसी तरह अग्नि, पानी, नदी, मेघ आदि सब अपनी-अपनी चीजो का दान करते रहते हैं, इसलिए देव माने जाते हैं। वनस्पति भी ससार को जीवन शक्ति देती है, इसलिए वह भी देवता भानी जाती है। वनस्पति के अन्तर्गत पेड-पोधे, फल-फूल, जडी-बूटी भादि सब आ जाते हैं । मतलब यह है कि जिसमे भी निरन्तर अपंण करने की शक्ति है, वह देव है। जैनशास्त्र मे पाच प्रकार के देव बताये गए है--उसमे साधु को घमंदेव और तीर्थंकर को देवाधिदेव बताया है। साधु भी ससार को कल्याण का सांग बताता है, इसलिए देव है, गौर तीर्थंकर के लिए तो 'नमुत्युण” के पाठ में चक्षुदाता, मार्गदाता, बोधिदाता घर्मदाता, अभयदाता, शरणदाता, जीवन- दाता आदि अनेक विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं, इसलिए वे अत्यधिक दानशील होने . से देवो के भी देव हैं । वास्तव में दान देने वाले का हृदय इतना उदार और नम्न हो जाता है कि ७४. दान महत्व भौर स्वरूप उसमे क्षमा, दया, सहनशीलता, सन्तोप आदि दिव्य गुण स्वत ही प्रगट हां जाते हैं। मनुष्यों के लिए बेदो में 'अमृतस्य पुत्रा ' कहा गया है। भगवान्‌ महावीर और श्रमण ने ऐसे दिव्य गुणशाली ग्रहस्थ के लिए 'देवानुप्रिय' (देवो का प्यारा) शब्द का प्रयोग किया है। फलितार्थ यह है कि दान देने से व्यक्ति में उदारता आदि दिव्यग्रुण स्वत विकसित होते जाते हैं भौर वह देव वन जाता है। वह अपने सर्च में कटोती करके, स्वय कष्ट उठाकर भी दूसरो को कुछ न कुछ देता रहता है। ऐसा व्यक्ति कजूतत नहीं, विवेकी देव है | श्री रजनीकान्त मोदी वम्बई के एक प्रसिद्ध दैनिक पत्र के कार्यालय में काम करने वाले मित्रो के साथ बीच-बीच में मिलने वाले विश्रामावकाश के समय चाय पीने जाया करते थे । वहाँ जो कर्मचारी आते थे, उनमे उनका एक मित्र सुरेश कभी उनके साथ चाय पीने नहीं आता था, जबकि सुरेश को सबसे अधिक वेतन मिलता था । सभी कर्मचारी उसे कजूस समझते थे। इसका कारण जानने के लिए एक दिन रजनीकान्त भोदी ने सुरेश से एकान्त में पूछा--मित्र सुरेश | घर मे आगे-पीछे तुम्हारा कोई नहीं है, इतने पर भी तुम खाने-पीने मे इतनी कजूसी करते हो, यह किसी को कंसे उचित लगेगा ? तुम हमारे साथ चाय पीने क्यो नही आया करते ?' सुरेश ने इस पर गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया--तुम लोगो के साथ चाय पीने मे अधिक खच आ जाता है, जिसे में सहन नही कर सकता । यथ्वपि मेरे परिवार में आगे-पीछे कोई नही है, तथापि मैं समाज को अपना परिवार मानता हूँ । मैं अपने मुँह से अपना बखान करना नही चाहता । फिर भी आज तुमने पूछ ही लिया है तो सारी बात बता देता हूँ । मैं अपने वेतन में से तीन-चार निर्धेन छात्रो को सहायता देता हूँ । उनमे एक छात्र का जोकि मेडिकल लाइन में पढ रहा है, बहुत खर्च वढ़ गया है। इधर मेरे पास आमदनी का अन्य कोई जरिया नही है। इसलिए अपने खानपान के खर्च मे से कटोती करके उस मेडिकल कॉलेज में पढने वाले छात्र के खर्चे की पति करता हूँ । यदि ऐसे समय मे उसे मदद न करूँ तो उसका भविष्य अन्वकारमय बन जाएगा | उसकी पढाई अधूरी ही न छूट जाए, इस लिहाज से मैंने ४५) वाले भोजनालय से भोजन करना बन्द करके २८) रु० मासिक वाले भोजनालय मे भोजन करना शुरू कर दिया है। तुम्हारे साथ चाय पीने मे तीन जाने प्रति कप खच्च आता है। इसलिए मैं तुम्हारे साथ न आकर अकेला ही एक माने कप वाली चाय ले लेता हूं ।” 'लिकिन' इससे कही तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड गया तो ”' रजनीकान्त के इस प्रश्न के उत्तर मे भुस्कराते हुए सुरेश ने कहा--'जिसकी पढाई मे मैं मदद कर रहा हूँ, वह डाक्टर ठीक कर देगा ।! रजनीकान्त ने निरुत्तर होकर उसके सामने सिर झुका दिया। कहां: दान से आनन्द कौ प्राप्ति छ्भ्‌ सुरेश ! तुम कजूस नही, देव हो । तुममे दिव्यता के गुण हैं, जो तुम्हारी दानशीलता से प्रकट हुए हैं।' दान से भौरव की प्राप्ति दान मानवजीवन के गौरव को बढाने वाला है। व्यक्ति चाहे अन्य गुणों में दीन हो, परन्तु अगर उसमे दान का गुण प्रबल है, तो वह उस गुण के द्वारा प्रसिद्ध हो जाता है, पूजा जाता है, सवंत्र सत्कार-सम्मान पाता है, दान के ग्रुण से अन्य भुणो की कभी भी धीरे-घीरे दूर होती जाती है। इसीलिए दानषट्ूत्रिशिका' में दान- दाता की महिमा सबसे अधिक बताई गई है--- दातुर्वारिधरस्थ सुर्धनि तडिद गागेयश्व गारणा, चुक्षे स्‍्पः फलपुष्पदायिनि सधों सत्तालि धदिश्रुति । भीतत्रातरि धृत्तिदातरि गिरो पूजा पश्षरेश्चामर॑ , सत्कारोध्यमचेतनेष्वपि विधे कि दातृषु ज्ञातृबु ॥१॥ --जलदाता बादल के सिर पर स्वर्गंगा का शव गार की हुई विद्युत्‌ चमकती है, फलपुष्पदायी वृक्षों का स्तुतिगान फलपुष्पदायी बसन्‍्त ऋतु में मस्त अमररूपी बरदिजनो द्वारा होता है। भयभीत की रक्षा करने वाले एवं आजीविकादाता पव॑तों की पूजा क्षरने रूपी चामरो के द्वारा होती है। जब अचेतन दाताओ का भी विधि के हारा इतना सत्कार होता है तो जो चेतन हैं, ज्ञाता दाता हैं, उनका सत्त्कार-सम्भान क्यों नही होगा ? अवश्य होगा । यह निविवाद है कि दान देने वाले का स्थान हमेशा ऊँचा रहता है, समा- सोसाइटियो मे हम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं कि वहाँ दानवीर, दाता या दानशील व्यक्ति का स्थान प्राय सर्वोपरि होता है। सभापति का आसन प्राय दानवीर ही सुशोभित करते हैं। इस उच्च स्थान प्राप्ति का फारण दान है। जिस व्यक्ति का हंदय उदार होता है, जिसके जीवन मे दान की घारा सतत प्रवाहित होती रहती है, उसके लिए सभी के हृदयों मे गौरवपूर्ण स्थान क्यो न होगा ? इसी हृष्टि से एक विचारक ने कहा है-- 'मूमि मे समस्त अन्नो को उत्पन्न करने की, जल में सभी बीजों की सिंचने की, अच्नि मे आहार की शक्ति है, इन्द्र में प्रभुत्व की शक्ति है, सत्पुरुष मे गुण प्रहण करने की शक्ति है, किन्तु याचकों के हृदय मे गोरवपूर्ण स्थान जमाने की शक्ति दानदाता में ही है ।” इसलिए दान से हो गौरवपूर्ण उच्च स्थान प्राप्त होता है, घन जोड-जोडकर रखने वाले कृपण को कोई गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नही होता, चाहे उसके पास सोने- चादी के पहाड ही क्यो न हो । केवल घन या सोना-चादी पास में होने मात्र से कोई गौरवशाली नही बन जाता । लाख योजन का मेरुपर्वत सारा का सारा सोने ७६ दान भहत्व और स्वरूप का है, वैतादय पर्वत चादी से भरा हुआ है, रोहणाचल पर हीरे की पान है, ताम्र- पर्णी पर मोती हैं, तथा द्वीरे-पन्‍्ने की सव खानो में हीरे-पन्नें भरे पडे हैं, इनके पास इन बहुमूल्य पदार्थों के होने का कोई मूल्य नही है, पयोकि ये किसी को इन पदार्थों का दान' नही देते, न दे सकते हैं, जबकि दाता अपने पास में जो भी घन है, उसे परोपकार के लिए दे देता है, उसी के घन का मूल्य है। इसीलिए नीतिकार कहते हैं-- गोरव प्राप्यते दानाननतु वित्तस्य सचयातू स्थितिरुच्चे पयोदाना परयोधीनामघ स्थिति ॥ “मनुष्य दान से हो गौरव प्राप्त करता है, उच्चस्थान पाता है, किन्तु घन (या प्राप्त साधन) के सचय करने से नही पाता | प्रत्यक्ष देखिये, अपना सर्वेस्त जल मुक्तहस्त से लुटाने वाले दानी मेघो का स्थान ऊपर है, जबकि अपने जल रूपी घन को सचित करके रखने वाले समुद्रो का स्थान नीचे है। एक कवि ने कल्पना की है-- “इस कराल कलिकाल में समस्तोपकारक कल्पवृक्ष आदि भी लोकोपकार नहीं करते, और न ही वे दिखाई देते हैं। इन्द्रादि अपने-अपने विपयसुखो मे लीन हैं, पुरवंज- गण चले गये, और थे भी सर्प बनकर पीडा देते हैं, उनसे दानी सत्युरुषो की उपमा देना उचित नही है, इस कलियुग मे तो जलघर ही समस्त पृथ्वीतल को अपने जलदान द्वारा उपकृत करते हैं, इसलिए उनसे ही सत्पुरुषों की उपमा देना उचित है ।” वास्तव से मेघ दानी हैं, इसीलिए उन्हे देखकर सभी प्राणी हषित होते हैं। चक्रवाक सूर्य को, चकोर चन्द्रमा को, हाथी विन्ष्याचल को, देवता मेरुपर्वत को देखकर हर्षित होते हैं, लेकिन बादलो को देखकर तो मोर, चातक, पशु, पक्षी, मनुष्य, कीट आदि सभी हषित होते हैं, क्योकि वे सर्वस्व दाता हैं। इसी प्रकार ससार मे जो दानशील होता है, उसे पशु-पक्षी, कीट-पतगे, सनुण्य आदि सभी चाहते हैं, सभी उसे देखकर गाल्हादित होते है। दूसरी बात यह है कि जो दान देता है, वह मघुर होता है, उसका व्यवहार मधुर होता है, उसकी वाणी भे मिठास होती है, उसके मन मे माधुर्य, औदार्य भौर मुठुत्व होता है। वादलो के पानी मे भी अत्यन्त मघुरता होती है, उनका गम्भीर गर्जन भी मधुर लगता है, मगूर तो बादलो का गर्जन सुनते ही नाच उठता है भर अपने मधुर केकारव से उसकी स्तुति करने लगता है, चातक भी मेघजल का दान लेने के लिए आतुर रहता है। किन्तु उधर समुद्र भी जल से परिपूर्ण है, लेकिन वह अपना पानो किसी को देता नहीं है, बल्कि नदियों से व मेघों से लेता ही रहता है, इस कारण उसका स्थान भी नोचा है और उसका जल भी खारा है, जो किसी के पीने लायक नही, किसी की प्यास नही बुझा सकता, किसो तृथषित पेड-पौधे को हरा- भरा नहीं कर सकता । किशोर ने अपने जीवन मे पहली वार समुद्र देखा था। प्यास बुझाने के लिए दान से आनन्द की प्राप्ति ७७ उसने ज्यो ही अजलि भर कर पानी मुह में लिया, त्यो ही मारे कडआहट के वह गले से नीचे ही न उतर सका और वह थू-थू करने लगा । उसने पास ही खडे अपने पिताजी से पूछा--'पिताजी ! आप तो कहते थे कि सभी नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती हैं, किन्तु इतना मीठा पानी लेने पर भी समुद्र खारा क्यो है ?” बेटे । समुद्र लेता ही लेता है, देता एक दूँद भी नहीं, इस कारण इसका पानी खारा है। जो केवल सचय ही सचय करता है, उसमे कडवाहट के अतिरिक्त और होगा ही क्या ! पिताने समाधान करते हुए कहा । किशोर---'और यह इतना उहिग्न क्यो हो रहा है, पिताजी ?” पिता---/इसने जीवन भर लिया ही लिया है, दिया कुछ भी नही, इसी आत्मग्लानि के कारण ।' किशोर---आप तो कहते थे कि समुद्र का पानी सुर्थ सोखता रहता है, वही पानी वादल वन कर बरसता है। फिर आप थह कंसे कहते हैं कि समुद्र कुछ देता नहीं 7 पिता---छीने जाने और स्वय देने मे आकाश-पाताल का अन्तर है, बेटे ! तुम्हारे पैसे कोई छीन लेता है, तो यह देना नही हुआ देने की भावना से दिया गया ही देना कहलाता है ।” किशोर का समाधान हो गया। वह यह जान गया कि देंने वाला मधुर रहता है, नही देने वाला खारा रहता है । यह एक रूपक है | इसके द्वारा हम यह स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं कि दान देने वाले और सचित करके रखने वाले के गौरव, महत्त्व, गण और स्थान में कितना अन्तर है ? दिया व्यर्थ नहीं ! महाराजा भोज की राजसभा के वरिष्ठ कवि कालिदास वैशाख की एक दुपहरी में किसी आवश्यक कायें से उज्जयिनी के बाजार मे जा रहे थे। जब वे बाजार से वापस लौट रहे थे कि उन्होने एक दुर्बल और गरीब व्यक्ति को तवे-सी तपी हुई जमीन पर लडखंडाते हुए कदमो से चलते देखा । गर्मी से उसके पैर जल रहे थे, जिसके कारण कभी-कभी वह दोड कर रास्ता तय कर रहा था । जब दौडता था, तव हाफ जाने के कारण एक लम्बी साँस छोडकर बाह भरता था । उसकी दयनीय स्थिति देखकर कवि का कोमल हृदय करुणा से भर जाया | वह उसकी दयनीय दशा को अधिक देर तक न देख सका। कवि ने अपने पैर के जूते खोले और उस गरीब को पहनने को दे दिए । तप्त धरती के ताप से बचने के लिए जूते देख उसका हृदय प्रसन्‍नता से उछल पडा | उसने कवि को हृदय से आशीर्वाद दिया और कहा--मेरी समस्या तो हल हो गईं, पर आप अब क्या करेंगे ? आपके पैर भी तो जलेंगे ? इसलिए कृपा करके आप इस समय इन्हे पहनकर ही जाएँ। मैं अपने स्वार्थ के लिए आपके ७८ दान महत्व और स्वरूप पैर जलाना नही चाहता | दरिद्र व्यक्ति के हृदय के विचार वैभव को देखफर कवि के हृदय में उसके प्रति आदर भाव बढने लगा । कवि ने कहा---तुम मेरी चिन्ता मत करो । मेरा धर निकट ही है। में अभी ५ मिनट में पहुँच जाऊँगा । यदि तुम इन्हें नही लोगे तो मैं भी अब इन्हे नही पहनूँगा। नगे पैर चल कर अनुभव करूगा कि उज्जयिनी की गरीब जनता को नगे पैर चलने मे क्रितना कप्ट होता है ।” कवि की हादिक सहानुभूति और स्नेहभरे आग्रह को वह टाल न सका | उससे जुते पहनें और बिना किसी रुकावट एवं कष्ट के वह रास्ता नापने लगा। इधर कवि भी अपने पथ पर चल पडा । ऊिन्तु गर्मी से तपी हुई जमीन पर चलना उनके लिए कठिन हो रहा था। पैरो मे छाले पडने लगे, फिर भी उनके मन में परहित-दान के कारण प्रसन्नता थी, ग्लानि नहीं। एक अनूठी प्रसन्‍्तरता उनके चेहरे पर झलक रही थी। राजकवि थोडी दूर चले ही थे कि उन्हे राजा का महावत हाथी पर जाते हुए मिल गया । उसने राजकवि को हाथी पर बैठने की प्रार्थना की कवि ने सहजभाव से कहा--'तुम चलो ! हम तो अभी पहुँच जाएँगे ।' आपके पैर जल रहे हैं, इसलिए हाथी पर बैठ जाइए | मैं भव आपको एक कदम भी नगे पैर नही चलने दूंगा ।' महावत ने आग्रहपूर्वक कहा । कवि ने मुस्कराते हुए कहा--अरे ! हाथी के भी तो पैर जलते होगे, फिर मैं इस पर अधिक वोझ पयो डालूँ ”' भहावत ने कवि की एक न भानी । वह नीचे उतरा और कवि का हाथ पकड कर उन्हे हाथी पर बैठा ही लिया | जब राजमहल के निकट पहुँचे तो महल के वरामदे में हहलते हुए महाराजा भोज ने कालिदास को हाथी पर बैठे देखकर विनोद मे चुटकी लेते हुए कहा--'महाकथि | तुमको आज हाथो कहाँ से मिल गया ” कवि से मुस्कराते हुए निम्नोक्त एइलोक मे उत्तर दिया--- 'उपानह्‌ सया दत्त जीर्ण. कर्णविवजितम्‌ । तत्पुष्येन गजारुढ़ो, न वत्त वे हि तब वि तम्‌।।! --“मैंने अपने पुराने ओर कन्नी टूटे हुए जूते दान में दे दिये, उसके पुण्य से मुझें हाथी पर चढने का गौरव मिला है। वास्तव मे दिया हुआ दान व्यर्थ नही जाता । यह है दान से गौरवास्पद उच्चपद पाने का ज्वलन्त उदाहरण ! यह तो विश्वविश्वुत है कि प्रत्येक क्षेत्र में जो उदारतापूर्वक दान देता है, उसे गौरवास्पद स्थान मिलता है उसके प्रति जनता की सदूभावना बढ जाती है और इसे उच्चपद भी मिलता है | जनता उसके प्रति क्ृतज्ञता प्रदर्शित करके उसके भौरव को बढाती है। सचमुच दान के प्रतिदान के रूप मे कई गुना गौरव मिलता है। आदर-सत्कार का तो कहना द्वी क्‍या ? दानी या उसके परिवार का कोई भी व्यक्ति कही जायगा तो वहाँ उसका गौरव, सत्कार सम्मान किये बिना लोग नही रहते । इसलिए किसी दान से आनन्द की प्राप्ति ७९ भी रूप में दिया हुआ दान व्यर्थ नही जाता । परन्तु जो किसी को कुछ देता नही, अपने ही स्वार्थ एव ऐश-आराम में मशगूल रहता है, उसे या उसके पारिवारिक जनो को न तो कही गौरव मिलता है, और न ही सत्कार-सम्मान । एक वणिक्पत्नी बहुत ही आलसी, स्वार्थी, लोमी और विलासितापरायण थी । उसका पति बडा व्यापारी होने से उसके यहाँ आसपास के गाँवों से बहुत-से छोटे व्यापारी माल खरीदने या अन्य किसी कारण से आते रहते थे। परन्तु बनियानी आने वालो को भोजन का तो दरकिनार, पानी तक का भी नही पूछती थी । बनिये की अपनी पत्नी के सामने कुछ पेश नहीं चलती थी। इसलिए बनिया केवल मीठे वचनो से आगन्तुको का स्वागत-सत्कार कर दिया करता था। वह जब कभी किसी गाँव में कर्जंवसूली के लिए जाता तो ग्रामीण लोग भी उसे खाने-पीने की नही पूछते थे।या तो वह भूखा रहता, या परावठे बनवा कर अपने साथ ले जाता, उन्हे खा कर पेट भर लेता । इसी बीच बनिये की पत्नी गुजर गईं । घर का सारा भार उसकी पुत्रवघू के हाथ में आ गया । वह बडी उदार, दानशील, सुघड, सुशिक्षित और चतुर थी । उसका इतना उदार स्वभाव था कि कित्ती भी समय किसी भी गाँव से कोई आठतिया या दुकानदार सेठ की दुकान पर आ जाता तो वह उसे भोजन किये बिना जाने नही देती थी । एक दिन सेठ (ससुर) को किसी दूसरे गाँव कर्जवसूली के लिए जाना था, इसलिए अपनी पुत्रवध्‌ से कहा--' बेटी ! मुझे आज फला गाँव जाना है, इसलिए माथ में खाने के लिए भाता बाँघ देना ।” पुश्रवधू बोली---“पिताजी | वह तो मैंने पहले से मेज दिया है। आपको साथ भे ले जाने की आवश्यकता नही | वहाँ जाते ही मिल जाएगा ।” सेठ आश्चयेंचकित होकर पुत्रवधू की बात पर विश्वास करके उगाही के लिए चल पडे । वे जिस गाँव में गए, वहाँ के लोगो ने कह्ा--“सेठ जी ! आज तो हमारे यहाँ ठ5हरना पडेगा । आपका भोजन हमारे यहाँ होगा, कोई कहता---'नाश्ता भेरे यहाँ होगा ।' कोई आग्रहपुर्वंक कहता--'शाम का भोजन किये बिना नही जाने देंगे ।* इसके बाद वह सेठ जितनी वार जहाँ-जहाँ भी जाते, लोग उनका स्वागत-सनन्‍्कार करते, उनकी पुश्रवध्‌ का ग्रुणगयान करते और प्रेमपूर्वंक भोजन कराते । पृत्रवधू की उदारता और गरीबो को अप्न, वसुत्र आदिसे सहायता करने की दानवृत्ति के कारण पुतवधू के साथ-साथ उसके श्वसुर, पति आदि को भी गौरव एवं सम्मान मिलता था| कई वार बडे कहलाने वाले व्यक्ति ऐसे उदारचेंता दानी के गौरव को सहन नही कर पाते और जरा-सी वात मे वे इर्प्या से उत्तेजित होकर दानी के गौरव को मग करने वा प्रयत्न करते हैं, लेकिन दानी का उन लाखों गरीबो एवं पीडितो के हृदय में इतना ऊँचा और स्थायी स्थान हो जाता है कि वे किसी तथाकथित बडे आदमी घ० दान महत्व और स्वस्प के मूंह से उस दानी की निन्‍्दा या गौरवहीनता के शब्द सुनकर भी उस पर विश्वास नही करते और न ही दानी के विरुद्ध कही हुई वात को मानते हैं। उन लाखो दीन- दु खियो के दिलो मे उस उदारचेता का गौरव पत्थर पर लकीर की तरह अखंड सप से अकित हो जाता है । गुजरात के चोलुक्यवशीय महाराजा श्रीकुमारपाल ने एक धार अपने महामत्री आभध्रभट को पुरस्कारस्वरूप एक करोड स्वर मुद्राए, तीन सोने के कलश, २४ उच्च- जातीय घोडें इत्यादि दिये | किन्तु आम्रभट मत्री स्वय इतने उदार ये कि याचको को अपना असीम धन दे डालने में जरा भी विचार नहीं करते थे। याचक भी भारी सख्या मे उन्हे घेर लेते और उनसे मुँहमाँगा दान ले लेते ये । आज भी जब भहामन्त्रो पुरस्कार लेकर राजसभा से बाहर निकल रहे थे, तमी याचको की वढी भारी भीड उनके सामने आ डटी । अत उन्होंने घर पहुँचने से पहले ही मिला हुआ सारा पुरस्कार गरीवो, याचको, दु खियो एवं अपाहिजों में वाँट दिया । इधर इनाम पाया और उधर दान मे दे डाला। इस प्रकार के दान से आज्र- भठ की जगह-जगह प्रशसा होने लगी, दूर-सुद्र प्रदेशो मे लोग उनका गुणगान करने लगे, उनकी कीति चारो ओर फैल गई । खासतौर से दीन-हीनो एव दु खियो के हृदय में उनका गौरव अकित हो गया। राज्य मे कुछ विध्नसन्तोषी लोग भी थे, उन्होंने ईरष्यावश राजा क्रुमारपाल के कानो में जहर उडेल दिया--“पृष्वीनाथ | आम्रभट ने तो राजसभा मे ही आपके सामने एक लाख दान दे डाला | क्या यह उचित है ! ऐसा करके मस्त्री ने आपका गौरव घटाया है।” राजा ने कुपित होकर मन्त्री को बुलाया और उक्त वात की यथार्थता के बारे में पूछा | भाम्रभट तुरन्त समझ गए कि किसी ने द्वेपवश राजा के कान भरे हैं। उन्होने स्पष्टीकरण करते हुए कहा---/स्वामिन्‌ ! आप तो १२ गाँवों के स्वामी त्रिमुवतपाल के पुत्र हैं और मैं १८ देशो के स्वामी (आप) का पत्र हैं। अत मेरा यह दान बहुत हो कम है ।” आगे और स्पष्ट किया कि "इतना दाने आप नहीं दे सकते, मैं दे सकता हूँ । क्योकि आप तो १२ भ्रामो के स्वामी के पुत्र है, जबकि मैं १८ देशो के स्वामी का पृत्र हूं ।” यह सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुए । सच है, नि स्वार्थंदाता को अपने मुंह से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं होती । उसे स्वय को गौरव पाने या उदार कहलाने की इच्छा नही होती । दीन-दु खी आम जनता अपने आप हो उसको उदारता के गीत गाती रहती है तथा उसे प्रत्येक सभा, भीटिंग, फेष्ठी आदि में उच्च स्थान या पद देती रहती है। लक्ष्मी को पाकर अहकार या गव॑ मे आकर नाचने और भोग-विलास में उड़ाने वाला भहामुर्ख होता / जबकि लवंसी को पाकर उदारतापृर्वंक दान करने वाला देने मे आनन्द मानता है। देते समय, देने के बाद और देने से पहले खुशी से उछल पडता है, वह बुद्धिमान होता है, ऐसे ही व्यक्ति भौरवास्पद होते हैं, समाज और राष्ट्र के रत्न होते हैं। दाल से जानन्द की प्राप्ति घर इतना ही नही, घन, साघन या अन्य पदार्थों के दान के अलावा जो माता- बहने अपनी सन्‍्तान के अतिरिक्त दूसरे की सनन्‍्तानो को दुग्धदान देती हैं, दूध पिलाकर पालती-पोसती और सुसस्कार देती हैं, उन्हे भी वह गौरव प्राप्त होता है, जो एक पूज्य पुरुष को प्राप्त होता है, उनको दुग्घदान आदि के बदले मे हजारो गुना गौरव प्राप्त होता है । आाज से कई वर्षों पूर्व जासाम के ग्वालपाडा शहर मे पश्चिम के बहुत-से हिन्दू-मुस्लिस परिवार पास-पास प्रेम से रहते थे । उनमें मजहबी पागलपन नही था। एक दिन नीझू नामक मुस्लिम की औरत के वच्चा हुआ | दुर्भाग्य से वच्चा होने के कुछ देर बाद उसकी माँ चल बसी । नीरु अधीर हो कर रोने लगा। घर में उस नवजात शिशु और उसके सिवाय और कोई नही था। जूट के व्यवसाय में घाटा लगने के कारण आधिक स्थिति अत्यन्त खराब थी। डाक्टर-वैद्य आादि किसी भी उपाय से उस बच्चे को बचा लेना कठिन था। नीरू को अधीर होकर रोते देख बाजार के हिन्दू-मुस्लिम स्त्री-पुरुष उसे समझाने लगे, लेकिन नीरू को शान्ति नहीं मिली । उसका रुदन लगातार जारी रहा । नीरू के घर के पडौस मे ही एक ब्रजवासी रवाले का घर था। रवाला कहीं बाहर गया हुआ था । उसकी पत्नी घर पर ही थी। उसे भी पाँच दिन पहले पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी । नीरूभाई का रुदन सुनकर वह बहुत दु खी हो रही थी । किन्तु सद्य प्रसुता होने के कारण घर से बाहर जाने मे वह मसमर्थे थी । अत उसने अपनी दाई से कहा--“तुम जाकर नीझूभाई से कहो, वे घबराये नही | उस बच्चे को दूध पिलाने तथा उसकी सारी देखभाल करने का भार मुझ पर रहेगा। उस बच्चे को किसी तरह लाकर मेरे पास रख दो । मैं समझूंगी कि मेरे एक नही, दो बच्चे एक साथ हुए हैं।” दाई के मुंह से उस दयालु व वात्सल्यमयी युवती का विचार सुनकर सभी धन्य-धन्य कहने लगे । नीरू को विलक्षण शान्ति और सान्‍्त्वना मिली, उसका रोना बन्द हो गया । दाई के साथ नीरू ने अपने बच्चे को उक्त दयालु बहन के यहाँ भेजते समय कहा---/ इस बहन ने सकट के समय ,अपनी वत्सलता का परिचय देकर प्रशसनीय कारयें किया है, मैं तो इसे भगवान्‌ की दया समझता हूँ कि मुझे ऐसी वहन का पडौस सिला ।” दाई ने नोरू के वच्चे को ले जाकर उस ग्वालिन के पास लिटा दिया। ग्वालिन उस नवजात शिशु को बडे स्नेह से दूध पिलाने और पालने-पोसने लगी। ज्वालिन का पति भी अच्छे व उदार विचारो का था | उसने भी अपनी पत्नी के कार्य की प्रशसा की । नीरू अपने बच्चे के पालन-पोषण के बदले में ग्वालिन वहन को कभी कुछ वस्तु देना चाहता तो वह विगड बैठती कि क्या मुझे इस लडके की घाय माता समझ लिया है ! मैं कुछ नहीं लूंगी ।” नीरू कहता--“बहन ! मैं आपको घाय नही, इस बालक की पूर्दजन्म की साता तो अवश्य समझता हूँ । जाप दोनो के इस उपकार का बदला मैं हजारो जन्मो में नही चुका सकूंगा ।” समय जाते देर नही लगती । नीरू का लडका अब चलने-फिरने लगा । वह दूध पीना छोडकर अन्न खाने लगा। परे दान महत्त्व और स्वरूप इधर व्यवसाय मन्द पड जाने के कारण न चाहते हुए भी नीरू को अपने देश चले जाना पडा । परन्तु परदेश से विदा होते समय ग्वालिन और पुत्रसहित नीरू को रोते देखकर लोग आश्चयं से कहने लगे--“'जान पढता है, ये पाँचों पूर्वजन्म में विसी एक ही परिवार के थे। किन्ही कारणवश इन्हे पृथक्‌ हो जाना पड़ा और अब सयोग- वश पुन सब एकत्र हो गए हैं ।” उन लोगो से वडी मुश्किल से विदा लेकर नीरू अपने पुन्रस॒हित घर चला आया । किन्तु घर आने पर भी वह रह-रहकर ग्वाला- दम्पती को याद करता था, और अपने लडके को उनके द्वारा पालने-पोसने की मधुर कथा सुनाया करता था । वह कहता---“वेटा ! तेरी माता तो तुझे जन्‍म देते ही मर गई थी और मैं तो तेरा नाममात्र का ही पिता हूँ, तेरे सच्चे माता-पिता तो वे ग्वाले- ग्वालिन हैं। तू सपने मे भी कभी उन्हे मूलना मत । वह पहले तुझे दूध पिलाकर फिर अपने बच्चे को पिलाती थी । हजारो मिन्नतें करने पर भी एक पैसा या मुदट्टीभर अन्न भी नहीं लिया ।” अप्रेल १६९६६ की बात है। वात्सल्यमूर्ति ग्वालिन की छाती में घाव हो गया । अनेक डाय्टरों से इलाज करवाया, लेकिन धाव ठीक नही हुआ । गत निरुपाय होकर हवा पानी बदलने की दृष्टि से ग्वाला अपनी दुकान बन्द करके सपरिवार देश चला आया । अपने गाँव के समीप सदर हॉस्पिटल, मथुरा में ग्वाला अपनी पत्नी का घाव दिखाने लाया । डॉक्टर ने घाव देखकर कहा--/इसके शरीर मे रक्त नही रहा | अत इसे कम से कम एक सेर खून चढाने की जरूरत है ।” ग्वाले त्त कहा---/मैं अपना रक्त दे सकता हूँ ।” इस पर डॉक्टर ने कहा---/तुम्हारे रक्त से काम नही चलेगा, किसी युवक या युवती का रक्त होना चाहिए, और वह भी ऐसा हो, जो इसके रक्त से मेल खाता हो ।” फिर डॉक्टर ने पूछा-- क्या पुत्र॒जन्म के समय इसे दूघ के स्थान' पर कोई खराबी हुई थी ?” ग्वालिन---“जी नही, पर एक बात भुझे याद है, जिस समय मेरे बच्चा हुआ, उसके दो-तीन दिन बाद ही हमारे पडौस मे रहने वाली मुस्लिम बाई के हुआ था, लेकिन वह उसे जल्म देते ही मर गई थी । उस बच्चे के पिता को रोते देख, मैंने बच्चे को अपने पास मेंगवा लिया और अपने बच्चे के साथ-साथ उस बच्चे को भी दूध पिलाती रही। कई वर्षों तक वे दोनो भेरा दूध पीते रहे | पर दोनो लडको को दूध पिलाने के कारण कभी-कभी बेचैनी होती थी, पर घाव नही हुआ था ।” अच्छा, मैं समक्ष गया। रक्त चढाए बिना घाव ठीक न होगा । रक्त देने वाले को न कोई पीडा होती है, न वह मरता है, थोडी-सी कमजोरी आती है, वह दवा देने से ठीक हो जाती है।' हु डॉक्टर की बात सुनकर वहाँ के कम्पाउण्डर ने, जो इनकी बातचीत सुन रहा था, कहा---'मैं अपना रक्त देने को तैयार हूँ । दो सौ रुपये लूंगा ।' डॉक्टर ने उसका खून टेस्ट करके पसन्द कर लिया, तब ग्वाले से कहकर उक्त कम्पाउण्डर को दो सौ दान से आनन्द की प्राप्ति घर रुपये दिला दिये | चिकित्सा प्रारम्भ की गईं। रक्त चढाया गया । कुछ ही दिनो में घाव अच्छा हो गया। ग्वाले ने प्रसन्न होकर अस्पताल के कर्मचारियों को इनाम दिया और अपने घर चला आया । फिर कुछ दिन रहकर वह पुन सपरिवार ग्वालपाडा अपने व्यवसाय को देखने चला गया | र्वालपाड। पहुँचने के दस दिन बाद ही ग्वाले के नाम से एक हजार रुपये की एक बीमा आई । साथ में एक पत्र भी मिला जिसमे लिखा था--- परमपृज्य पिताजी एवं परमपुज्य माताजी चरणो में सभक्ति प्रणाम, आगे आपके लिए रक्त देने वाला मैं नीरू का लडका, मैं आपका पाला- पोसा हुआ पृत हूँ। मैं ही कम्पाउण्डर का काम करता हूँ । रुपये लेकर खून देने का कारण यह था कि भुफ्त मे आप खून न लेते । मेरा पूर्ण परिचय प्राप्त करना चाहते । सम्भव था, परिचय प्राप्त हो जाने पर स्नेहवश आप रक्त न लेते और दूसरा इतना रक्त देता कौन ? फिर आपका घाव कैसे अच्छा होता ” इसलिए मैंने आपसे रुपये लेकर परिचय न दिया । अब मैं जो ये १००० रुपये भेज रहा हैं, इनमे से २०० रुपये तो आपके-हैं ही। शेष ८०० रुपये मेरी माँ के सयम- पूर्वक पथ्यादि के लिए हैं। ध्यान' रहे---यदि किसी बहाने से आपने ये रुपये लौटा दिये तो आपका यह्‌ पालित पुत्र निश्चय ही प्राण-त्याग कर देगा। एक बात और--वबृन्दावन निकट होने तथा आप दोनो के द्वारा प्रतिपालित शुद्ध दूध व पवित्र अन्न से मेरे शरीर में जो शुद्ध रक्त है, वह कही गनन्‍्दा (अपविन्न) न हो जाय, इसलिए मैंने प्याज, लहसुन, शराब, ताडी, माँस, मछली आदि निषिद्ध वस्तुओं का खानपान तो दूर रहा, देखना तक भी छोड दिया है। आपके घर मे तो मैं अपवित्र वस्तुओ के खानपान से सर्वेया अछता रहा हूँ । लिखने का अभि- प्राय यह है कि मैने जो रक्त आपके शरीर मे प्रवेश कराने के लिए दिया है, वह पविन्न है, शुद्ध है, कही भी अपवित्र नही है । मैं गीतापाठ रोज करता हूँ । आगे भगवान्‌ की कृपा । --आपका प्यारा पुत्र अहमद कम्पाउण्डर पन्न पढ़कर दम्पती अवाक्‌ हो गए | उनकी आमाँखो से अश्युघधारा बह चली | रवाले ने पत्र का उत्तर लिखा-- प्रिय पुन्न अहमद ! शुभाशीर्वाद, हम यहाँ सकुशल हैं । तुम्हारी कुशलता परमात्मा से चाहते हैं । तुम्हारे भेजे हुए पत्र तथा एक हजार रुपये प्राप्त हुए । प्रिय पुत्र ! यह तुमने ठीक ही ८छड दान महत्व और स्वरूप लिखा है, मुफ्त में हम रक्त न लेते | हम तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहते और परिचय प्राप्त होने पर तो हम किसी भी हालत में तुम्हारा रक्त न लैते। तुम्हारा सात्विक जीवन, पविश्र स्वभाव एवं भगवच्चरणो में स्नेह सुनकर हमारा हृदय आनन्द परिपूर्ण है। ठुम-सा विचारवान्‌ पुत्र पाकर हम दोनो का जन्म सफल हो गया । अभी हमे रुपयों की आवश्यकता नही थी, किन्तु हम तुम्हारा दिल दुखाना नहीं चाहते | अत रुपये हमने रख लिए हैं। प्यारे पुत्र लोग कहा करते हैं“माता के दूध का बदला पुत्र द्वारा हजारो जन्मों में भी नही चुकाया जा सकता । पर तुमने तो कमाल कर दिया । इसी जन्म में ही दूघ का विलक्षण बदला चुकायों है 3. « इस सत्य घटना पर से यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि पराये पुत्र को दुग्घदान देकर पालने-पोसने वाली माता को कितना गौरवास्पद स्थान मिला, कितनी पूज्य हृष्टि से उसे देखा गया भौर दुग्धदान के बदले सम्मान सहित कितना भ्रतिदान मिला । यह सब प्रभाव दान का ही है, जिसने इतना गौरव उस ग्वालिन माता फो दिलाया । दूसरी तरफ से देखें तो भी दान देने वाले का हाथ सदा लेने वाले से ऊपर ही रहता है और वही हाथ गौरवपूर्ण होता है, जो याचक के हाथ से ऊपर हो । गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस दिशा मे स्पष्ट प्रेरणा दी है-- हि “पुलसी' कर पर फर करो, फरतर करो न कोय । जा दिन कर तर कर फरो, ता विन मरण भलो य। हु वास्तव मे दाता के हाथ सदा ऊपर ही रहते हैं। यहाँ तक कि बडे-बर्ढ कलाकारो, पण्डितो, विद्वानो एवं वैज्ञानिको के हाथ भी दानियो के गौरवशील ह्वाथ के नीचे ही रहते हैँ । यहाँ तक कि बडे-बडे मुनिरत्नो, तीर्थकरों के हाथ भी दानदाता के हाथ से नीचे रहता है । इसीलिए दानषद्त्रिशिका भे दान की महिमा बताते हुए कहा है-- थो बज्ञाम ससप्रमभ्रणतभूपालेन्त-पृष्ठस्थलो, विश्व चात्सरिक प्रवन्ति सुधया प्रोज्जीवयामास य । य साध्वाद्यगवद्य सघशिरसि फ्रोडोचित सोछ्हँत । पाणि स्पादू यदजुहाद्‌ गृहिकराघस्ता स्तुसो वातृताम्‌ ४ --जिस तीर्थंकर ने स्वय एक वर्ष तक लगातार दान देकर दानरूपी अमृत से सारे ससार को जिलाया, वही तीर्थंकर दीक्षा लेने के वाद जब भिन्‍न-सिन्‍न देश-अदेशो में विचरण करने लगे तो जिनके पीछे मक्तिवश हडबडा कर राजा औौर इन्द्र तक नत- भस्तक हो गए थे। तथा जो साधु आदि पविन्न चतुविध सघ के शिरोमणि तिभुवन- स्वामी तीर्यकर है ऐसे तीर्थंकर का भी हाथ जिस दान के अनुग्रह से ग्रृहस्थ (दाता) के हाथ से नीचे रहता है, उस दान की हम स्तुति करते हैं । दान से आनन्द की प्राप्ति ण्भ्र्‌ प्रागेतिहासिक काल से लेकर आज तक चक्रवर्ती भरत, मान्घाता, दृष्यन्त, हरिश्चन्द्र, पुरुवा, ऐल, नल, नघुष, राम, कर्ण, युधिष्ठिर आदि अनेक श्लापनीय दानी हुए हैं, परन्तु वे सबके सब दानी के दान द्वारा प्राप्त कीति से ही जमर हुए । इसलिए उनके दान ने उन्हे इतना गौरव दिलाया कि वे जनता के हृदय में चिरस्थायी हो गए । दान के प्रभाव से मनुष्य को इस जन्म में ही नहीं, अगले जन्मों मे भी गौरव मिलता है। आपसे पूछा जाय कि आप किसको चाहते हैं? कृपण को या दाता को ? किसका नाम प्रात काल लेना चाहते हैं, कृपण का या दाता का ? तब आप घट से कह देंगे--कृपण को तो कोई नहीं चाहता और न ही प्रात काल कोई उसका नाम लेना चाहता है । प्रात स्मरणीय वही होता है, जो उदार हो दानी हो । जो स्वार्थी और लोभी बनकर घन जोड-जोड कर रखता हो, उसका तो कोई नाम भी नही लेना चाहता । यही कारण है कि लोग प्रात्त काल दानी राजा कर्णे, हरिश्चन्द्र एद तीर्थंकर आदि दानवीरो का नाम ही लेना चाहते हैं| वे पुरुष गौरवान्वित होते हैं, जो अपनी सुख-सामग्री, सम्पत्ति एव शक्ति दूसरो को लुटाते हैं, देते हैं । दान से वश मिर्थोज नहीं दान को अमृत” कहा गया है, उसके कई रूप आपके सामने आ गये, दान से आनन्द मित्तत्ता है, प्रसन्नता मिलती है, समाज मे गौरव मिलता है परलोक मे सुख एवं वैभव मिलता है। इस लोक में पद-पद पर यश, सहयोग, सेवा, प्रतिफल तथा धन-परिवार आदि की समृद्धि भी मिलती है। दान का इतना अदभुत प्रभाव है कि दान देने वाले की वश-परम्परा खण्डित नही होती, वह अविच्छिन्त रूप से चालू रहती है। उसका कारण यह है कि उसका दान जिन भूखो, दु खियो, बाढ, भूकम्प या दुष्काल से पीडिंतो को मिलता है, उनकी अन्तरात्मा से उन्हे शुभाशीर्वाद मिलता है । राजस्थान में इन आशीर्वाद के सूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है--'दूघा जीओ, पूतता फलो” इस प्रकार की हृदय से आशिषे पाकर दानी व्यक्ति क्यो सन्‍्तान होन होगा ? तामिलनाडू के वेद कुरल मे इस विषय भे स्पष्ट कहा है-- “परनिन्दाभय यस्य बिना दान न भोजनसम्‌ । कृतिनस्तस्थ निर्बोजो वशोनंव फदाचन ॥” “जो परनिन्दा से डरता है और दान दिये विना भोजन नही करता, उसका वश कभी निर्बीज नही होता । बूँदी (राजस्थान) के तत्कालीन राव सन्तानहीन ये । वे सदेव चिन्तातुर रहते थे कि भेरे कोई सनन्‍्तान नही है। पुत्र के बिना मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा ? ८६ दान भहत्व और स्वरूप उत्तराधिकारी के बिना मेरा राज्य घूल मे मिल जाएगा, अराजकता छा जाएगी।" राजदरवारी लोग भी इसके कारण चिन्त्रित रहा ऊरते थे । एक दिन रावताहव पे किसी ने कहा--“महाराज ! यहाँ जीवनजी नामक जैन साधु हैं, उन्हें वचनसिद्धि प्राप्त है। उनके दर्शन करने पधारिये । अगर उन्होंने कह दिया--'पुश्रवानुभव' वो अवश्य ही पुन्न होगा ” रावजी को यह सुनकर आशा की किरण मिल गई। वे चहुत प्रसन्‍न हुए सौर जीवनजी मुनि के दर्शनो के लिए चल पढे । जब वे धर्मेस्थानक में पहुँचे तो किसी ने कहा--“वे अभी शौच के लिए पहाडो की भीर जा रहे होंगे, अच्छा हो कि आप भी उधर ही पघारें । यह मौका बहुत अच्छा है।” चुवह का सभय था, रावसाहव ने साधुजी के दर्शन किये और उनके चरणों में गिर पडे | साथुजी म० ने कहा--'दया पालो, रांजाजी ! फिर पुद्धा--/कहिए रावजी । आज कैसे आना हुआ, इतनी सुवह-सुबह ?” राव साहब ने अपनी मनोव्यथा व्यक्त की । अन्त मे कहा--'महाराज | मेरे कोई सन्तान नही है । आपका भाशीर्वाद प्राप्त करने आया हूँ ।” साधुजी ने उन्हे उपदेश दिया--'देखों, राबजी ! हम साधु हैं, ससार से विरक्त, हम किसी को शाप, आशीर्वाद या अनुग्रह नही देते । हम तो धर्म की प्रेरणा करते हैं। मैं आपको चार बातें, जो धर्म से सम्बन्धित हैं बता देता हें-- के धन चाहे तो घर्मे कर, राज्य चाहे तो तप । पुत्र चाहे दया-दान कर, सुत्र चाहे तो जप एप यो कहकर रावसाहब को साधुजी ने ये चारों वातें मलीभाति समझा दी। रावसाहब सभी बातें समझकर भ्रसन्‍नतापुर्वंक महल को लौटे | उसी दिन प्ले वे दया भर दान के कार्य करने लगे। नगर के सभी कसाईखाने बन्द करा दिये। शहर के गाहर दानशाला खुलवादी, भूखे-प्यासो को अन्नपानी दिया जाने लगा, जो अमावग्रस्त पीडित, अपाहिज, अनाथ एवं असहाय थे, उन्हे आवश्यकतानुसार दान दिया जाने लगा ।* दया-दान के प्रभाव से सयोगवश रावजी के पुथरत्तन' हुमा। राज्यमर में अस्नन्‍्नता की लहर दोड गई। रावजी ने खूब घूमघाम से पुत्रजन्मोत्सव किया । जैन- साधुओ के प्रति रावजी के मन में गाढ श्रद्धा हो गई। और उन्होने दया, दान और सेवा के अनेक कार्य अपने जीवन में किये। यह है--वशपरम्परा फी अविच्छिन्नता का अमोघ उपाय दान का चमत्कार ! वान हाष का लाभूषण दान की भावना चाहे हृदय से होती हो, दान की योजना चाहे मस्तिष्क से तैयार होती हो और दान देने का उत्साह चाहे मन में पैदा होता हो, लेकिन दाम का सक्रिय जाचरण हाथ से ही होता है। मस्तिष्क, हृदय और सन चाहे दान का आदेश देने वाले हो, दान के उपदेश को चाहे कान सुन लेते हो, दान मे दी जाने वाली चीजों को या दान देने के तरीके को चाहे आँखें देख लेती हो, वाणी चाहे दान देने का आदेश दान से आनन्द की प्राप्ति दछ कर देती हो या दान की भहिमा का गुणगात कर लेती हो, लेकिन दान को क्रियान्वित करने वाले, देय वस्तु को दाता के हस्तगत कराने वाले, दाने का लाभ दान के पात्र को दिलाने वाले तो हाथ ही हैं । परन्तु इन हाथो का महत्त्व दुसरे का घन छीन लेने, चुरा लेने, छिपा देने या अपना घन गाड देने, सचित करके रखने या दबा या छिपा देने में नही है, ऐसा करने वाले हाथो का गौरव बढाते नही हैं, अपितु हाथो का गौरव घटाते हैं, उन हाथो को कलकित करते हैं, बदनाम कराते हैं। इन हाथो से दान के सिवाय अन्य कुकुर्म करने वाले या हाथो से दूसरो के थप्पड मारने वाले, दूसरो को घवका देने वाले अथवा शस्त्रादि चलाकर हुसरो को भयभीत करने वाले, दूसरो को सताने या पीडित करने वाले भी हाथ की गरिमा को क्षीण करते हैं, हाथ से दान के द्वारा प्राप्त हो सकने-वाले यश से वचित कर देते हैं। इस हाथ मे दान देने की जो अपार शक्ति सचित है, उसे व्यर्थ के कार्यों मे नष्ट करके वे लोग हाथ की क्रियाशक्ति को, हाथ के द्वारा सम्भव होने वाले जादू को खत्म कर देते हैं। इसीलिए एक मनीषी ते प्रत्येक मानव के लिए यह प्रेरणा सूत्र प्रस्तुत किया है-- 'हाथ दिये कर दान रे' मानव | तेरे प्रवल पुण्य बल ने अथवा ईश्वर कतृ स्व की दृष्टि से कहे तो ईश्वर ने तुझे हाथ दिये हैं, उनसे दान कर ॥' कितनी सुन्दर प्रेरणा भर दी है, इस छोटे-से वाक्य में ! एक पाश्चात्य विचारक ने तो यहाँ तक कह दिया है कि "प्रार्थना मन्दिर मे प्रार्थना के लिए सौ धार हाथ जोडने के बजाय, दान के लिए एक बार हाथ सखोलना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।'* कितना सुनहरा प्रेरणा वाक्य है ! इसका रहस्य यह है कि प्रार्थना करने वाला प्रार्थी सो बार हाथ जोडकर भगवान्‌ से प्राय कुछ न कुछ मागेगा, इसके बजाय किसी से कुछ न भाग कर अपने अन्दर निहित दान शक्ति को खुले हाथो से प्रगट करना अधिक बेहतर है। इससे बिना माँगे ही हजारो की मूक आशीषें, दुआएँ मिलेंगी । देवगण भी इस कार्य को देख कर प्रसन्न होंगे। दान जैसे शुभ कार्यों को देखकर दे जितने प्रसन्न होगे, उतने प्रसन्न केवल मनौती करने से नही होंगे। इस दृष्टि से प्राथंना के लिए द्वाथ जोडने की अपेक्षा दोनो हाथो से दान देना श्रेष्ठ बतलाया गया है । बाइबिल में भी इसी वात का समर्थन किया गया है-- 'तोौन सदुगुण हैं--आाशा, विश्वास और दान । इन तीनो से दान सबसे बढकर है।! [.. एछा6 ॥शात ठक॒शाल्त गा बाग ॥8 एतठ्ता ह परष्णदादत गा एाथएश' ८८ दान भहत्व और स्वरूप दान को इन तीनो मे सबसे वढकर इसलिए वताया गया कि यह हाथ से होता है। इस कारण सारे ससार के लोग इसे प्रत्यक्ष जान सकते हैं, दान देने में सक्रिय होना पढता है, अपने हाथो को दाता के हाथ से ऊपर करने होते हैं, जबकि आशा और विश्वास, ये दोनो बौद्धिक व्यायाम हैं, हादिक उडाने हैं, मन की हवाई फल्पनाएँ हैं, चित्त की वेचारिक भागदोड हैं । एक विचारक ने तो दान के लिए यहाँ तक कह दिया है-- वानी घाढ़ो नाव मे, घर मे बाढो दाम, दोनो हाथ उलोचिए, यही सयानो काम । अगर नौका में पानी वढ जाय और उसे हाथो से उलीच कर बाहर न निकाला जाय तो नौका के डूब जाने का खतरा पैदा हो जाता है, वैसे ही घर मे धन वढ जाय तो परिवार से विभाग या उपभोग के लिए परस्पर झगड़ा पैदा हो जाता है, या सतान द्वारा उसे फिजूल के कामों मे उडाने की आशका पैदा हो जाती है, अथवा चोरो, डकतो द्वारा हरण किये जाने था सरकार द्वारा करो के भाष्यम से खीचे जाने का खतरा पैदा हो जाता है। इसलिए उस बढे हुए घन को भी दोनो हाथो से झटपढ दान दे देना ही बुद्धिमानी का काम है। वानपीर जगड्शाह युग बीत गये, सदियाँ व्यत्तीत हो गईं, लेकिन जगड़शाह का अपने हाथो से किया दान आज भी अपनी जसाधारण विशेषताओं के कारण इतिहास का प्रेरक सत्य बना हुआ है। एक वार ५ वर्ष का भयकर दुष्काल पडा। लाखों पशु भूख से मर गये । हजारो मनुष्य अन्न के दाने-दाने के लिए तरस कर प्राण छोड बैठे । मानव- करुणा से प्रेरित होकर जगड्शाह नामक जैन श्ावक ने गाँव-गाँव में ११२ दानशालाएँ खोल दी । बिना किसी भेदमाव के मूखो को अन्न दिया जाने लगा । जगड़्शाह स्वय दानशाला मे बैठकर अपने हाथो से दान दिया करते थे । वे धन को अपना न समझ कर, समाज की घरोहर समझते थे । और उनका यह हृढ विश्वास था कि घर मे पैसा बढने पर उसे दान के जरिये हाथो से निकाल देना ही बेहतर है, इस कारण वे स्वय अपने हाथो से दान देने मे अपना अहोमाग्य समझते थे । जगड़शाह ने जब यह देखा कि उच्च घरानो के कुलीन व श्रेष्ठ व्यक्तियो को परिस्थितियों के बहाव ने दर-दर की ठोकरें खाने लायक बना दिया है, वे सामने आकर सागने से या प्रत्यक्ष मे हाथ के नीचे हाथ करने मे शरमाते हैं तो जगडूशाह ने दानमण्डप में एक पर्दा डलवा दिया । जगडूशाह उस परदे के भीतर बैठकर दान देता था। दान लेने वाला आकर बाहर से भीतर की ओर अपना हाथ फैला देता । जगड़ूशाह मागने वाले के हाथ पर से उसकी स्थिति का आकलन कर पर्दे की खिड़की मे से चुपचाप उसके हाथ मे कुछ न कुछ रख देता था| किसको दे रहा है ? कौन ले रहा है ? न कुछ देखना और न कुछ पूछना ! बिना किसी शोर-शराबे के मौन जगडूशाह के दान की गगा वह रही थी। फूल की दान से आनन्द की प्राप्ति ष्ह्‌ महक की तरह जगड़ूशाह की कीति दूर-दूर तक फैल गई । तत्कालीन राजा वीसलदेव से भी दुष्काल के समय अपनी प्रजा को राहत पहुँचाने के लिए कुछ अन्न सत्र खोले थे, लेकिन अन्न के अभाव मे वे शीघ्र ही बन्द हो गए। उसने जगड़्शाह के उदार व नि स्पृह्ट दान की बात सुनी | साथ ही यह भी सुना कि लेने वाले का मुह देखे बिना भर हाल पूछे बिना याचक को अपनी आवश्यकतानुसार पर्दे के पीछे वैठा हुआ वह अपने हाथ से दान दे देता है। इस बात की परीक्षा के लिए वीसलदेव एक भिखारी का वेष वनाकर जगड़ूशाह की दानशाला मे पहुँच गया और पर्दे की खिडकी मे से भीतर हाथ फैलाया । जगडूशाह ने उसके हाथ पर अपनी बहुमूल्य हीरे की बंगुठी निकालकर रख दी | वहुमृल्य हीरे की ओंगूठी देखकर वीसलदेव आश्चय में डूब गए । उन्होने अपना दूसरा हाथ भीतर फंलाया तो जगड़शाह ने अपनी दूसरी अंगूठी भी रख दी । राजा वीसलदेव दोनो अेंगूठियाँ लेकर अपने राजमहलो मे पहुँचे । दुसरे दिन उन्होने जगड़शाह को बुलाया । जगडूशाह आए तो वीसलदेव ने पूछा--- “शाहजी ! सुना है, तुम दान देते समय किसी का चेहरा नही देखते और न किसी से पूछते हो २” जगड्शाह---हाँ, महाराज ! इसके लिए चेहरा देखने और पूछने की क्या जरूरत है ? मैं सिर्फ मानव का हाथ देखकर ही दान देता हूँ, उसकी अपनी आवश्य- कता और स्थिति के अनुसार ।' वीघलदेव---“तो क्‍या तुम हस्त सामुद्रिक शास्त्र जानते हो ” जगड्शाह--“महाराज ! हस्तरेखाएँ पढ लेना ही सामुद्रिक नही है। हाथ की बनावट, सुकुमारता आदि अपने आप याचक का परिचय दे देते हैं, मौर उसी के अनु- सार मैं दान कर देता हूँ । योग्यतानुमार रुपये वाले को रुपया और स्वर्ण मुद्रा वाले को स्व्ंमुद्रा मिल जाती है ।' राजा ने दोनो अगूठियाँ दिखाते हुए कहा---ठुमने क्या समझ कर मुझे ये भग्रूठियाँ दी ” जगड़शाह ने वडी सजीदगी से कहा--“यह हाथ देखा तो मैंने सोचा कि कोई उच्च खानदान का व्यक्ति है। सकट का मारा यहाँ मागने आया है, तो इसे इतना दे दिया जाय कि दुवारा न आना पढें, आवश्यकता की पूर्ति हो जाये ।” राजा वीसलदेव ने जगडूणाह की उदारता, नि स्पृह्ता और अपने हाथ से दान देने कि वृत्ति देखी तो बहुत द्वी प्रसन्नता प्रगट की । उसने जगड़शाह का वहुत सम्मान किया और हाथी पर बिठाकर ससम्मान घर भेजा । वास्तव में जगड़्शाह ने अपने हाथो से दान देकर हाथो को सार्थक कर लिया हाथो का सर्वश्रेप्ठ उपयोग किया, उसने अपने उपभोग के लिए कम से कम इस्तेमाल करके दूसरों को देने में ही हाथो का उपयोग किया। उन्हीं हाथो से विपुल द्रव्य फमाया और उसे हाथ का मैल समझ कर उन्हीं हाथो से गरीबो, मसहायो, जरूरत- €० दान महत्व भौर स्वरूप मन्‍्दो और असमर्थों को बिना किसी नामना-कामना और श्रसिद्धि के दान दिया | बंदिक ऋषि की वह महान्‌ उक्ति जगड़शाह ने चरितार्थ कर दिखाई--- अय में हस्तो भगवान्‌, अय में भगवत्तर- --मेरा यह हाथ भगवान है और यह हाथ भगवान्‌ से भी वढकर है | भगवान्‌ से बढकर हाथ तभी होता है, जब उस हाथ को तीर्थकर भगवान्‌ के द्वाथ से ऊपर रखा जाय | यानी, उप्त हाय से सतत दान दिया जाय । जब दान दिया जायगा, तभी तो हाथ भगवत्तर बनेगा । किन्तु जो इत हाथो से अपनी सम्पत्ति का दान नही करता, धन जोड-जोड कर रखता है, वह भगवान्‌ वनने के बदले मरकर कुत्ता बनता है । भग्रेजी में ईश्वर को 8०० (गाँड) कहते हैं, किन्तु जब ईश्वरीय कार्य से उलटा कार्य करता है तो गॉड का उलठा 008 (डॉग) हो जाता है, जिसका अर्थ होता है--कुत्ता । एक जगह एक कुत्ता घर में घुसा । मौर ज्यो ही वह मोजन-सामग्री में मुह लगाने लगा कि घर के भालिक की निगाह पड गईं। उसने कुत्ते की कमर में जोर से लकडी मारी । लकडी की भार से कृत्ता कुँ-कुं करके रोता-चिल्लाता हुआ बाहर निकला । उसे देखकर एक ज्ञानों सन्‍्त ने कहा-- “अब क्यो रोवे कूतरे ” साल बेगाना जोय। थी जब हाथा दी नहीं, अब वया रोयां होय ? अब वया रोया होष, दूक जो सिले सो खाजो । देख पराई चोपडी न तुम यो जो ललचामो ॥ फहे ज्ञानी सत तूने जब घणा दिया था बुत्ता । जिससे मरकर हो गया, अब दर-दर का फुत्ता ।” सन्त की इस चक्ति मे कितना कटु सत्य भरा हुआ है ! कृत्ता जब मनुष्य था जब उसके दोनो हाथ दान देने लायक थे, तब उसने हाथो से दान देकर अपने हाथ सार्थेक नही किये, इसलिए जब भरकर कुत्ता बना, जिससे न तो वैसे दान के योग्य हाथ मिले, न दान देते की बुद्धि (मिली । मनुष्य जन्म मे दान देकर वह गॉड बत सकता था, किन्तु दान न देने से वह मरकर डॉग बना । हाथ की क्षोभा-दान हाथ की शोभा दान से है। लोग कहते हैं कि हाथ तो आभमूषणो से शोभा देता है, परन्तु जो हाथ दान नही देते, कोरे आभूषण पहनकर बनठन' कर रहते हैं, उन हाथो की शोभा इन बनावटी आमूषणों से नहीं होती | उनके हाथो की शोभा दान से है। दान ही हाथो का आमूषण है। इसीलिए नीतिकार कहते हैं-- हस्तस्थ भूषण दान सत्य फण्ठस्थ भूषणम्‌ । ओननस्य भूषण शास्त्र, भूषणे कि प्रयोजनस्‌ ?” 4 दान से आनन्द की प्राप्ति 8१ --हाथ का आनूषण दान है, कठ का आानूषण सत्य है जौर कान का आभूषण शास्त्र है । ये मामूषण हो तो, दूसरे बनावदी आमूषणों से क्या प्रयोजन है ? जिसके हाथ से सतत दान का प्रवाह जारी हो, उस हाव के लिए दान ही जानूप्रण रूप वन जाता है। ऐसे व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व या सौन्दर्य के प्रदर्शन के लिए सोने-चाँदी के आमृषणों की जरूरत नही पडती । वाल में सतीशचन्द्र विद्याभूषण एक महान्‌ दार्शनिक और लेखक हो गये हैं । एक दूर के यात्री ने उनकी प्रणसा सुनी और वह उनके घर पहुँचा। असल में, वह भावन्तुक उस महान्‌ दार्शनिक की माता के दर्शन करने आया था गौर यह भावना लेकर आया था कि उस आदर्ण माता के दर्शन पाकर अपने नेत्रो को सफल करूं, जिसकी ममतामयी गोंद में विद्यामूषण का जीवन प्रकाशमान बना है। परन्तु वहाँ पहुँच कर उसने देखा तो हकक्‍्का-बक्क़ा रह गया | पहले तो वह कल्पना भी नहीं कर सका कि क्या यह महिला उस विश्व विश्वुत दाशेनिक की माँ हो सकती है? परन्‍्तु पूछने पर मालूम हुआ कि--यही उस प्रतिभासम्पन्न पुत्र की भाता है, जो अति साधारण वस्त्र पहने हुए हैं और जिसके हायो में पीतल के कडे शोभावमान हैं । फिर भी वह सहसा अपने कानो पर विश्वास नही कर सका कि एक ऐम्वर्य-सम्पन्न पुत्र की माता इस दरिद्वावस्था में रहती है ? क्‍या पुत्र अपनी माता की जरा भी परवाह नही करता ? इस प्रकार कई तरह की कल्पनाएँ चलचित्रों की तरह घूम गई | अन्तत उसने मोचा कि जरा देखूँ तो सही, दोनो का स्नेह कँसा है ? वात करने पर उसे अनुभव हुआ कि दोनो मे प्रगाढ स्नेह है। माता अपने पुत्र की प्रशसा करते हुए गदगद हो उठी | उसके मन का कण-कण नाच उठा । आखिर आगन्तुक अपना कोई अन्य समाघान न पाकर पूछ वैठा--आप ऐश्वर्यसम्पन्न सतीभचन्द्र को मा होकर भी पीतल के कडे पहनी हुई हैं। यह आपके लिए, आपके सतीश के लिए तवा बगाल के लिए गौरव की चीज नही है।” सतीश की मा ने क्हा--तुमने मुझे परखने में भुल की है। मेरा गोरव इसमें नही है कि मैं सोने के आभूषणों के बोझ से लदी फिर । मेरा हाथ सोने के गहनों से नही वह तो मुन्तहस्त से दान देने से हो सुओोभित होगा । तुम्हे मालूम होना चाहिए ह्ि-जब वगाल मे दुश्निज्ञ पडा था। मनुप्य भूख मे छठपटा कर मर रहे थे । बहुत- में बरादमियों के लिए अन्न का दाना भी नहीं मिल रहा था । ऐसी विकट परिस्थिति में मतीग के दान ने, जो मेरे उन्ही हायो द्वाना दिया गया था, सारे वगाल में नवजीवन फूँपा दिया। अत मेरे हाथों ही शोना धन कृत्रिम जाभृषणों को पहन कर वैमव- प्रदर्गेत करने में नहीं है, अपितु बगात्र के दु खितों और पीदितो को इन हायो से दान देकर सेवा बनने में है। हाथ जा आमूषण दान है, गहने नही ।' हाँ, तो सतीमचन्द्र विद्यानूषण पी सात्रा के जीवन से /हस्तत्य भूषण दानम्‌* ६२ दान महत्व और स्वरूप हाथ का भाभूषण या हाथ की शोभा दान है' यह उक्ति चरितार्थ हुई थो । दान ही इन करकमलो मे यश की सौरभ भर सकता है, जीवन की सहज-सफूर्त दानवृत्ति ही हाथ को वास्तविक धमक-दमक और शोभा प्रदान कर सकती है। बहनो को सोने और चादी के आभूषण बहुत प्रिय होते हैं। वे गहनो को सौन्दर्य अ्साधन की चीज समझती हैं, परन्तु वास्तव में देखा जाय तो जीवन के वास्तविक सौन्दर्य का प्रसाधन इन कृत्रिम आभूषणों से नहो, दान से ही होता है। दान जब मानव के हृदय का हार वन जाता है, हाथो का उदार अनुष्ठान हो जाता है, ढु खितो के प्रति आत्मीयता और सहानुभूति का कर्णफूल बन जाता है, तब दूसरे आशभूषणों की जरूरत नही रहती । वे ही उनके वास्तविक आभूषण वन जाते हैं । एक बार ईश्वरचन्द्र विद्यात्तावर भोजन कर रहे थे । उस समय एक अतिथि याचक उनके द्वार पर आया । ईश्वरचन्द्र दानशील तो थे, मगर उस समय उनके पास कुछ भी नही था। उन्होने अपनी मा से कहा--“माता जी ! वाहर कोई याचक आया है, आप अपनो चूडी दे दें, ताकि मैं उसे गिरवी रखकर कुछ रूपये लाकर उसे दे दूं, और विदा करूँ ।” माँ--वैटा | तू तो मेरे सभी गहने निकलवा कर ही रहेगा ।' ईंश्वरचन्द्र--“माँ । बडा होऊंगा, तब तुम्हारे सभी गहने बनवा दूँगा ।' ईश्वरचन्द्र की माँ ने सोने की चूडी निकालकर उन्हे दे दी। ईश्वरचन्द्र ने वह चूडी किसी के यहाँ गिरवी रखी और कुछ रुपये लेकर आए, और उस याचक को देकर सन्तुष्ट किया । माँ ने घर आने पर ईश्वरचन्द्र से पूछा--बेटा | उस याचक का दुख दूर हुआ ”* ईश्वरचुन्द्र--'हाँ, माताजी, वह सन्तुष्ट होकर गया ।” माता ने कहा--बेटा | दान ही सच्चा गहना है। सोने के गहने की अपेक्षा दानरूपी आभूषण से जीवन की शोभा अधिक बढती है। गहनो के बारे मे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की माता के जो विचार थे, वे ही विचार धीरे-घीरे अवस्था १रिपक्व होने के साथ ईश्वरचन्द्र के बन गए। वे आभूषण की अपेक्षा दान को अधिक महत्त्व देते थे | जैसा बेटा था, वैसी ही उसकी माँ थी । सचमुच, सच्चा आमूषण दान है, जिससे जीवन सर्वांगीण रूप से अलकृत हो उठता है । जो व्यक्ति यह समझता है, कि आभूषणो से शरीर की सुन्दरता बढती हैं, वह अम में है। क्योकि आाज आभूषण जिंदगी के लिए खतरा बन गया है। आभूषण से सीन्दयं वृद्धि तो बाद मे होगी, गरीब लोगो में द्वेप और ईर्ष्या की वृद्धि तो पैदा हो ही जाएगी । जितका परिणाम होगा--.पारल्परिक कदुता, सघ्ं और छीवा- दान से आनन्द कौ प्राप्ति श्३ झपटी । इसलिए आमृषण बनवाने की थपेक्षा दान के द्वारा जीवन के वास्तविक सौन्दर्य मे वृद्धि करनी चाहिए। उससे विषमता मिटेगी, अमीर-गरीब का भेद मिटेगा, और गरीब एवं पीडित लोगो में दानी लोगो के प्रति सच्ची सहानुभूति और आत्मीयता पैदा होगी । महात्मा गाँधीजी मानव-मानव के बीच विषमता की इस दीवार को मिटाने के लिए कृतसकल्प थे । वे जहाँ भी जाते, बहनों को हरिजनो के लिए गहने दान दे देने की प्रेरणा किया करते थे। वे समझते थे कि इन कृत्रिम आभूषणो का परित्याग कर देने से हरिजनो ओर सवर्णों के बीच जो खाई है, वह पट जाएगी । दोनो मे एक-दूसरे के प्रति सदभावना पैदा होगी। और दोनो मिलकर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए लड सकेंगे । एक बार गाँधीजी जब त्रिवेन्द्रम्‌ में थे, तो एक १७ वर्षीय लडकी उनके दर्शंनो के लिए आईं। गाँधीजी ने उससे पूछा---तुम कौन हो ” उसने कहा---.मैं एक छोटी-सी लडकी हूं ।” पर एक छोटी-सी लडकी का इन गहनो से क्या प्रयोजन है ?” ग्राँधीजी ने उसके शरीर पर बहुत-से जेबर लदे हुए देखकर कहा । भीनाक्षी ने जवाब दिया--“मैं चाहती हूँ कि ऐसी ही छोटी-सी लडकी बनी रहूँ ॥! गाँधीजी ने कहा---तब तो तुम्हे गहने नही पहनने चाहिए । देखो, कौमुदी तो तुमसे एक वर्ष छोटी है, १६ साल की है, तो भी उसने तमाम गहने उतार कर मुझे दे दिये । भीनाक्षी की आँखें चमक उठी । उसने कहा--'तो मैं भी अपने सारे गहने उतार कर दे देना चाहती हू ।' गाँधीजी---तुमने अपने माता-पिता की आज्ञा तो ले ली है न? भीनाक्षी---आज्ञा तो मिल ही जाएगी । गाँधीजी--'मैं जानता हूँ मलाबार-कन्या स्व॒तन्त्र प्रकृति की होती है । इसलिए तुम्हे विश्वास हो तो हरिजनो के लिए मुझे ये गहने दे दो । मैं तुम्हे इस पर सोचने ओऔर अपने माता-पिता से परामर्श करने के लिए एक रात का समय देता हूँ । दूसरे दिन मीनाक्षी अपने माता-पिता के साथ गाँधीजी के पास आई और उन्हे अपनी सोने की चूडी और गले का हार दो चीजें उतार कर दे दीो। इसके बाद मीनाक्षी ने भाजीवन गहनो को न छुने की प्रतिज्ञा कर ली। गाँघीजी ने उसकी माँ से आशीर्वाद देने को कहा तो पहले कुछ आनाकानी की, लेकिन वाद में समझाने पर उसने भी भीनाक्षी को आशीर्वाद दे दिया । उस सदय का हृए्य वडा हृदयद्रावक था । गाँघीजी ने सीनाक्षी के आभूषणत्यागर की प्रशसा करते हुए कहा---ईश्वर करे, कौमुदी और ६४ दान महत्व और स्वरूप मीनाक्षी का यह आदर्शत्याय प्रकाशरप होकर उस अज्ञानान्थकार को हटाने में हमारा सहायक हो, जो अस्पृश्यता जैसे महापाप का अस्तित्व बनाए हुए है ।' इससे यह समझ्षा जा सकता है कि महात्मा गाँधीजी कृत्रिम आमूषणों की अपेक्षा दानरूप आभूषण अपनाने की प्रेरणा महिला समाज को सतत देते रहते ये | इसीलिए नीतिकार ने इस वात का स्पष्ट रूप से समर्थन किया है--- दानेन पाणिनंतु कफकणेन --हाथ दान से सुशोमभित होते हैं, ककण से नही।' जो महिला इस बात को हृदयगम कर लेती है, वह सतीशचन्द्र विद्यामूपण की था ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की माता की तरह अपने हाथो से मनचाहा दान देकर हाथ की ही नही, जीवन की शोभा बढाती है। ऐसी ग्रहलट्ष्मियो के हाथ सदा दानरत रहते हैं, वे सदैव दीन-दु खियो के आँसू पोछती रहती हैं, और उनकी मूक आशीर्षे प्राप्त करती हैं। दान से नवनीत-सा कोमलता जैसे उनके हृदय में हो जाती है, वैसे ही उनके हाथो मे भी कोमलता हो जाती है। दु खित जनो को देखकर उनकी आँखें दयाद्र हो जाती हैं, उनके कान सदैव ऐसे दीन-हीनो की पुकार सुनने को उत्सुक रहते हैं, और उनके पैर भी उन दीन-दुखियों के दु ख-निवारण के लिए दौड पढते हैं । ससस्‍्क्ृत साहित्य भे माघकवि का स्थान महत्त्वपूर्ण है। भारत के इने-गिने सस्कृत कवियो मे वे माने जाते हैं। उनकी कविता की भाँति उनकी उदारता की जीवन्तगाथाएँ भी बडी मृल्यवान हैँ। उन्हे कविता से लाखो का धन मिलता था, लेकिन उनका यह हाल था कि इधर जाया, उधर दे दिया | अपनी इस दानवृत्ति के कारण वे जीवनभर गरीब रहे । कभी-कभी तो ऐसी स्थिति जा जाती कि आज तो है, कल के लिए नही रहेगा | मत उन्हे भूखे ही सोना पडता था । ऐसी स्थिति में भी माघकवि यही कहा करते थे--“माघ का गौरव पाने में नही, देने मे है ! एक बार वह अपनी बैठक मे बैठे थे । जेठ की सख्त गर्मी में, दोपहर के समय एक गरीब ब्राह्मण उनके पास आया। माघकवि अपनी कविता का सशोघन करने में भग्न थे। ज्योही ब्राह्मण नमस्कार करके इनके सामने खडा हुआ, इनकी हष्टि उस पर पडी । उसके चेहरे पर गरीबी की छाया, थकान और परेशानी क्षलक ही ३४ । कवि ने ब्राह्मण से पुछा--“कहौ भैया ! ऐसी घूप मे आने का कष्ट कैसे ' | ब्राह्मप--जी, और तो कोई बात नही, मैं एक आशा लेकर आपके पास भाया हूँ । मेरे एक कन्या है, वह युवत्ती हो गई है, उसका विवाह करना है, परन्तु साधन पास में कुछ भी नही है। अर्थाभाव के कारण उद्विग्न हूँ । आपका नाम सुन- कर बडी दूर से चला आ रहा हूँ । ; माघकवि ब्राह्मण की अभ्यर्थना सुनकर विचार मे पड गए। यह स्वाभाविक दान से आनन्द की प्राप्ति ९५ ही था, क्योंकि उस समय उनके पास एक जून खाने को भी नही बचा था। मगर गरीब ब्राह्मण आशा लेकर आया है, अत कवि की उदार प्रकृति से रहां नही गया । उन्होंने ब्राह्मण को आश्वासन देते हुए कहा--अच्छा भैया ' बैठो, मैं जमी आता हूँ ।! यो कहकर वे घर मे गए | इधर-उधर देखा, पर वहाँ देने योग्य कुछ भी न मिला | कवि के हृदय में पश्चात्ताप का पार न था | सोचा--'माध ! क्या तू आए हुए याचक को खाली हाथ लौटाएगा ? इसे तेरी प्रकृति सह नही सकती । पर क्या किया जाय ? कुछ हो भी तो देने को ” माघ विचार मे डूबे इघर-उघर देख रहे थे । कुछ उपाय नही सूझता था । आखिर एक किनारे सोई हुई पत्नी की ओर उनकी हृष्टि गई। उसके हाथो मे कगन चमक रहे थे । सम्पत्ति के नाम पर यही कगन उसकी सम्पत्ति थे। माघ ने सोचा--'कौन जाने, माँगने पर दे, या न दे शायद इन्कार कर दे। इसके पास यह ही तो आभूषण बचा है। अत अच्छा अवसर है, चुपचाप निकाल लिया जाय ।' माघ दो कग़नो में एक को निकालने लगे | कगन सरलता से निकला नही और जब जोर लगाया तो थोडा झटका लग गया । इससे पत्नी की निद्रा भग हो गई । वह चौंक कर उठी और पति को सामने खडे देखकर बोली--आप क्या कर रहे ये ? माध--कुछ तो नही, यो ही कोई चीज ढूंढ रहा था ।' पत्नी--नही, सच कहिए । मेरे हाथ के झटका किसने लगाया ”' माघ--मैंने ही लगाया था ।' पत्नी--तो आखिर बात क्या है ? क्‍या जाप कगन निकालना चाहते थे ?” माघ--हाँ, तुम्हारी बात सही है ? पत्नी के हारा कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा--'एक गरीब ब्राह्मण कभी परे आशा लगाए द्वार पर बैठा है ।' मैंने देखा--घर मे कुछ भी नही है, जो उसे दिया जा सके । इतने मे तुम्हारा कंगन नजर आ गया । यही खोलकर मैं उसे दे देना चाहता था। मैंने तुम्हे जगाया इसलिए नही कि शायद तुम कगन देने से इन्कार कर दोगी ।/ पत्नी--तो आप चोरी कर रहे थे न ?! माध---.हाँ, बात तो ऐसी ही थी । पर करता क्‍या, और कोई चारा ही नही था । पत्नी--'मुन्े आपके साथ रहते इतने वर्ष हो गए, लेकिन मालूम होता है, भाप मुज्नें पहचान न सके । आप तो एक कगन की सोच रहे थे, कदाचित्‌ मेरा सर्वस्व से जाते तो भी मैं इन्कार नही करती, तुरन्त दे देती । अब एक काम करिए । मैंने नीतिकार के वचन सुने हैं कि हाथ की शोमा दान से है, ककण से नहीं ।! अत उसे ६६ दाने : महत्व और स्वरुप भेजिए यहाँ यह कगन मैं अपने हाथ से उस ब्राह्मण को दृगी, जो मुसीबत में पडा हुआ है ।' ओर माघ ने क्षट से बाहुर आकर उस ब्राह्मण को अन्दर चुलाया और कहा “देखो ! भेरे घर मे इस समय और कुछ नही मिल रहा है, जो आपको दे स्कूं। यह एक कंगन है, जो आपकी पुत्री हाथ में पहिनी हुईं थी, उसी की ओर से मैं आपको यह भेंट कर रहा हूँ । मेरे पास देने को कुछ भी नही है ।' ब्राह्मण सुनकर गद॒गद हो गया | उसने वह कगन ले लिया और आशीर्वाद देता हुआ हफित होकर चला गया । भारतवरपं में ऐसी भी बहनें हुई हैं, जिन्होंने अपनी मुसीचत के समय भी आशा लेकर घर पर आए हुए किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया । मानो उनका जीवनसूत्र बन गया था--'दानेन पाणिन तु ककणेन ।” नि सदेह दान हाथ का आभृषण है, वही हाथ को सुशोभित करता है। और उसी शोभा से मनुष्य की अन्तर- भात्मा भ्रसन्न होती है, बानन्दविभोर होती है। आनन्द का सच्चा स्रोत दान की पर्वतमाला से ही प्रवाहित होता है । है [7] दान : कल्याण का द्वार दान रूप कल्पवृक्ष के हजारोहजार शुभ फल लगते हैं, जिनका कुछ वर्णन पिछले पृष्ठो मे किया गया है । प्रारम्भ मे ही यह बताया जा चुका है कि दान भोक्ष का द्वार है, कल्याण का कोष है, घ॒मं, सम्यक्त्व और आनन्द की प्राप्ति का राजमार्ग है। | दान से सम्यकत्व, जो मोक्ष प्राप्ति का मुल भमन्त्र-बीज मन्त्र है, उसकी प्राप्ति होती है, लोकिक और पारलौकिक अगणित सुख-वैभव का खजाना खोलने के लिए दान ही वह दिव्य चाबी है। घमें रूप महल का शिलान्यास दान से ही होता है ! दान से सम्यकत्व फी उपलब्धि आगम साहित्य का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि दान के दिव्य प्रभाव से ही प्राय भहापुरुषो को सम्यक्त्व की उपलब्धि हुईं है। कोई कह सकता है कि जैन रिद्धान्त के तत्त्व की दृष्टि से सम्यक्त्व का कारण आत्मा के शुद्ध परिणाम हैं, और दान एक क्रिया है, उसका सम्यफ्त्व से क्या सम्बन्ध है ? इसलिए दान को सम्यकत्व की प्राप्ति का कारण मानना ठीक नही है। हाँ, यह बात ठीक है कि सम्यकत्व का सस्बन्ध आत्मा के शुद्ध परिणामों से है, लेकिन वे परिणाम भी किसी न किसी निमित्त को लेकर ही होते हैं, कई जीवो के परिणाम ऐसे भी होते हैं, जिनमे कोई बाह्य निमित्त नही होता | इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्र मे सम्यन्दर्शन दो प्रकार का बताया है-- 'ततन्निसर्गादधिगमाद्‌ वा' वह सम्यरदर्शन निसगगे (स्वभाव) से तथा अधिगम (गुरु का उपदेश, शास्त्र यथा अन्य किसी वस्तु के निमित्त) से होता है। जहाँ सम्यर्दर्शन पुरवेजन्म के सस्कारबश स्वाभाविक रूप से होता है, वहाँ तो कोई बात ही नही, पर जहाँ किसी न किसी भहापुरुष के उपदेश आदि निभित्त को लेकर सम्यग्दर्शन होता है, वहाँ दान सम्य- रदर्शन का मुख्य बहिरग कारण बनता है। दान के निमित्त से किसी न किसी महापुरुष से उपदेश, प्रेरणा या बोध प्राप्त होता है। दान महापुरुषों के निकट लाने का एक बहुत बडा माध्यम है। क्योकि जैन श्रमण आहारादि दान के सिवाय और किसी सेवा €८ दान * महत्व और स्वरूप की अपेक्षा प्राय गृहस्थ श्रावक से नही रखते । इसलिए दान ही एक ऐसा प्रवल भाष्यम है, जिससे महापुरुषों का सम्पर्क होता है, और सम्पर्क होने पर सरल और नम्र आत्मा रूपी क्षेत्र मे वोधि वीज (सम्यकत्व वीज) पढते देर नही लगता | इसलिए दान सम्यक्त्व की उपलब्धि में एक महत्त्वपूर्ण निमित्त है । भगवान्‌ महावीर को सर्वेप्रथम 'नयसार' के भव में सम्यकत्व की उपलब्धि हुई थी। नयसार वन विभाग का अधिकारी था। कोई कहते हैं--कोट्टूपाल (कोत- वाल) था । एक बार नयसार जगल में लकडियाँ इफ़ट्टी करा रहा था। तभी एक उत्तम साधु बाते हुए दिखाई दिए। ये मार्ग भूल गए थे और इघर-उधर भटकते हुए अनायास ही वहाँ आ पहुँचे थे । नयमार ने जब उन्हे दूर ही से देखा, उसके सरत्र और स्वच्छ हृदय में महामुनि के प्रति सद्भावना जगी, वह सामने गया ओर उन्हे बन्दत-नमन करके कहा--“पघारो मुनिराज | हमारे डेरे पर ।” मुनिवर बोले--“भाई ! मुझे अमुक नगर मे जाना था, परन्तु मैं रास्ता मूल गया हूँ । रास्ता दूंढते-दूंढते समय भी काफी हो चुका है, मगर अमी तक उसका पता नही लगा है ।” पर गुरुदेव ! भिक्षा लिये विना आपको कैसे जाने दूं। आप थके हुए भी है। भूखे भी हैं, इसलिए आप हमारे डेरे पर पधारें । आपके योग्य सात्त्यिक आहार-पानी तैयार है। आप उसे स्वीकारें और सेवन करें ।” नयसार की हादिक भक्ति और धर्म स्नेहपूर्वक आग्रह देखकर मुनिवर उसके डेरे पर पधारे | नयसार ने मुनिवर को पविन्न एव उत्कट भावों से आहार-पानी दिया | मुनिराज ने आहार किया, कुछ देर विश्वञाम किया और पुन विहार करने को तैयार हुए। नयसार उन्हें हुर-दृर तक रास्ता बताने को साथ मे गया। मुनिराज ने भी एक वृक्ष के नीचे कुछ देर विश्राम लेकर नयसार को श्रेयमार्ग का सक्षिप्त उपदेश दिया। तृषित चातक की तरह उसने उपदेशामृत का पान किया । इस उपदेश से वस्तुतत्त्व का बोध हो गया । और भावी जीवन सुन्दर और उन्नत वनाने के लिए सम्यक्‍त्व का हो गया । इस प्रकार दान के प्रबल निमित्त से भगवान महावीर को नयसार के जन्म में सर्वप्रथम सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई । इसी प्रकार भगवान्‌ ऋषभदेव को भी घन्नामेष्टी के भव में दान से सम्य- क्त्य की उपलब्धि हुई।* १ आवश्यक नियुक्ति (गा १६८) इस बात की साक्षी है-- धण सत्थवाह पोसण, जइगसण, अडबविवास ठाण च। बहु बोलीणे वासे, चिन्ता धयदाणमासि तया। १०० दान भहत्व और स्वरूप समृद्धि और घनसम्पत्ति प्राप्त करता है। क्योकि दान से पृण्यवृद्धि द्वोती है और पुण्यवृद्धि के फलस्वरूप सभी प्रकार के सास्तारिक सुखों की उपलब्धि होतीं है । बहुत से मनुष्य ससार भे धन, उत्तम आाज्ञाकारी पुत्र, अच्छा परिवार, अच्छा धरवार, अच्छे ढग का व्यापार, या रोजगार, या अन्य सुताधतों के लिए मारे- मारे फिरते हैं, रात-दिन तरसते रहते हैं, बहुत ही पुरुषार्य करते हैं, ज्योतिविदो, मत्र- तन विशारदो चमत्कारियो, हस्तरेखाशास्त्रियो के दरवाजे खटखदाते हैं, धनिको या कलाकारों अथवा शासनाधिकारियों की चापलूसी करते रहते हैं, फिर भी उन्हें उपर्युक्त सासारिक सुख-सामग्री प्राप्त नही होती । और कुछ लोग ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनके जरा-से प्रयास करने से लक्ष्मी की छनाछन हो जाती है, सुन्दर अनुकूल परिवार मिल जाता है, आज्ञाकारी विनय्री सुपुत्र मिलते हैं, तथा अन्य सब सुख- सामग्री प्राप्त हो जाती है। इन दोनो के पीछे कौन-सा कारण है ? कारण हैं--दाव न देना और मुक्तहस्त से दान देना। निष्कर्ष यह है कि दान ही एक ऐसा चामत्कारिक गुण है, जिसके प्रभाव से आक्रृष्ट होकर सभी सौख्यसामग्री मनुष्य क्के पास आ जाती है। रयणसार नामकंग्रन्य में पात्रदान का फल बताते हुए कहां है-- -- माता, पिता, मित्र, पत्नी आदि कुटुम्ब परिवार का सुख तथा घन, घान्य॑, बस्त्र-अलकार, हाथी, रथ, मकान आदि से सम्बन्धित ससार का श्रेष्ठ सुख सुपात्र दान का फल है।* पश्चनन्दिपचविशतिका मे इसी बात का स्पष्ठत समर्थन किया गया है-- ---सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, रूप, विवेक, बुद्धि आदि तथा विद्या, शरीर, धन, गृह, सुफुल मे जन्म होना, यह सब निश्चय से पात्रदान के द्वारा ही प्राप्त होता है। फिर हे भव्यजनो | इस पात्रदान के विषय मे प्रयत्न क्यों नही करते ?* दान के दिव्य प्रभाव से ही शालिभद्र ने दिव्य ऋद्धि एवं विपुल सम्पत्ति प्राप्त की । शालिभद्र का पूर्व जन्म का जीवन अत्यन्त दरिद्रता मे बोता | बचपन में ही पिता चल बसे । णो कुछ जमीन या अन्य साघन था, सब बाढ आदि प्रकोप में समाप्त हो गया । माता घत्ना व्वालिन बालक सगम को लेकर राजग्ृह चली आई! १ मादु-पिदु-मित्त कलत्त-घण-घण्ण-वत्थु-वाहण-विसय । ससारसारसोक्ख जाणउ सुपत्तदाणफल ॥२०॥। सुकुल-सूरूव-सुलक्ख ण-सूमइ-सुसिमखा-सुसील-सुगुणचारित्त । सुहलेस सृहणाम सुहसाद सुपत्तदाणफल ॥२१॥ २ सौभाग्य-शोय-सुख-रूप-विवेकिताबा, विद्या-वपुर्षनगृहाणि कुले च जन्म । सम्पद्यतेडखिलमिद किल पाश्रदानातु, तस्मात्‌ किमत्र सतत क्रियते न यत्न ॥डड॥ दान कल्याण का द्वार १०१ सगम का पालन-पोषण राजग्ृह में होने लगा । घन्‍ना आस पास में धनिको के घर के काम, सफाई, चौका-बतंन, आटा पीसना, आदि कार्य करके अपना और बेटे का निर्वाह कर लेती थी । उस समय आजकल की तरह मजदूरी अधिक नही मिलती थी। मजदूरी बहुत ही कम थी । इसलिए मुश्किल से माँ-बेटे का गुजारा चल पाता था। कुछ बडा हो जाने पर तो सगम भी कुछ घनिको के गाय-बछडो को जगल मे चरा लाता था। फिर भी इतना अधिक पैसा नही मिल पाता था, जिससे कि कभी भिष्टान्न या खीर- पूडी आदि भी खा सके । एक दिन कोई त्यौहार था। आस-पास के घनिको के हमजोली लडको के साथ सगम प्रतिदिन की तरह खेलने गया । घनिकपुत्रो ने समम से कहा--'आज तो हमारे यहाँ खीर बनेगी । बहुत स्वादिष्ट लगेगी। क्यो सगभ ! तुम्हारी माँ आज क्या बनाएगी ?”' ' सगम ने खीर कभी देखी ही नही थी, खाना तो दूर रहा। अत उसने पुछा--क्यो मित्र | खीर कंसे बनती है ? कैसी होती है ? बालको ने बताया कि खीर सफेद होती है, दूध और चावल को पकाकर बनाई जाती है, उसमे मीठा डाला जाता है, और ऊपर से किशमिश, बादाम, पिश्ता आदि मेवे डाले जाते हैं, बहुत ही मघुर और स्वादिष्ट होती है ।! सगम के मन में खीर खाने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई | उसे क्या पता था कि खीर के लिए पैसो का प्रबन्ध कैसे होगा ? घर में माँ के आते ही सगम ने कहा--माँ | आज तो हम खीर खाएँगे। खोर बनादे । सबके घरो में आज खीर बनेगी । हमारे यहाँ भी आज खीर ही बननी चाहिए । घन्ना एकदम सन्‍्नाटे मे आ गई। सोचने लगी--मेरी कमाई तो इतनी है नही, बेटा खीर माँगता है। बेचारे ने कमी खीर खाई नही और आज ही पहली बार भागी है। पर कहाँ से ला दूं । मजदूरी तो बहुत ही कम मिलती है, इतने में तो हम दोनो का गुजारा भी मुश्किल से होता है । हाय ! वे दिन कैसे अच्छे थे | इसके पिता के रहते हम गाँव मे रहते थे, वहाँ दूघ-धी की कोई कमी नही थी घर में ) पर भब तो वे अच्छे दिन पलट गए । क्‍या करूँ, कहाँ खीर बना दूं ” यो सोचकर घन्ना रोने लगी | सगम अपनी माँ को रोते देख उदास हो गया। पुछने लगा--'माँ ! त्त्‌ रोती क्यो है ” धन्ता ने सगम को सक्षेप मे अपनी परिस्थिति समझाई और कहा कि 'फिर कभी खीर बनाएँगे, आज जाने दे ।” पर सगम खौर के लिए मचल उठा | वह किसी भी तरह नही माना तो धन्ना यह कहकर चल दी कि अच्छा, में जाती हूँ, कही से मजदूरी करके खीर का सामान लाऊँगी ।' धन्ता की आँखों से आज सावन-भादो बरस रहा था । वह घनिको के यहाँ सबकी परिचित थी । सेठानियाँ उसकी आँखो मे आँसू देखकर पूछने लगी--..'घन्ना | १०२ दान भहृत्व और स्वरूप आज कया हो गया है, तुम्हे ! तुम्हारी आँखो में आँसू क्‍यों ? तुम्हे किस बात की चिन्ता है ? माँ-वेटा दो ही प्राणी तो हो घर मे ? क्या किसी का वियोग हो गया है? धन्ना ने आँसू पोछते हुए कहा-- 'नही, सेठानिजी ! किसी का वियोग नही हुआ है। लेकिन आज सगम खीर खाने के लिए मचल उठा है। कहने लगा--'लीर ही खाऊँगा, आज तो !” बताओ, में मेहनत-मजद्री करने वाली स्थ्री खीर कहाँ से ला दूँ! गुजारा भी मुश्किल से चलता है ।' 'इतनी-सी बात है ! इसमे क्यों तुम रो रही हो और क्यो अपने वच्चे को रुला रही हो ! ले जाओ खीर, हमारे यहाँ से | बच्चे को दे देना और तुम भी खाना !” सेठानियों ने सहानुभूति बताते हुए कहा । थो ले जाती, तब तो बात ही क्या थी ? मैं भुफ्त मे कोई चीज नही ले सकती | मेरे हाथ-पाँव चलते हैं, तब तक हमे मुफ्त मे लेने का अधिकार भी नही है। हम गृहस्थ हैं, गृहस्थ आमतौर पर मुफ्त में लेने का आदी नही होता । अगर मैं मुफ्त मे चीज ले लूंगी, तो मेरे बच्चे मे मुफ्त मे लेने की आदत पड जाएंगी । मैं तो अपनी भेहनत से जो कुछ मिल जाय, उसी में ही अपना निर्वाह कर सकती हूँ ।! सेठानियाँ--'अच्छा । बनी-बनाई खीर नही लेती हो तो लो, हम तुम्हे चावल दूघ ओर शक्कर आदि चीजें ला देती हैं । ये तो ले लो । घन्ना--सेठानियो | बिना मेहनत किये मैं किसी से कोई चीज मुफ्त में नही ले सकती । सेठानियो ने कहा--'तो चलो, हम तुमसे घर का कोई काम करवा लेती हैं, उसके बदले मे तुम्हे चावल, दूघ व शक्कर आदि चीजें दे देती हैं। फिर तो तुम खीर बनाओगी न अपने लाल के लिए । धन्ना ने सेठानियो की बात मजूर कर लो और खीर बनाने का सामान लेकर घर पहुँची । घर पर सगम ने देखा कि माँ खीर का सामान लेकर आई है तो वह बहुत प्रसन्न हुआ । धन्ना ने हडिया मे दूध गम करने को रखा और उसमे चावल एव मीठा डालकर जाने लगी । जाते-जाते वह सगम से कह गई--मैं धरो मे काम करके लगभग एक घण्टे मे जा जाऊगी। जब खोर पक जाय तो हडिया नीचे उतार लेना और थाली में ठडी करके खरा लेना। अच्छा, कर लेगा न ?” सगम ने स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया | ओर मा के चले जाने के बाद खीर की हडिया के पास बैठ गया | खीर जब पक गई तो हडिया नीचे उतार थाली मे खीर परोस ली | सगम अब खीर ठडी होने की प्रतीक्षा में था, इतने में ही मासिक उपवासी एक मुनि भिक्षा के लिए जा रहे थे। सगम ने भुनि को देखा तो उसके मन में विचार आया कि ऐसे मुनियों को मैं सेठो के यहाँ अकसर देखा करता हूँ, ये भिक्षा पर ही गुजारा करते हैं। तो आज मेरे यहाँ खीर बनी है, मै तो खा लूंगा, इनके पात्र मे पडेगी तो अच्छा है। वह उठकर अपनी कोठरी से बाहर निकला और मुनिवर को वन्दन-समस्कार करके प्रार्थना की--'मुनिवर | पघारो, मेरा घर पावन करो | मैं दान कल्याण का द्वार १०३ आपको भिक्षा दूँगा । मुनि ले सगम की भावना देखकर घर मरे प्रवेश किया और भाहार के लिए पात्र रखा | सगम मे बहुत ही उत्कट भाव से मुनिराज के रोकते-रोकते सारी की सारी खीर उनके पात्र मे उडेल दी। आज सगम को मुनिराज को देने का बड़ा हप॑ था | बाद में थाली में जो खीर लगी बची थी, उसे वह चाटने लगा। उसको एक तरह से मानसिक तृप्ति थी। इतने में मा भाई, बेटे को थाली चाटते देखकर वह समझी, बहुत भूख लगी होगी, इसलिए सारी खीर खा गया होगा | माता को कोई चिन्ता न थी, खुद को खीर न मिलने की । परन्तु सयोगवश उसी रात को समम के उदर में अतिशय पीडा हुई ओर उसी में ही उसका शरीर छुट गया । अन्तिम समय में सग्रम की भावना वहुत अच्छी थी । इसलिए मरकर वह राजग्ृह नगर के अत्यन्त घनिक सेठ गोभद्र के यहाँ जन्मा | शालिभद्र नाम रखा गया । बहुत ही सुन्दर ढग से उसका लालन-पालन हुआ | युवावस्था आते ही ३२ रूपवती कुलीन घर की कन्याओ के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ । इसी बीच गोभद्र सेठ का स्वगंवास हो चुका था। इसलिए शालिभद्र पर घर का सारा भार आ चुका था | परन्तु शालिभद्र इतना पुण्यशाली और सुख-सम्पन्न था कि घर का सारा कार्य माता भद्गा ही चलाती थी । शालिभद्र को जो ऋद्धि, समृद्धि तथा सुख-सामग्री मिली वह सुपात्रदान का ही प्रभाव था किन्तु सुख-सामग्री मिलने के साथ यदि धर्मे-बुद्धि ना मिले तो वह जीव उस पोदगलिक सूख में फंस जाता है | शालिभद्र को सुख-सामग्री के साथ तथा स्वर्गीय सम्पत्ति के साथ-साथ एक दिन घर्मंबुद्धि पैदा हुईं और तभी शालिभद्र ने चढती जवानी में सारी सुख-सामग्री एवं पत्नियो को छोडकर मुनि दीक्षा अगरीकार कर ली | यह था दान का चमत्कार जिसने सगम को दरिद्वावस्था मे से उठाकर शालि- भद्र के रूप में विपुल ऋद्धि एवं सुख-सामग्री से सम्पन्न बना दिया । इसी प्रकार कंयवन्ना सेठ को भी दान के प्रभाव से जहाँ भी जाता, सभी शुभ सयोग मिल जाते । प्राचीन जैन कथा साहित्य को पढने वाले और सुनने वाले जानते हैं कि दान के अचिन्त्य प्रभाव से अगणित आत्माओं ने सुख-सौभाग्य-समृद्धि-यश और आनन्द प्राप्त किया | विक्रम चरित्र मे बताया गया है कि पृथ्वी को ऋणमुक्त करने वाले राजा विक्रमादित्य को स्वर्ण पुरुष की प्राप्ति हुई, जिसके बल पर कभी भी उसका खजाना खाली नही हुआ । उस स्वर्णपुरुष की श्राप्ति का कारण पूर्वभवों में दिया गया पात्र दान ही बताया गया है ।* दानी के हाथ का स्पर्श सिट्टो सोना बन गई जैन स्थापत्य कला को उच्च शिखर पर पहुंचाने वाले प्रसिद्ध जैन आवक १ देलिए 'जैन कथाएँ भाग २२ कथानक ८, पृष्ठ ४€ १०४ दान महत्व भौर स्वरूप वस्तुपाल-तेजपाल गुजरात के राजा के महामन्त्री ये । दोनो भाई बडे दानवीर, सप॑- सेवक एवं दु खियो के हमदर्द थे। इनके विपय में कहा जाता है कि उन्हे दान के प्रभाव से ऐसा वरदान प्राप्त था कि जहाँ कही ठोकर भारत वही खजाना निकल आता । इसी प्रकार मुशिदाबाद के जगत्‌ सेठ भी बडे दानपरायण थे | उनके विपय मे भी किवदन्ती है कि वे जहाँ कही हाथ डालते, वही स्वर्णराशि पा लेसे थे। एक बार वे नौका से नदी पार कर रहे थे, तभी किसी ने उनसे धन माँगा । उन्होने पानी में हाथ फैलाकर मुट्ठी भरी कि जलधारा स्वर्णराशि बन गईं | सम्मव है, इस कथन में अतिशयोक्ति हो, परन्तु इतना जरूर है कि वे जिस क्षेत्र में ह्वाथ डालते, उसी में वारे-न्यारे हो जाते थे | यह दान की महृत्ता थी, जो जगतूसेठ को इस प्रकार की समृद्धि का वरदान मिला | इन सवको देखते हुए नि सन्देह यह कहा जा सकता है कि दान से सम्पत्ति बढती है सुख-सामग्री दान के बदले मे बई गुना अधिक प्राप्त होती है, दान देने वाला घाटे मे नही, नफे मे रहता है। बहुत-से लोग आ्ान्तिवश यह सोचा करते हैं कि दान दूंगा तो कगाल हो जाऊँगा । वास्तव में दान से कगाली नही, खुशहाली बढती है। कई दफा तो दान का चमत्कार यही का यही प्रत्यक्ष नजर आ जाता है, कई दफा परलोक मे प्राप्त होता है । दान फा हजार गुना फल आकाश से पूर्णिमा का चन्द्रमा गरीब-अमीर के भेदभाव के बिना सर्वत्र चाँदनी छिटका रहा था। गरीबो के मोहल्ले मे कुछ दु खो गरीब इकट्ट होकर चर्चा कर रहे थे। चर्चा का विषय था--इस नगर मे सर्वेश्रेष्ठ दाता कौन है” एक ने कहा-- “अमुक सेठ दानियो का अवतार है। उसके यहाँ से कोई भो खाली हाथ नहीं लौटता । भोजन करने वाले थक जायें, पर इसके हाथ खिलाते हुए नहीं थकते ! दूसरे ने कहा--अमुक सेठ का तो कहना ही क्या ? वह तो राजा कर्ण का अवतार है। देते लगता है, तब जेब मे हाथ डालने पर मुट्ठी मे जो भी आए नि सकोच दे देता है । धन्य है, इसके माता-पिता को | | पे तीसरा बोला--'थये सब कर्ण के अवतार हैं सही, पर अपने गाँव में घर्मवीर सेठ हठीमाई तो पारसमणि हैं । इन्हें कोई लोहा स्पर्श कराए तो, उसका सोना बन जाता है। ऐसे ये ओऔढरदानी हैं। इनके एक बार के दान में बन्दे का बेडा पार हो गया । कलियुग मे ऐसे दाता न हुए, न होगे ।' दरिद्रो की इस बस्ती में रहने वाली सतारा नाम की बुढ़िया के कान में में अन्तिम वाक्य पडे । उसका इकलौता लडका इलाज के अभाव में रुग्णशब्या पर पडा तडफ रहा था। पास में पैसा था नहीं कि इलाज करा सके । बुढिया स्वय उसी पुत्र की आशा से जी रही थी । यो तो कही जाने की शक्ति बुढिया के शरीर मे नहीं रही दान कल्याण का द्वार १०५ थी, लेकिन इन वाक्‍्यों को सुनते ही वृढिया के दिल में आशा का सचार हुआ । उसने सारी शक्ति बटोर कर हाथ मे लठिया ली और दूसरे हाथ में लोहे का टुकडा लेकर हाँफती, श्वास लेती, धीरे-धीरे हठीभाई सेठ की हवेली पर पहुँची । विचारमग्न सेठ के दाहिने पैर से ज्योही वह लोहे का टुकडा छुआने गई, त्यो हो सेठ एकदम चौक उठे । बुटिया की यह विचित्र चेप्टा देखकर सेठ ने जरा गर्म होकर पूछा--“बुढिया माँ जी ! यह क्या कर रही हो ?” बुढिया बोली---मैंने सुना है कि आप पारसमणि है। आपके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है। माफ करना, खुदा के वास्ते, में गरीब अभागिनी हूँ। जरूरतमद हूँ | मुझमे अवल नही है। इसी से आपके दरवाजे पर आई हूँ, लोहे का सोना बनाने के लिए। मेरा गुनाह माफ करना ।” सेठ ने बुढिया पर एक शान्त दृष्टि डाली--निश्ालिस चेहरा, पीडा से भरी आँखें, मुख पर से झरता वात्मल्य ! यह सब देखते ही सेठ का हृदय करुणाद्ं हो गया। सेठ ने बुढिया से वह लोहे का टुकडा ले लिया और कहा--'माँजी ! जाओ, उस पटूटे पर बैठ जाओ ।' किन्तु वृढिया का साहस न हुआ । वह शान्त खडी-खडी तमाशा देखती रही। मन मे अन्तद्व दर चलने लगा। सेठ ने मुनीम को वुलाकर, वह लोहे का टुकडा तुलवाया तो पूरे २५ तोले का निकला । सेठ विचार में पडा--'मेघ बाकाश में न हो तो वर्षा नहीं होती, पर नदी के सूख जाने पर भी तृपातुर को वहाँ गड्ढा खोदने पर थोडा-सा पानी मिल ही जाता है। चाहे मेरी स्थिति आज तग है, फिर भी मुझे इसे अल्प में से अल्प देना ही चाहिए | कहा भी है-- चोडी चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नोर। यह वेचारी तृथातुर है | यद्यपि मेरी स्थिति आज तग है, तथापि यह बुढिया मेरे यहाँ से खाली हाथ लौटे यह मेरे लिए शोमास्पद नही है। इससे तो धर्मी और धर्म दोनो बदनाम होगे ।/ अत सेठ ने मुनीम से कह्ठा---इस लोहे के बदले उस बुढिया को २५ तोला सोना तौल दो ।” सेठ के कहने की देर थी, बुढियां का काम झटपट हो गया । सोने का टुकडा लेकर घर की ओर जाती हुईं सतारा बुढिया की आँखों में हर्पाश्रु वह रहे थे । वह वुढिया मन ही मन आशीर्वाद दे रही थी-... अल्लाह इन्हे वरकत दे ! लोग कहते हैं, उसमे जरा भी अतिशयोक्ति नही है । सचमुच सेठ पारस- भणि हैं ।/ कहते हैँ, इस घटना के बाद कुछ ही महीनो मे सेठ की सम्पत्ति का सूरज फिर से लाख-लाख किरणो से जगमगा उठा । कई वार दान के प्रति अश्वद्धा हो जाने के कारण व्यक्ति सोचता है--पता नही, यह दान निष्फल चला गया तो ! बदले में कुछ भी न मिला तो | यश गौर प्रतिष्ा भी न मिली तो | इस श्रकार से विचार करने वाले सशय मे पडकर दान १०६ दान महत्व भौर स्वरूप नही दे पाते, परन्तु दान देने मे साहसी, आत्मविश्वासी ओर उदार व्यक्ति जहाँ भी दयनीय करुणा पात्नो को देखता है, मुक्तहस्त से आग्रा-पीछा सोचे विना दान देकर प्रकट से उन्हे उबार देता है । दोन्नीवे के पिता ने जब उसे विदेश जाकर धनोपार्जन करने को कहा तो वह प्रसन्नतापूर्वक अपने जहाज मे माल लादकर रवाना हुआ । रास्ते मे एक तुर्की जहाज मिला, जिसमे से यात्रियों का करुण क्रन्‍्दन सुनाई दे रहा था, दयालु दोज्ीवे से रहा न गया। उसने चिल्लाकर कप्तान से पूछा--'भाई ! तुम्हारे जहाज में लोग रो क्यो रहे हैं ? क्या वे भूखे हैं या बीमार हैं ? तुर्की कप्तान बोला---नही, ये तो कंदी हैं । इन्हे हम गुलाम बनाकर बेचने को ले जा रहे हैं ।' 'तो 5हरो हम आपस में सौदा कर ले'--दोढ़ीवे ने कहा । तुर्की कप्तान ने पास जाकर देखा तो पता चला कि दोद़ीवे व्यापार के लिए कही जा रहा है और उसका जहाज माल से लदा है। फलत वह अपना जहाज बदलने को तैयार हो गया ॥ इस प्रकार उसने अपने जहाज का माल दान देकर बदले भे गुलामो को छुडाया । दोब़ीवे तुर्की जहाज लेकर आगे चल पडा | कुछ दूर जाने पर उससे तुर्की कैदियों से अपने पते-ठिकाने पूछे और जो जिस देश का था, उसे वही पहुँचा दिया | इसी प्रयत्न मे एक सुन्दर कन्या और उसी के साथ रहने वाली एक बुढिया को ठिकाने नही पहुँचाया जा सका | उनका घर बहुत दुर था, तथा उस देश का रास्ता भी मालूम न था। कन्या ने कहा--मैं रूस के जार की पुत्री हूँ भौर यह बुढ़िया मेरी दासी है। मेरा! घर लौट पाना कठिन है | इसलिए मैं विदेश मे ही रहकर अपनी रोजी कमाना चाहती हूँ ।” दोब़ीवे सुन्दर और बुद्धिमान था, साथ ही परोपकारी एवं दानशील भी । अत. कन्या ने उसके ग्रुणो पर मुग्ध होकर दोन्नीवे को मनाकर उसके साथ विवाह कर लिया। दोनो का जीवन आनन्‍्दमय हो गया । इधर उसके पिताजी बन्दरगाह पर उससे मिलने की प्रतीक्षा में ये । ज्यों ही जहाज बन्दरगाह पर आया, दोऩीवे ने अपने पिताजी को प्रणाम करके प्रसनन्‍नतापूर्वक कहा--'पिताजी ! मैंने आपके घन का सदुपयोग हजारो दुखियो को सुखी बनाने में किया है और साथ में एक सुन्दर दुलहिन भी लाया हूँ, जिसके आगे हजारो जहाजो की कीमत मो कुछ नही ।” इस पर उसके पिता बहुत बिगडे और दोज़ीवे को भला- घुरा कहा । कुछ दिनो बाद यह समझकर कि मेरा बेटा अब ऐसी भूल न करने की समझदारी पा गया होगा, पिता ने दूसरी बार माल से जहाज लद॒वाकर उसे व्यापार करने भेज दिया । दोब्ीवे जब अपने जहाज पर बैठकर दुसरे बन्दरगाह पर पहुँचा तो उसने देखा कि सिपाही लोग कुछ गरीबो को जबरन पकडकर कंद कर रहे हैं, और उनके बाल-बच्चे बिछुदते देखकर बिलख-बिलख कर रो रहे हैं--दोन्ीवे से यह करण हृए्य देखकर न रहा गया। पूछताछ करने पर पता चला कि उन पर राज्य की ओर दानव कल्याण का द्वार १०७ से लगाये हुए टैव्स को न चुका सकने के अपराध में उन्हें कद किया जा रहा है, दोद़ीवे ने अपने जहाज वा सारा माल बेच कर उन लोगो का टैक्स अपनी ओर से चुका दिया । इस अदुमुत दान से सभी कैदी वन्धव से छूट कर अपने-अपने घर चले गये बौर ज्ञानन्द से रहने लगे । इधर धर लोटकर दोब्ीवे ने अपने पिताजी की सारा वृत्तान्त सुनाया तो वे बहुत नाराज हुए और उन्होने उसकी पत्नी और बुढिया के सहित उसे घर से निकाल दिया । किन्तु पड़ोसियों के समझाने पर फिर उन्हें घर में स्थान दे दिया। कुछ महीनों वाद पिताजी ने उसे तीसरी वार व्यावार के लिए भेजते हुए कडी चेतावनी दी कि यदि पहली दो यात्राओ में को गई मूर्खता की तरह फिर मूखंता की तो मैं तुम तीनो को ख्वाना न दूंगा, तुम्हे भूखे मरना होगा । व्यापार के लिए मैं तुम्हे तीसरी वार भासिरी मौका दे रहा हु । दोब़ीवे इस वार जहाज पर सवार होकर जिस वन्दरगाह पर उतरा, वहाँ उसे दो पुरुष वादशाही पोशाक पहने हुए दिखाई दिये । उनमे से एक ने कहा-- आपके हाथ की उगली में जो अग्रूठी है, वह जानी-पहचानी मालूम होती है। मेरी लडकी भी ठीक ऐसी ही अगूठी पहना करती थी । आपको यह अगूठी कहाँ और कंसे मिली ? पताइए । दोद़ीवे के मुँह से सारा वृत्तान्त सुनने पर बादशाह को विश्वास हो गया कि निश्चय ही यह राजकन्या का पति है। अत प्रसन्‍त होकर बादशाह ने कहा--'मैं रूस़ का बादशाह जार आपका ससुर हूँ। अपने परिवार को लेकर आप रूस चले आइए। में आपको आधा राज्य सौंप दूँगा । आपके साथ मैं अपने मन्‍्त्री को भेजता हैँ, जो आपको मेरे देश (रूस) का भार्ग बता देगा ।” यह कहकर वादशाह रूस की ओोर तथा भन्‍्त्री और दोद़ीवे घर को ओर रवाना हुए । इस बार उसके पिताजी ने सारी बातें सुन कर उसे किसी प्रकार की डाट- पटकार नहीं बताई, वल्कि सारे परिवार सहित प्रसस्ततापृर्वके रूस जाने के लिए जहान मे जा बैठे । जहाज रवाना हो गया । मन्‍्त्री को दोब़ीवे के भाग्य से ईर्ष्या होते लगी। इसलिए दोश्नीवे को बीच समुद्र मे ही घकेल दिया । जहाज तीब्रगति से आगे का जा रहा था। दोब़ीबे किनारे पहुंचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पैर हिला रहा हैं पौमाग्य से एक समुद्री छ्िलोरे ने उसे ठेठ किनारे पर ला पटका । वहाँ एक प्वान पर बैठकर उससे विश्राम किया | तीन दिन जगल के कैसे भी निकाले | चौथे दिन एक मछुआ अपनी नौका लिए वहाँ निकला । दोद़ीबे का सारा वृत्तान्त सुनकर के ने कहा--मैं आपको अपनी नौका मे विठाकर रुस तक पहुँचा सकता हूँ, बशततें हे लक आपको मिलने वाली सम्पत्ति मे से आधा हिस्सा देना मजूर करें ।” दोन्नीवे उसकी शर्त मजूर करली और उस नौका में बैठ कर वह रूस के बन्दरगाह पर भा पहुँचा | वहाँ से बह सीधा राजमहल महल मे पहुंच कर बादशाह जार से मिला । उसे १०८ दान महत्व और स्वरूप सकुशल आया देख जार की प्रसन्नता का पार न रहा । दोब्ीवे ने अपना वृत्तान्त ज्यो का त्यो सुनाकर प्रार्थना की कि मन्त्री के अपराध को क्षमा कर दिया जाय । उसकी इस उदारता से बादशाह इतना अधिक प्रसन्न हुआ कि उसने अपना सारा राज्य दोन्रीवे को सौंप दिया, और स्वय विरक्त होकर प्रमुमक्ति में लग गया। जिस दिन दोन्नीवे के सिर पर मुकुट रखा गया, उसी दिन वह बरूढा मछुआ सामने ध्यकर खडा हुआ और अपने साथ हुए वादे की याद दिलाई । दोश्नीवे ने उसका स्वागत करते हुए कहा-भाइए महाशय ! मुझे अपना वचन भलीभाति याद है। राज्य का नकशा देखकर हम आधा-आधा आपस में बाट लें और इसके बाद चलकर खजाना भी बाद लें ।' यह सुनते ही बृढे की बाछें खिल गईं। उसने दोब़ीवे की पीठ ठोकते हुए कहा--“शाबाश थेटे ! अपने जीवन भें इसी प्रकार दयालू, दानी और वचन के पक्‍्के बने रहो । मैंने पहिचान लिया कि तुम मानव के आकार भें सच्चे देव हो, पधर्मात्मा हो । यह जीवन परोपकार के लिए ही है ।” यो कहकर बिना कुछ लिए हो वह चूढा चला गया। दोन्ीवे आनन्दपूर्वक राज्य करने लगा, किन्तु अपनी दानवृत्ति उसने चालू रखी । वास्तव मे दान देने वाले को हजारों गुना अधिक मिलता है। दान देने से सम्पत्ति बढती ही है घटती नही । दान का यह प्रतिफल उसी को मिलता है, जो नि स्वार्थभाव से दान करता है। कभी-कभी तो दान का ऐसा चमत्कार दिखाई देता है कि जो धस्तु दान दे दी गई है, देने के बाद उनकी गिनती करने पर सख्या में उतनी की उतनी ही मिलती है | दान का चमसरकार सायला (सौराष्ट्र) मे एक लाला भक्त बहुत प्रसिद्ध हो चुका है। वि० स० १८५६ में लाला भक्त का जन्म सीघाबदर मे हुआ। जब लालाभक्त ७ साल का बालक था, तम्नी एक दिन उसके पिताजी उसे दुकान पर बिठाकर कही बाहर चले गए । इसी दौरान १५ सन्यासियों को ठड से कापते हुए लाला भक्त ने देखे । लाला सस्कारी जीव था। उसे सन्यासियों को शर्दी से ठिदृरते देखकर दया आई तुरन्त उसने १५ गर्म कबल दूकान से निकालकर प्रत्येक साधु को एक-एक कबल दे दिया | साधु वे कबल लेकर चल दिये । लाला ने सोचा---“पिताजी भएँगे, वे कबलें न देखकर क्या कहेंगे ? ज्यादा से ज्यादा वे मुझे पीटेंगे । भले ही पीटलें। मैं मार सहन कर लूँगा ।' यो सोचकर लाला भक्त बाहर चला गया । पीछे से पिताजी दुकान पर आए। पडौसी दूकानदारो ने लाला के पिताजी से कहा--आज तो आपके लाला ने खूब व्यापार किया है, जरा कबल निकालकर गिनो तो सही ।' यह सुनकर उन्होंने कबसें गिनीं तो पूरी थी, एक भी कम न थी । प्रत्यक्षदर्शी पडौसियो को इस' पर बडा आश्चर्य हुआ । उन्होने कहा--हम आपसे झूठी बात नहीं कहते। हमने लाला को १५ कबलें साधुतो को देते देखा है। हमारे साथ चलो, हम तुम्हे प्रत्यक्ष बता देंगे । दान कल्याण का द्वार १०६ यह कह कर एक पडौसी दृकानदार लाला के पिता को उसी मार्ग से ले गया, जिधर वे साधु-सन्यासी गये थे । वहाँ जाकर देखा तो उन साधुभो के पास वे कबलें थी। इससे पिता को लाला की सस्कारिता और प्रमुमक्ति पर विश्वास हो गया । लाला भक्त अपने पिताजी से कोई बात गुप्त नही रखते थे । सत्यवादी और परमभक्त लाला के दान के और भी चमत्कार लोगो ने देखें । सच है, दान दिया हुआ खाली नही जाता और प्राय दान देने से द्रव्य घटता भी नही है। दान के लौकिक और लोकोत्तर लाभ के अतिरिक्त इहलौकिक और पारलौकिक लाभ भी कम नही है| दान दाता को अनेको लौकिक (इहलोक मे और परलोक मे) लाभ प्राप्त होते हैं । एक वार सिंह सेनापति ने तथागत बुद्ध से प्रश्न किया---'मते ! दान से प्राणी को क्‍या लाम होता है ” इस पर तथागत बुद्ध ने कहा--आयुष्मन्‌ | दान से ४ लौकिक लाभ हैं)--- (१) दाता लोकप्रिय होता है, (२) सत्पुत्पो का ससर्ग प्राप्त होता है, (३) कल्याणकारी कीति प्राप्त होती है। और (४) किसी भी सभा में वह विज्ञ की तरह जा सकता है और पारलौकिक लाभ यह है कि परलोक मे वह स्वर में जाता है, वहाँ भी दान के प्रभाव से ऋद्धि और वैभव पाता है। यह अद्ृष्ट लाभ हैं । पिछले पृष्ठो में दान से पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, नैतिक धार्मिक ओऔर सास्क्ृतिक क्षेत्र में कया क्या लाभ होते हैं ? इसकी विस्तृत चर्चा कर आए हैं। सक्षेप मे, दान कामधेनु है, कल्पतर है और अमृतफल है, जो भी व्यक्ति दान का सक्रिय आचरण, आसेवन और साक्षात्कार करता है उसे अपने जीवन में किसी प्रकार की कमी नही रहती, दान से सब प्रकार की पूर्ति हो जाती है । है १ अगुत्तर निकाय ५/३४-३६ [68| दान : धमे का प्रवेश द्वार दान धर्म का प्रवेश द्वार है। कोई व्यक्ति किसी भवन मे द्वार से ही प्रवेश कर सकता है, इसीप्रकार धर्म रूपी भव्य भवन का प्रवेश द्वार दान है । क्योकि जब तक हृदय शुद्ध नही हो जाता, तब तक उसमे धर्म ठहर नही सकता" और हृदय शुद्धि उसी की होती है, जिसमे सरलता हो, नज्ञता हो, मृदुता हो | ये तीन गुण हृदय शुद्धि के लिए सर्वप्रथम आवश्यक हैं । परन्तु इन तीनो गुणो का उद्गम दान से ही होता है । किसान बीज बोने से पहले खेत को रेशम की तरह मुलायम करता है, उसके पश्चात्‌ उसमे बीज बोता है | हृदय रूपी खेत को भी दान से मुलायम किया जाता है । दान जीवन की एक अदुभुत कला है, जिसे सक्रिय करने से पहले दीन-दुखियो, गरीबो, अपाहिजो, असह्ायो था पीडितो के प्रति अनुकम्पा, दया और करुणा के कारण हृदय नम्न बन जाता है, दानपात्रो के प्रति सहानुभूति और आत्मीयता के कारण हृदय भृदु और सरल बन जाता है । दान देने वाले मे जब अहकार नही रहता, एहसान' करने को बुद्धि नही रहती, तभी दान सच्चा दान होता है। इसलिए दान से हृदय- रूपी खेत को मुलायम बनाकर ही न्नत या घ॒र्मं रूपी बीज बोया जा सकता है । इस्लामधर्म के प्रवर्तक हजरत भुहम्मद साहव ने कहा था--'प्रार्थना साधक को ईश्वर के मार्ग पर आधी दूर तक पहुँचाएगी, उपवास महल के द्वार तक पहुँचाएगा और दान भहल मे प्रवेश कराएगा ।' इसलिए दान' धर्मेपी भव्यभवन मे प्रवेश करने के लिए प्रथम द्वार है क्योकि दान से हृदय कोमल होकर जीवन शुद्धि होती है और शुद्ध जीवन में ही धर्म ठिक सकता है। शुद्ध जीवन का प्रारम्भ दान से ही होता है, इसलिए दान को धर्म का प्रवेशद्वार करने में कोई अत्युक्ति नही | कैकय देश की श्वेतास्बिका नगरी का राजा प्रदेशी अत्यन्त कर और नास्तिक बना हुआ था । वह स्वगें-नरक, श्लात्मा-परमात्मा और धघर्मेकर्म को बिलकुल नहीं १ सोही उज्जूयभूयस्स धम्मों सुद्धस्स चिटुई ।---उत्तराध्ययन दान धर्म का प्रवेश द्वार १११ मानता था । इन सबको वह धर्म का ढकोसला समझता था। उसके हाथ सदा खून से रगे रहते थे । धर्म क्या है ” यह कभी जानने का उसने प्रयत्न ही नहीं किया। वह इतना कठोर और निर्देय था कि प्रजा उससे सदा भयभीत रहती ,थी। दूसरों को दुख देना, उसके लिए मनोविनोद था । शरीर से अतिरिक्त कोई आत्मा नही है, यह उप्तका हष्टिकोण था। अभी तक कोई समर्थ पुरुष उसे नही मिला था, जो उसके दृष्टिकोण को वदल सके । प्रजाजन भ्रदेशी राजा को साक्षात्‌ यमराज समझते थे । श्रावस्ती नूप जितशन्रु प्रदेशी नूप का अभिन्न सिन्न था। एक बार भ्रदेशी ने अपने अभिन्‍न मित्र श्रावस्ती नृप को एक सुन्दर उपहार देने के लिए अपने विश्वस्त एव वुद्धिमान्‌ मन्‍्त्री चित्तसारथी को भेजा, साथ ही वहाँ की राजनैतिक गतिविधि का अध्ययन करने भी । उस समय श्रावस्ती में भगवान पाश्वेनाथ की शिष्यपरम्परा के समर्थ आचाये केशीश्रमण पघारे हुए थे । चित्त ने उनकी कल्याणमयी वाणी का लाभ उठाया। चित्त को केशीश्षमण मुनि का प्रवचन सुनकर बहुत आनन्द आया, मानो से क हुआ घन मिल गया । उसने केशीक्षमण से श्रावक के बारह ब्रत अगीकार । लोटते समय चित्त ने केशी श्रमण से श्वेताम्बिका पधारने की प्रार्थना की । किन्तु केशी श्रमण प्रदेशी नूप को ऋूरता तथा अधमंशीलता से भलीभाति परिचित थे। उन्हे अपना भय न था, किन्तु धर्म और सघ की अवज्ञा न हो, इसकी उन्हे गहरी चिन्ता थी | इसलिये वे मौन रहे। चित्त ने दुबारा प्रार्थना की, फिर भी मौन रहे । तीसरी बार भी जब वे प्रार्थना के उत्तर मे मौन रहे तो चित्तसारथी विनम्र एव सतेज स्वर में वोला--“भते ! आप किसी प्रकार का विचार न करें, श्वेताम्बिका मवश्य ही पघारें । आपके वहाँ पधारने से राजा, प्रजा तथा सभी को बहुत बडा लाम होगा । धर्म की महती सेवा होगी ।” केशीश्रमण विहार करते-करते श्वेताम्बिका पधार गये । और नगरी के उत्तर-पूर्व कोण मे जो सुरभित व सुरम्य उपवन--मृगवन था, उसी में वे विराजमान हुए। भ्रजाजन उनकी अमृत वाणी का लाभ उठाने लगे। उनकी प्रवचन शैली बहुत ही आकर्षक थी | एक दिन चित्तसारथी अवसर देखकर प्रदेशी नूप को अश्व परीक्षा के बहाने भूगवन की ओर ले आया । शान्त होकर चित्त और प्रदेशी नृप मृगवन में चले गये । वहाँ केशीक्रमण जनता को धर्मोपदेश दे रहे थे । राजा ने घृणाहृष्टि से एक बार केशी- भ्रमण की ओर देखा । परन्तु केशीक्रमण सामान्य रूच्त नही थे। वे चार ज्ञान के घनी ओर देश-काल के ज्ञाता थे। केशीक्रमण के सबम और तप के अदूभुत तेज व प्रभाव से तथा चित्त की प्रेरणा से वह केशीक्रमण के चरणों मे पहुँच गया। उनकी ध्मदेशना सुनकर राजा प्रभावित हुआ । उसने केशीक्रमण से ६ प्रश्न किये, जिनका तकंपूर्ण और युक्तिसगत समाधान पाकर वह प्रसन्न हो गया। उसके जीवन में बाज यह चमत्कार था । उसकी चिरसचित शकाओ का आज मौलिक समाधान हो चुका । न ११२ दान भहंत्व और स्वरूप जीवन की दिशा बदल गईं। उसने श्रावक धर्म अगीकार किया । और केशीश्रमण को नमस्कार करके प्रस्थान करते समय उसने उनके समक्ष अपनी शाज्यश्री के चार विभाग करने का सकल्प किया | उन चार विभागो में से एक विभाग से* विराद दानशाला खोली, जहाँ पर जो भी श्रमण, भाहण, भिक्षू, पथिक आदि भाते उन्हे वह सहर्प दान करने लगा | इससे यह प्रतिफलित होता है कि प्रदेशी राजा अमगल से मगल, क्रूरता से कोमलता और अधघरम में घर्मं की ओर मुडा, इसमे उसकी दानशील वृत्ति भी परम कारण बनी | प्रदेशी की दानशाला से कई लोग लाभ उठाते थे, अब उसे लोग श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे थे । इस प्रकार प्रदेशी राजा के लिए दान धर्म का प्रवेश हार वन गया | एक और हृष्टि से देखें तो भी दान धर्म का प्रवेश द्वार वनता है। धर्म आत्म- शुद्धि का साधन है । बुरी वृत्तियो, दुव्यंसनो या बुराइयो को छोडे बिना आत्मशुद्धि नही हो सकती । इसलिये वुरी वृत्तियों या वुराइयो का दान कर देना, उनके त्याग का सकलल्‍्प कर देना भी धमंरूपी प्रासाद मे प्रवेश करने का द्वार बन जाता है। जिस आत्मा की शुद्धि होती है, वही धर्म मांगे पर चल सकती है। इसलिए धर्म मार्ग पर चलने के लिए बुराइयो या दुब्यंसनो का दान (त्याग) कर देना भी धर्म मे प्रवेश करने का कारण है। विदेश में एक मजदूर की शराब पीने की आदत थी । जब उसने एक स्त्री के साथ विवाह किया तो लग्त के एक दिन पहले उसने एक कागज पर मदिरा-पान कभी न करने की प्रतिज्ञा लिखी और उस प्रतिज्ञापन्न को सुन्दर फ्रेमयुक्त शीशे में मढवाकर अपनी पत्नी को भेंट के रूप में दान दे दिया । ऐसे मदिरा त्याग के दान से बढ़कर भेंट कौन-सी हो सकती है ? यह व्यसन त्याग का दान भी धर्म-प्रवेश का कारण बना ॥ जीवन भे ऐसे अद्भुत दान--जो किसी दुब्यंसन या बुराई के त्याग से 4३४ ३ होते हैं, आत्मशुद्धि के कारण होने से मानव को धर्मग्रवेश के योग्य बचा | दान धर्म का शिलान्यास दान को घर्मं का शिलान्यास कह सकते हैं। इस शिलान्यास पर ही घम्मे का सुहावना भ्रासाद निर्मित हो सकता है जो व्यक्ति जीवन में धर्म की आराधना-साधना करना चाहते हैं, उन्हे सर्वप्रथम दान को अपनाना आवश्यक होता है। दान धर्म की १ ” एगेण भागेण महई महालय कूडागार साल करिस्सामि, तत्थण बहूहिं पुरिसेहि दिन्‍नभईभत्त वेयणेह विठल असण ४ उवक्‍्खडावेत्ता बहुण समण-माहण- सिक्‍्लूयाण पथिस-पहियाण पडिलामेसाणे ” -- रायप्पसेणिय सुत्त दान धर्म का प्रवेश द्वार ११३ नीव रखता है। धर्म की बुनियाद पर जो प्रवृत्ति होती है, वह पापकर्म का बन्ध करने वाली नही होती, धर्म की आधारशिला दान के द्वारा ही रखी जा सकती है। जब जीवन मे दान की भावना आती है तो वह करुणा, दया, सेवा, सहातुभूति बात्मी- यता आदि के रुप मे महिसा की भावना को लेकर बाती है, दान करते समय अपनी वस्तु का त्याग करके अपने आप पर सयम करना पडता है और कई बार दानी को अपनी इच्छाओं का निरोध, अपनी सुख-सुविधाओ का त्याग एवं कष्ट सहन करना पढ़ता है, यह सब तप के अन्तर्गत आता है । इस प्रकार अहिंसा, समम और तपरूप धर्म का शिलान्यास दान के द्वारा अनायास ही हो जाता है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में दान को द्रव्य और भाव से स्पष्ट रूप से अहिसा माना गया है-- --“अतिथि सविभागव्रत (दान) मे परजीवो का दु ख, पीडा, चिन्ता आदि दूर करने के कारण द्रव्य-अहिसा तो प्रत्यक्ष है ही, रही भाव-अहिंसा, वह भी लोभ-कषाय के त्याग की अपेक्षा से समझनी चाहिए !”* बत दान में महिसा, सयम और तप का समावेश होने के कारण भी दान धर्म की आधारशिला वन जाता है| इग्लैंड के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने एक सदय, सहृदय सज्जन के रूप में काफी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । उन्हे वैद्यकशास्त्र का अच्छा ज्ञान था। बहुत-से रोगी उनके घर पर इलाज कराने के लिए आते थे । वे वैद्यम का घन्धा कमाई की दृष्टि से नही, मानव सेवा की हृष्टि से करते थे । एक बार एक गरीब भहिला का पति बीमार हुआ । काफी इलाज कराने पर भी कोई लाभ न हुआ । आखिर किसी ने उसे महा- कवि गोल्डस्मिथ से इलाज कराने की राय दी | वह महिला पूछती-पूछती महाकवि के यहाँ पहुँची और बोली---'मेरे पतिदेव कई भह्दीनो से बीमार हैं । बहुत दवाइयाँ दी जा चुकी हैं, मगर बीमारी मिटने का नाम ही नही लेती । अब मैं आपकी शरण में भाई हूँ । कृपया, मेरे साथ चलकर आप उनकी हालत का निरीक्षण कर लीजिए ।” उस भहिला की प्रार्थना सुनते ही कवि उसके साथ उसके घर पहुँचे । उसके पति की हालत देखी तो पता चला कि मानसिक अस्वस्थता ही उसके रोग का प्रधान कारण है। ओर मानप्तिक अस्वस्थता का कारण है--गरीबी । अत महाकवि महिला से यह कहकर चले आये कि मैं रोगी के रोग को समझ चुका हूँ । घर जाते ही किसी के साथ दवा भिजवाता हूँ | घबराइए नही । मेरी दवा से उनका स्वास्थ्य ठौक हो जायगा ।” अपने घर पहुँच कर महाकवि ने एक छोटी-सी पेटी भेज दी, और उस पर लिख दिया--“आवश्यकता होने पर यह पेटी खोलें और भीतर रखी हुई दवा का १ छृतमात्मार्थ मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्याग | अरतिविषादविमुक्त शिथिलितलोभो भवत्यहिसैव ॥'-- १७४ ११४ दान भहत्व और स्वरूप प्रयोग करे ।” गरीब महिला ने ज्यो ही पेटी खोली, त्यो ही उसके आएचय का पार न रहा, क्योकि उसमें दवा के बदले सोने की दस मुहरें थी । उनके साथ एक चिट भी थी--'यह आपके रोग की दवा है, जो मैं अपनी ओर से दे रहा हू ।/” दम्पती ने मन ही मन' महाकवि को उनकी उदारता के लिए प्रणाम किया । वास्तव मे रूण पर दया करके गोल्डस्मिथ हारा दिया गया यह दान अहिंसा धर्म को नीव पर आधारित था | इसलिए दान को धर्म का शिलान्यास कहने मे कोई भत्युक्ति नही । दान ग्रहस्थ-जीवन का सबसे प्रधान गुण दान श्रावक के जीवन का प्रधान गुण है | कई धर्म ग्रन्यो में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। श्रावक का जीवन केवल तात्तविक (विचार) दृष्टि से ही उदार न हो, अपितु सक्रिय आचरण की दृष्टि से भी विराट हो, वह अपने सम्बन्धियो फो ही नही, जितने भी दीनदु खी, अतिथि मिलें, सबके लिए उसके घर का द्वार खुला रहे ।१ शास्त्र मे तुगिया नगरी के श्रावको के घर का द्वार सबके लिए सदा खुला बताया गया है--- उसिह फलिहे, अवगुनदुवारे ।* “जो भी अतिथि, अभ्यागत उनके द्वार पर आता, उसका वे हृदय से स्वागत करते थे और आवश्यक वस्तु प्रसन्नता से दे देते थे । देना ही उनके जीवन का प्रधान लक्ष्य होता था । आवक के तीन मनोरथो में प्रथणथ मनोरथ यह है कि “वह दिन मेरे लिए कल्याणकारी व घन्य होगा, जिस दिन मैं अपने परियग्रह को सुपात्र की सेवा में त्याग (दे) कर प्रसन्नता अनुभव करूँ गा, ममता के भार से मुक्त बनूगा । प्रत्येक गहस्थ के लिए सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से दान का विधान करते हैं। यहाँ तक कि कुछ भी दान देकर खाए, दान देने से पहले भोजन न करे यह गृहस्थ का नियम होता था। कई गृहस्थ इस प्रकार का नियम भी लेते थे कि बिना दान दिये मैं भोजन नही करूँगा | रयणसार ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से कहा गया है--- “दाण पुजा सु सावयघम्से य सावयातेण विणा। * ” ““:सुपान्न मे चार प्रकार का दान देना और देव-गुरु-शास्त्र की पूजा करना गृहस्थ श्लावक का भुख्य धर्म है। दान के बिता ग्रहस्थ श्रावक की शोभा नही है| १ योगशास्त्र, श्राद्ुणविवरण, धर्मेबिन्दु एव_ घर्मरत्न भें इस बात को स्वीकार किया गया है । २ भगवती सूच्रश २उ ५। बे दान धर्म का प्रवेश द्वार ११५ जो इन दोनो को अपना मुख्य घमें--कर्तव्य--मानकर पालन करता है, वही श्रावक है, वही धर्मात्मा है, वही सस्यग्हृष्टि है । गृहस्थ श्रावक के लिए बारहवाँ ब्रत इसी उद्द श्य को लेकर नियत किया गया है कि वह भोजन करते से पहले कुछ समय तक किसी सुपात्र, अतिथि, महात्मा या अनुकम्पा पात्र व्यक्ति को उसमे से देने की भावना करे। अतिथि (उपयुक्त) की प्रतीक्षा करे । दान आवक फा सबसे बडा ब्रत भगवान्‌ महावीर के आनन्द, कामदेव, चुलिनीपिता, आदि दस प्रमुख गृहस्थ शावकों का जीवन उपासकदशाग सृत्र में पढने से यह स्पष्ट फलित हो जाता है कि उनके जीवन मे प्रतिदिन दान देने की कितनी उत्कट भावना थी ! उन्होंने बारहवाँ अतिथि सविभागन्नत ग्रहण कर लिया था जिसमे प्रतिदिन दान को वे जीवन का आवश्यक नियम मानते थे । वे यह मानते थे कि श्रावक के जीवन का यह मुख्य अग है, प्रमुख घर्में अथवा गुण है | गृहस्थ श्रावक के १२ ब्रतो मे जो अन्तिम ब्रत है, जिसका नाम अतिथि सविभाग न्रत' या 'यथासविभाग ब्रत्त' है, वह दान का ही सूचक है। भगवान महावीर से भृहस्थ श्रावक के लिए यह ज़्त इसलिए रखा है कि अन्य ब्रतो का सम्बन्ध या अन्य व्रतो का लाभ तो सिर्फ खुद से ही सम्बन्धित है, ५ अगुन्नत, ३ ग्रुणब्रत या सामयिक, देशावकासिक या पौषध का लाभ तो व्यक्ति को स्वय को मिलता है, उसका सम्बन्ध खुद व्यक्ति से होता है, जबकि बारह॒वें त्रत का लाभ दूसरे (आदाता) को भी मिलता है, उसमे दूसरे से भी सम्बन्ध जुडता है । इसलिए वह अन्य ज्रतो की अपेक्षा अधिक सक्तिय, अधिक लाभदायक, प्रत्यक्ष लाभदर्शक एवं श्रावक की उदारता का दिग्द्शंक है। यही कारण है कि अतिथि सविभाग (दान) ब्त को सबसे बडा ब्रत कहा है--- अतिथि सविभागाख्य ब्रतमस्ति ब्रताथिनाम्‌ । सर्वेत्रतशिरोरत्नमिहामुतश्रसुखप्रदम्‌ ७/--(प० राजमल) अतिथि सविभाग नाम का ज्वत ब्नताथियों (ग्रहस्थ श्रावको) के लिए समस्त ब्रतो में शिरोमणि है और इहलोक और परलोक मे सुखदायक है । इस ब्रत को समस्त ऩ्तो का शिरोमणि कहने के उपयुक्त कारण तो हैं ही, एक कारण यह भी हो सकता है, कि इस ब्रत के पालन से अहिंसा एवं परियग्रह (लाभ) त्याग का लाभ तो है ही, सुपात्र साधु को दान देने से उनके दर्शको का लाम, तथा दर्शन लाम से सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचयें-पालन की प्रेरणा मिल ही जाती है, तथा अन्य ब्रतो के पालन की भी प्रेरणा समय-समय पर मिल जाती है। मतिथि- सविभागक्नत श्वावक की देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा को सुहढ करने का भी कारण है । गुरु के दर्शन होते हूँ तो उनसे देव का परिचय भी प्राप्त हो जाता है, घर्मपालन की ११६ दान महत्व और स्वरूप भी प्रेरणा हो जाती है। इसलिए यह कहने में कोई अत्युक्ति नही है कि अतिथि सविभागव्रत सब ब्रतो में शिरोमणि है, सबसे वडा ब्रत है। इहलोक और परलोक के लिए वह सूखप्रदायक है, इसमे तो कोई सदेह ही नही | दान-सबविभाग है भगवान्‌ महावीर ने गृहस्थ श्रावक को ससार के दु खितो, पीडितों, भूलो, प्यासो और जरूरतमदो के साथ सहानुभूति, आत्मीयता और एकता स्थापित करने, ओऔर उनके सुख-दु ख में सविभागी बनने की दृष्टि से भी गृहस्य थ्रावक के लिए यह न्रत रखा है। इस दृष्टि से दान हृदय की उदारता का पावन प्रतीक है, मन कौ विरादूता का ्योतक है और जीवन के माधुर्य का प्रतिविम्ब है। श्रावक इतना स्वार्थी न हो कि केवल अपने ही जीने और सू ख-सामग्री का उपभोग करने का विचार करे | वह देखे, अन्तरनिरीक्षण और समाज निरीक्षण करे कि मेरे परिवार, कुटुम्ब, जाति, धर्म सघ और समाज में कौन दु खी है ?, कौन भूखा-प्यासा है ? कौन किस अभाव से पीडित है ? कौन-कौन प्राकृतिक प्रकोप (भूकम्प, बाढ, सुखा, दुष्काल आदि) में सतप्त है, किस पर कया सकट है ? और मै उसे किस रूप मे, कितनी सहायता देकर उसके दुख या सकट को मिटा सकता हूँ ? इसी को शास्त्रीय परिभाषा में कुदुस्स जागरणा घममं जागरणा और समाज-जागरणा कहते हैं। श्रावक के बारहवें त्रत के पीछे यही दृष्टिकोण निहित है। अन्यथा वहा सविभाग के बदले दान शब्द का प्रयोग किया जाता । किन्तु 'सविभाग' का अर्थ दान होते हुए भी सबिभाग शब्द का प्रयोग उसमे निहित रहस्य को सूचित करने के लिए किया है! दान शब्द रखने पर गृहत्त को दान के साथ अहकार, भहृत्ता की भावना, प्रसिद्धि की लालसा आदि शायद चिपक सकती है और लेने वाले मे हीनभावना उत्पन्न हो सकती है, देंने वाला उ्त पर एहसान जताकर देगा, समव है, उसकी चापलूसी करने की वृत्ति भी दाता की हो जाती है, जबकि सविभाग में तो देने वाला अपना कत्तंव्य समझकर देगा और लेने वाला अपना अधिकार समझ कर लेगरा। न एक में महत्ता की भावना आएंगी, और न दूसरे मे हीनता की। न दाता को एहसान करने की जरूरत होगी और न जादाता को दाता की चापलूसी करने की जरूरत होगी। इसलिए श्रावक को दूसरो के सुख-ढु ख को अपना सुख-दु ख समझकर द्वुसरो के प्रति आत्मी- यता से ओतप्रोत होने और जिलाकर जीने की उदारता अपने में लाने और स्वार्थ ध्याग करने की दृष्टि से बारहवें त्रत का पालन करना अनिवायं है। जैन मनीषियो ने प्राय 'दान' के स्थान पर 'सविभाग' शब्द का जो प्रयोग किया है, वह बडी सूझबूझ के साथ किया है । दान मे समत्वभाव, समता और निस्मृहता की अन्तरघारा बहती रहे यह भाचायों का अभीष्ट रहा है जो ससार के अन्य चिन्तकों से कुछ विशिष्टता रखता है। देना 'दान' है, किन्तु दान 'ब्रत' या 'धर्म' तब बनता है जब देने वाले का हृदय निस्पृह, फलाशा से रहित और अहकार शुन्य होकर लेने वाले के दान : धर्म का प्रवेश द्वार ११७ प्रति आदर, श्रद्धा और सदुभाव से परिपूर्ण हो। सदुमाव तथा फलाशा-मुक्त दान को हो अतिथि सविभाग ब्रत' कहा गया है। इसमे दाता लेने वाले को उसका 'भाग' देता है। यही कारण है कि बारहवाँ कृत सक्तिय रूप से सममाव और दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मौपम्यभाव स्थापित करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वैचारिक समता, आत्मौपम्य भाव एवं उदारता को आचाररूप में परिणत करने का माध्यम दान का सूचक बारहवाँ ब्रत है । दान : सर्वग्रुण-सग्राहक, सर्वार्थ साधक अपनी अदुमुत परिणाम-कारकता के कारण 'दान” सर्वेगुण-सग्राहक है, सभी अर्थों (मानव-प्रयोजनो) का साधन है। दान से जीवन जीने के मार्ग में आ पडने वाले दु ख, दीर्भाग्य, वैमनस्य, चिन्ता, अशान्ति, शारीरिक पीडा, प्राकृतिक सकट आदि सब भाग जाते हैं। जीवन निष्कटक, निश्चिन्त, निराकुल, शान्त और सूखी बन जाता है। इसीलिए शास्त्रकारो ने दान को सर्व ग्रुणसग्राहक या सर्वार्थ साधक कहा है-- ---'यदि भनुष्य के पास तौनो लोको को वशीशभूत करने के लिए अद्वितीय वशीकरण मत्र के समान दान और त्रतादि से उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन-से गुण हैं, जो उसके वश में न हो सकें, तथा वह कौन-सी विभूति है, जो उसके अधीन न हो, अर्थात्‌ घर्मात्मा एव दान-परायण के लिए सब भ्रकार के गुण, उत्तम सुख और अनुपम विभूति भी उसे स्वयमेव प्राप्त हो जाती है ।”* ससार की ऐसी कोई विभूति या समृद्धि नही, कोई ऐसा गुण नही तथा किसी प्रकार की सुख-शान्ति की सामग्री नही, जो दान द्वारा प्राप्त न हो सके | पिछले पृष्ठो में विभिन्‍न उदाहरणों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है। कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने दान, उदारता और घमंदलाली द्वारा ही आगामी जन्म में तीथंकरत्व प्राप्त कर लिया । वर्ष भर तक अविच्छिन्न रूप से दानधारा बहाने के कारण ही तीर्थकर उत्तम विभृति प्राप्त कर पाते हैं। तीर्थकरत्व से बढ़कर कौन-सी समृद्धि है ? वह तीर्थंकरत्व सेवारूप दान के द्वारा ही प्राप्त होता है। दान से मनुष्य भे दया, नम्नता, क्षमा, सेवा, करुणा, आत्मीयता आदि गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिसके कारण वह स्वार्थत्याग, लोभव्याग आदि करता है मौर समस्त अनथों की जड और पापो का मूल लोभ ओर स्वार्थ है। उसका जब दान से उच्छेद हो जाता है, तब मनुष्य के दुर्गुण या पापादि तो नष्ट हो ही जाते हैं। बह सर्वंगुण निधि बन जाता है । और सुख-शान्ति का तो दान ख्लोत हो है। दान से मानसिक सुख-शान्ति मिलती है। १ कितेगुणा किमिह तत्सुखमस्ति लोके, साकि विमूृतिरथ या न वश प्रयात्ति। दानन्नतादिजनितों यदि मानवस्प, धर्मा जगत््‌श्रववशीकरणकमचा | --पदुमनन्दि पचरविज्ञति १६॥ ध्छ ११८ दान ' महत्व और स्वरूप शारीरिक सुख भी मिलता है, आयुवृद्धि, स्वास्थ्यजाभ, भादि भी दान के कारण आदाता द्वारा मिलने वाले आशीर्वाद से मिलते हैं। ऋग्वेद (१।१२५॥६) मे स्पष्ट कहा है-- दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा, दक्षिणावता दिवि सुर्यास ! दक्षिणावन्तो अमृत भजन्ते, दक्षिणावन्त प्रतिरन्त गायु ॥ “-दानियो के पास अनेक प्रकार का ऐश्वर्य होता है, दानी के लिए ही आकाश मे सुर्य प्रकाशमान है । दानी अपने दान से अमृत पाता है, दानी अत्तिदीर्घाओ ' प्राप्त करता है। यह भी पिछले पृष्ठो में हम विस्तार से बता आए हैं । इसलिए यह नि सन्देह कहा जा सकता है कि दान सर्वेगुण सम्राहक है, सर्वार्थंभाघक है, सर्वेविभूति को आकर्षित करने वाला है। घान देवताओं द्वारा प्रशसनीय दानसर्वेत्र प्रशसा पाता है, क्‍या मनुष्य, क्या ब्राह्मण, क्या देव सभी दान की प्रशता करते हैं। प्रशसा पाने की हृष्टि से नही, किन्तु दान मे निहित अनेक गुणों की हृष्टि से जो व्यक्ति नि स्वार्थभाव से दान देता है, उसकी प्रशसा मनुष्य ही वही, देवता भी करते हैं। शास्त्रों मे या जैनकथाओ मे जहाँ-जहाँ किसी महान्‌ आत्मा को दान देने का प्रसग आता है, वहाँ-वहाँ यह पाठ अवश्य गाता है-- 'अहो दाण, अह्दो दाण त्ति घुट्े --पैवताओ ने 'अहो दान', अहो बान ! की घोषणा की । अर्थात्‌ उस अनुपम दान की भुक्तकण्ठ से प्रशशा की । इसीलिए नीतिकार कहते हैं-- दान देवा प्रशसन्ति, मनुष्याश्व तथा द्िजा । --दैवता भी दान की भ्रशसा करते हैँ, मनुष्य और ब्राह्मण तो करते ही हैं| देवता दान की प्रशसा क्यो करते हैं ? इसलिए करते हैं कि देवलोक में दात की कोई प्रवृत्ति होती नही, देवलोक मे कोई महात्मा या सुपान्न ऐसा नही मिलता, जिसे दान दिया जाय । दान के लिए सुपात्र उत्तम साधुसन्त, नि स्पृह्दी त्यागीपुरुष सनुष्यलोक में ही मिल सकता है। इसलिए देवता दान के लिए तरतसते हैं कि वे अपने हाथो से दाल के योग्य किसी पात्र को दान नही दे पाते । जब दान नही दें पाते हैं, तो दान से होने वाला विपुल लाभ भी प्राप्त नही कर सकते | इसी कारण देवता दान की भहिमा जानते हुए भी स्वय दान न दे पाने के कारण जो दान देता है और उत्तम पात्र को दान देता है, उसकी प्रशसा--उसका समर्थन-मुक्त-कण्ठ सें करते हैं। वे उस व्यक्ति को महान्‌ भाग्यशाली भानते हैं, जो अपनी लोभसज्ञा को यश में करके दान देते हैं । जिस समय सगवान महावीर ५ महीने और २५ दिन तक दोर्धतपस्या अभिग्नह के रूप मे करके कौशाम्बी मे अ्मण कर रहे थे, उस समय राजकुमारी दान धर्म का प्रवेश होर ११६ चन्दनवाला ने भगवान महावीर को उडद के बाकुले आहार रूप मे दिये। उस दान की देवो ने महती प्रशसा की, 'अहो दान! की घोषणा की । इस प्रकार के और भी अद्भुत दानो की प्रशसा देवो ने की है। सचमुच, दान देवो द्वारा प्रशननीय है। मनुष्य और ब्राह्मण स्वय अपने हाथो से दान तो दे सकते हैं, लेकिन लोभसज्ञा केम न होने से, अर्थाभाव या दारिद्रय के कारण अथवा दान के प्रति अश्रद्धा के कारण अधिकाश मनुष्य या ब्राह्मण दान' नही दे पाते । अथवा कई लोग देते भी हैं तो अपने स्वार्थ से, अपने किसी मतलब को गाठने के लिए दान देते हैं। वह दान भी वास्तविक दान न होने के कारण सच्चे दान की बरावरी नही कर सकता । इसलिए ऐसे मनुष्य या ब्राह्मण दान की महिमा जानते हुए भी किसी कारणवश दान न दे सकने के कारण दान की प्रशसा करके रह जाते हैं। इस प्रकार दान मनुष्यो और ब्राह्मणो द्वारा प्रशसनीय है । इस प्रकार मानवजीवन में दान का महत्त्व किसी भी प्रकार से कम नही है। दान का सूल्याकन वस्तु पर से नही, भावों पर से ही किया जाता है। देवता भावों को ही पकडते हैं, वस्तु या वस्तु की मात्रा को वे नही देखते । इसी कारण वे तुच्छ से तुच्छ वस्तु के अल्पमात्रा में दिये गए दान को महत्त्वपूर्ण मानकर उसकी प्रशसा करते नही अघाते । डर ढ़] दान की पतवित्ष प्रेरणा विश्व में प्रकृति के जितने भी पदार्थ हैं, वे सबके सब अहनिश सतत दान की प्रेरणा देते रहते हैं। क्या सूर्य, क्या चन्द्रमा, क्या नदी, क्या मेघ, वया पेड-पोधे और जगल की अगणित वनस्पतियाँ सब अपने-अपने पदार्थ को मुक्त हाथो से लुटा रही हैं । क्या नदी और मेघमाला अपना मीठा जल स्वय पीती हैं ? क्या सूर्य-चन्द्र अपना प्रकाश दूसरो को नही देते ? क्या पेड, पौधे, फल, फूल, आदि अपने पदार्थों का स्वय उपभोग करते हैं? ये सब महादानी बनकर जगत्‌ को दान की सतत प्रेरणा देते रहते हैं कि भनुष्य तेरे पास भी जो कुछ है, उसे दूसरो को दे, स्वयं अकेला किसी भी चीज का उपभोग न कर। इसीलिए नीतिकार एक छोटे-से श्लोक भे प्रकृति के तमाम वैभव का उपयोग दान (परोपकार) के लिए बताते हैं । --नदियाँ अपना जल स्वय नही पीती, पेड-पौधे अपने फलो का उपभोग स्वय नही करते, दानी मेघ अपने जल से पैदा हुए घानन्‍्य को स्वय नही खाते । सज्जनों की विभूतियाँ (वेभव) भी परोपकार (दान) के लिए होती हैं।”+ फलदार पेडो के कोई पत्थर मारता है था कोई उनकी प्रशसा करता है, तो भी वे दोनो को फल देते हैं। नदियों मे कोई मैला डालता है या निन्‍दा करता है, तो भी वे मीठा पानी देती हैं, और कोई द्ध से पूजा करता है, प्रशसा या स्तुति करता है तो भी वे मीठा पानी देती हैं । एक बार नदी और तालाब मे परस्पर बहस छिड गईं । तालाब नदी से कहने लगा---“तू कितनी पगली है ! अपना सारा जल पेड, पौधो, वनस्पतियों एवं समुद्र को लूटा देती है। ये तुझे अपना जल वापस तो लौटाते नही, तुझे दरिद्र बना देते हैं, और समुद्र तेरा मीठा जल पाकर भी खारा का खारा रहता है। इसलिए मेरी सलाह है कि तू अपना जल-घन अपने पास ही रख ।” इस पर दान परायण नदी बोली--मुझे तेरे उपदेश की जरूरत नहीं । मेरा १ पिबन्ति नद्य स्वयमेव ताम्म , स्वय न खादन्ति फलानि वृक्षा । नादन्ति सस्य खलु वारिवाहा, परोपकारयाय सता विभूतय ॥॥ दान की पवित्र प्रेरणा १२१ कत्तंव्य ही है--अहनिश दान देना । मुझे किसी से बदले मे कुछ नही लेना है। सुझे दूसरी को देने और पेड-पौधो आदि को समृद्ध देखने में ही आनन्द आता है ।' नदी निरन्तर जलदान देती हुई वहती रही । किन्तु तालाब स्वार्थी और आसत्तियुक्त होने से अल्पसमय में ही सूख गया । उसका पानी दुर्गन्धयुक्त हो गया, उसमे कीडे कुल- बुलाने लगे । परन्तु नदी निप्काम भाव से शीतल मधुर जल दान देती हुई ग्रीष्मऋतु में भी वहती रही । नदी की मूक प्रेरणा यही है मेरी तरह निष्काम भाव से अपने पास जो भी तन-मन-धन-साधन हैं, उन्हे दूसरो को दान देते हुए आगे बढते रहो, प्रीष्मऋतु में मेरी तरह क्षीण होने पर भी दान का प्रवाह सत्तत बहाते रहे, तुम्हारी प्रगति रुकेगी नही, तुम्हारा धन वर्षाऋतु में मेरी तरह पुन बढ जाएगा, अन्यथा तालाब की तरह स्वार्थी गौर अपने घन में आसक्त वनकर बैठे रहोगे, उसे दूसरो को दोगे नही तो तालाव की तरह एक दिन सुख जाओगे । नदी के जल की तरह दान प्रवाह बहता रहे नदी का जल व्यक्तिगत नही होता, वैसे हौ मानव अपने घन को व्यक्तिगत न समझें, उसे समाज में फैलाये | नदी का जल सतत भाता-जाता (बहता) रहता है। इसी तरह चूंकि समाज से लेने का हमारा क्रम बराबर जारी है, इसलिए हमे समाज को देने का क्रम भी (प्रवाह) चालू रखना चाहिए | ध्यान रहे कि हर नदी बहती (प्रवाहित) रहने पर ही शुद्ध रहती है। यदि तलैया तालाब की तरह उसका बहना बन्द हो जाय तो वह शुद्ध नही रह सकेगी । उसमे गड्ढे हो जायेंगे और उसमे गन्दगी व अशुद्धता ही बढेगी । इसी तरह समाज में भी दान का प्रवाह जारी न रहा तो सामाजिक जीवन में भी सडान विषमता और दुर्गेन्ध पैदा हो जाएगी । इसलिए समाज में दान की गगा निरन्तर बहती और बढती रहनी चाहिए । कुछ लोग कहते हैं, आजीवन दान देते रहना, प्रतिदिन नियमित रूप से दान करना क्या सम्भव है ? इसके उत्तर में हम पूछते हैं, आजीवन भोजन करते रहना कैसे सम्भव है ? मनुष्यों ने यहूं कठिन बात स्वीकार कर ली है कि हमे शरीर मिला है तो हम आजीवन---जन्म से मृत्यु पर्यन्‍्त--भोजन करके इसका पोषण करेंगे । वेदो मे और जेनशास्त्रो मे जहाँ-जहाँ व्रत ग्रहण करने का विधान है, वहाँ- 'यावज्जीव' शब्द आता है कि मैं जीवनपयेन्त इस ब्त का पालन करूना | श्वास- प्रश्वास का भी एक ब्रत है, वेद मे कहा है--मरण न होने तक प्रतिज्ञापूर्वक श्वास लेते रहोगे! । इस ब्रत को ग्रहण करने की वात वेद ने इसी उहं श्य से कही है कि इवास-प्रश्वास के साथ परमात्मा का नाम लेना होगा, ताकि वृथा श्वास न लिया जाय । इस प्रतिज्ञा का यही तात्पयं है। हमारी माँखो ने आजीवन देखने का ब्रत ग्रहण किया है। हमारे दोनो पैरो ने आजीवन चलने का ब्रत ग्रहण किया है। वे ब्रत उन्हे कठिन नही मालूम पढते | इसी तरह कानो ने सुनने का, नाक ने सूंघने का व्रत च्ब १२२ दान महत्व भौर स्वरूप प्रहण किया है, जीम ने चस्धने ओर दाँतो ने चवाने का श्रत लिया है । वह जब उन्हे कठिन नही मालूम पढता तो हाथो को दान देने का ब्रत क्यों कठिन मालूम होगा ? हाथ दिये फर दान रे! यह उक्ति इसीलिए कही गईं है। ये श्रत उन-उन इन्द्रियों के लिए स्वाभाविक और नैसगिक हो गये हैं, दैसे ही हाथो के लिए आजीवन दान देने का च्रत भी कठिन और भारो नही मालूम होगा। घर-घर में माताएँ इसी ज्रत का पालन करती हैँ। प्रत्येक माँ सन्‍्तान को कितना अधिक प्यार करती है। बडा होने पर पुत्र माँ से बिमुख हो जाता है, पर माँ प्राय. विमुख नही होती । इसलिए चाहे धनी हो, चाहे निर्धन दोनो के ही हाथ प्रतिदिन नियमित दान करने का जीवन- पर्यन्त ब्रत ग्रहण करें, इसमे कोई कठिनाई नही है। केवल मन को समझाना है| कुछ कार्य नित्य होते हैँ, कुछ नैमित्तिक | भोजन, मलबिमर्जन, सफाई आदि नित्य कार्य हैं, उसी तरह दान भी नित्य कार्य है। स्मृतियों मे गृहस्थ के लिए प्रति- दिन दान कर्म को षट्कर्मों मे अनिवार्य बताया है। भर प्रतिदिन ग्ोग्रास, कौए, कृत्ते, अग्नि आदि का ग्रास दान देने का विधान भी है। 'वद्कर्माणि दिने दिने' कह- कर दान' को प्रतिदिन करने का चिधान है। इसलिए भग्रहस्थ जीवन में प्रतिदिन दान का प्रवाह बहता रहना चाहिए, दान की परम्परा नदी के प्रवाह की तरह अखण्ड चालू रहनी चाहिए । उसे वद करना, जैन हृष्टि से दानान्तराय कर्मबन्ध करना है । दाव की परम्परा बन्द करने से अनेक लोगो की वृत्ति का उच्छेद होता है। परन्तु कई लोग इस बात को न समझकर श्रद्धाहोन वनकर दान की परम्परा स्थगित कर देते हैं । यह बचुत दी खतरनाक है, जीवन के लिए । एक महिला थी । वह प्रतिदिन गरीबो के घर जा कर दान दिया करती थी | कुछ दिनो बाद उसने दान का यह सिलसिला बन्द कर दिया । दुसरी एक महिला ते उससे पूछा--'बहन ! आजकल तुमने दान देना बद क्यो कर दिया ?” वह बोली- अब मैं दान देना ठीक नही समझती, क्योकि जिन्हे मैं गरीब समझकर दान देती थी, उन गरीबों के लडको को मैंने पेडे खाते हुए देखा तो मैंने सोचा कि इन गरीबो के बच्चे तो पेडे खाते हैं। तब से मैंने दान देना बन्द कर दिया है ।” इस पर उक्त विवेकवती महिला ने कहा--“बहन ! इसमे तुम्हारा क्या बिगड़ गया ? क्‍या यरीबो के बच्चे पेडा नही खा सकते ? उनके माता-पिता कभी अपने बच्चो को सिठाई नहीं खिला सकते ? क्या तुम्हे ही मिठाई खाने का हक है, उन्हे नही ? यह तुम्हारा सोचना ही गलत है ! तुम यह सोचो कि हम तो आराम से रहे, पर हमारा नौकर ,सा गरीब जाराम से न रहे, कष्ट मे पडा रहे, क्या यह भानवता की दृष्टि से ठीक है ? कदापि नही । तुम दान दो, पर अश्रद्धा के साथ, या उन द्रिद्रो या अभावग्रस्तो को द्वीन समझकर भत दो । इसलिए भेरी सलाह है कि तुम दान की यह परम्परा बन्द न करो ।” परन्तु उस बहन ने इस विवेकबती भहिला की एक भी न भानी । वह अपने विपरीत निर्णय पर अटल रही । दान की पवित्र प्रेरणा १२३ दान को परम्परा चालू रखो दान की दैनिक परम्परा तभी चालू रह सकती है, जबकि देने वाला लेने वाले के द्वारा भी उसी रकम को किसी जरूरतमन्द को दिलाए। फिर वह जरूरत- मनन्‍्द, जिसे वह रकम दी जाए, अपने पास आने वाले जरूरतमन्द को वह रकम दे। इस प्रकार दान का अखण्ड सिलसिला या प्रवाह जारी रहे | बैजामिन फ्रैकलिन अपने प्रारम्भिक दिनो में एक अखबार चलाते थे, आगे चलकर वे उसके सम्पादक ओर प्रकाशक भी बने । उनके पास भग्रहस्थी का कोई अधिक सामान नही था । एक बार उन्हे कुछ रुपयो की जरूरत पडी। उन्होने एक धनवान से २० डालर माँगे | उस परिचित व्यक्ति ने उन्हे तुरन्त २० डालर दे दिये । कुछ ही दिनो मे बैजामिन फ्रैकलिन ने २० डालर बचाए और उन्हे उस भाई को वापस देने आए । जब उन्होंने २० डालर का एक सिक्का मेज पर रखा तो उनके घनाढूय मित्र ने कहा--“मैंने तुम्हे कभी २० डालर उधार नही दिए ।” फ्रैकलिन ने उन्हे याद दिलाया कि अमुक समय मे अमुक स्थिति मे तुमने मुझे यह डालर दिया था ।” उसने कहा--“हाँ, सचमुच २० डालर दिये तो थे।” फ्रैकलिन बोला-- इसीलिए तो मैं तुम्हे वापिस लौटाने आया हूँ ।” वह बोला--“परन्तु वापस देने की बात तो कभी नहीं हुईं । वापस लेने की बात तो मैं कभी सोच ही नहीं सकता ।” फिर उस मित्र से कहा--“इस सोने के सिक्के को अब तुम्हारे पास ही रहने दो । किसी दिन तुम्हारे जैसा कोई जरूरतमन्द तुम्हारे पास भा जाय तो उसे यह दे देना । अगर वह मनुष्य ईमानदार हो तो कभी न कभी वह तुम्हे उन डालरो को वापस देने आएगा, तभी तुम उससे कहना---/इन्हे तुम अपने पास रखो और जब तुम्हारे सरीखा कोई जरूरतमन्द तुमसे माँगने आए तो उसे दे देना ।' कहते हैं, २० डालर की वह स्वर्ण मुद्रा आज भी अमेरिका के सयुक्त प्रजा- तनन्‍्त्र भें किसी न किसी की जरूरत पूरी करती हुईं विविध हाथो मे घृम रही है । सचमुच वैंजामिन फ्रैकलिन का यह अखण्ड वान प्रवाह सामाजिक जीवन मे अभाव की बहुत कुछ पूर्ति करता है। हे इसी प्रकार भावनगर के भू०पू० दीवान सर प्रमाशकर पट्टणी ने एक विद्यार्थी को अध्ययन और पुस्तको के लिए मदद दी । मदद के कुल रुपये लगभग दो हजार चुके थे। विद्यार्थी रपयो का हिसाव लिखता रहा | आखिर वह स्नातक होकर एक अच्छी नौकरी पर लग गया । उसकी आमदनी अच्छी होने लगी। वह हर महीने झुपयो की बचत करने लगा | आखिर जब कुल रकम व्याण सहित इकट्ठी हो गई तो वह उसे लेकर सर भ्रभाशकर पट्टणी के पास पहुँचा । उन्होने उसे आादरपूर्वक बिठाया ओर कुशल प्रश्न के बाद पूछा--”कहो भाई ! कैसे आए ?” उसने कहा--“मैं आपके रुपये व्याज सहित देंने माया हूँ ।” पट्टणी--“मेरे कौन-से रुपये ? मैंने तुम्हे कब रुपये दिये ये ?” १२४ दान महत्व और स्वरूप आगन्तुक बोला--“साहव आपने मुझे अध्ययन के लिए सहायता देकर मेरी ऐसे समय में मदद की है, जिसे में कभी भूल नही सकता । उसके लिए तो मैं आपका जन्म-जन्म ऋणी रहूँगा। वह रकम मैं आपके नाम से जमा करता रहा हूँ । कुल रकम और उसका व्याज मिलाकर दो हजार 5० से ऊपर होते हैं। यह आपकी घरोहर लीजिए ।” पट्वणी ने कहा--“मेरी सब रकम तुम-जसे होनहार और अध्यच- सायशील युवक को देखकर वसूल हो गई । तुम्हारी अच्छी नौकरी लग गई, इसकी मुझे प्रसक्षता है। अब यह रकम तुम्हारे पास ही रहने दो और जो भी तुम-जैसा विद्यार्थी आएं, उसे इसमे से मदद देते रहो । मैं इस रकम को विद्यादान-खाते लिख चुका, अब वापिस नही ले सकता । इसी प्रकार तुम विद्यादान में मदद देते रह कर दान' की परम्परा चालू रखो ।” युवक बहुत ही प्रसन्न हुआ जोर आभार मानता हुआ, और दान की सुन्दर प्रेरणा के लिए क्वृतज्ञता प्रगट करता हुआ चला गया | सचमुच ऐसी दान-परम्परा ही अनेक द्वदयो में दान के दीपक जला सकती है। पेड-पोधों से वान देने फी सीख लो यह तो हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं कि पेड-पौधे, फल, फूल आदि सभी दान देने की प्रेरणा दे रहे हैं । इतना ही नही, इन्हे पत्थर मारने, पीटने, घोटने और तोडने पर भी ये अपनी वस्तु दान देते रहते हैं ॥ मनुष्य कदाचित्‌ अपना नुकसान करने वाले के प्रति कृपित होकर उसे कुछ भी देने से विमुख हो जाय, लेकिन ये (वृक्षादि) अपनी चीज देने से कभी इन्कार नही करते । जगल का शान्त वातावरण ! हरे-भरे लहलहाते खेत, आम और जामुन से लदे हुए वृक्ष ! प्रकृति दुर-दुर तक हरी साडी पहनी हुईं बहुत सुहावनी लग रही थी | कोकिल का पचम स्वर और शतलज का कल-कल करता हुआ प्रवाहमय मधुर सगीत वातावरण को और भी मधुर बना रहा था । मन्द-मन्द मलयानिल तन्द्रा को हटा रहा था। मानव के मन-मस्तिष्क मे चेतना का सचार कर रहा था। सुर्य की बाल-किरणें धरती को आलोक से भरने के लिए चारो ओर बिखर रही थी । चारो ओर पक्षी चहचह्ा रहे थे । प्रकृति के सौन्दयं का आनन्द लेने लिए पजाबकेशरी महाराजा रणजीतर्सिह जी धोडे पर सवार होकर घूमने के लिए निकल पडें। भ्रकृृति के सुहावने हश्यो का अवलोकन करते-करते वे सिंह की तरह निर्मय घुम रहे थे। तभी अकस्मात्‌ एक पत्थर उनके सिर पर आकर लगा । महाराज आश्चयंचकित होकर इधर-उधर देखने लगे । यह पत्थर कंसे और कहाँ से आया ?” महाराजा रणजीतर्सिह के दिमाग में दो प्रश्न चक्कर काटने लगे--'पत्थर किसने और क्यो फैका ” महाराजा के अंग- रफ्क अपराधी को ढूँढने के लिए चारो ओर दौड पडे और कुछ ही देर मे एक गरीब अधेड उम्न की स्त्री को पकड कर ले आए | उसकी गोद मे एक बच्चा था। जिसके अन्दर घसते हुए पेट, चेहरे की उदासी और रोने की आवाज से यह स्पष्ट भ्रतीत हो रहा था कि वह भूला है, भूल से परेशान है ।” अगरदको ने भहा- दान की पवित्र प्रेरणा १२५ राज से निवेदन किया--“इस शैतान मौरत ने आप पर पत्थर फैका है। इसे इसके अपराध की कठोर से कठोर सजा मिलनी चाहिए, जिससे आयन्दा ऐसा भयकर अपराध करने का पुन साहस न कर सके ।” उधर वह ॒ विधवा स्त्री थर-थर काँप रही थी | उसकी आँखो से अश्रुधारा बह रही थी | वह चिन्तित थी कि “न मालूम मुझे इस अपराध की कितनी कठोर सजा मिलेगी ?” इतने मे शान्ति और मधुर स्वर में उसे आश्वस्त करते हुए महाराज ने पुछा--“घबडाओ मत, बहन ! बताओ, बात कया है ? तुमने पत्थर क्यों फैका ?” उसने रोते-रोते अपनी दु खगाथा सुनाते हुए कहा--“महाराजजी ! मैं विधवा हैं । इधर-उधर भेहनत-मजदूरी का काम करते हुए अपना और अपनी आँखो के तारे- लाल का पालन-पोषण करती हूँ । पर, दुर्भाग्य से कल मुझे काम नही मिला । इस- लिए इसे भरपेट खाना भी न मिल सका। इसकी भूख मिटाने के लिए पत्थर मारकर जामुन तोड रही थी। मगर यह पत्थर जामुन की डाली पर न लगकर आपके ऊपर आ गिरा। मेरे मन मे नतो आपको पत्थर मारने की भावना थी, और न मैंने आपके ऊपर पत्थर फैका है। इसलिए मैं अपसे क्षमा चाहती हूँ । मुझे क्षमा करें ।” उस स्त्री की बात सुनकर महाराजा का चेहरा गम्भीर हो गया | उन्होने अपनी जेब में हाथ डाला। उनके हाथ में सौ-सौ के दस नोट आए | उन्होने दसो नोट अर्थात एक हजार रुपये उस विधवा के हाथ में दे दिये, और उसे कहा--“ये लो, और इनसे अपना एवं बच्चे का गुजारा चलाना । भविष्य में इसकी पढाई की भी व्यवस्था कर देता हें ।” यो कहकर एक कागज पर उस बालक को नि शुल्क शिक्षण देने का आदेश लिख दिया | विधवा का मुर्शाया हुआ चेहरा सूर्योदय होते ही खिल जाने वाले सूर्यमुखी कमल की तरह प्रसन्‍नता से खिल उठा | वह महाराजा के चरणो मे गिर पडी । श्रद्धा से चरणस्पश किये और अन्तर से आशीर्वाद देकर चल दी । अगरक्षक महाराजा के इस व्यवहार फो देखकर आश्चर्य मे डूब गए । वे सोचने लगे कि महाराजा यह क्या कर रहे हैं ? पत्थर मारने वाली भहिला को दण्ड न देकर उपहार देना, यह कैसा न्याय ?” उनके मुख के भावों को पढ़कर महाराज ने कहा-- “तुम लोग केवल पत्थर को देख रहे हो ? उसके दु खददं एवं उसकी असहाय अवस्था को नही देखते । मेरे राज्य मे जो लोग दुख की चक्की के दो पाटो के बीच पिस रहे हैं, उनके लिए इससे (दान से) बढकर अच्छा न्याय क्‍या दो सकता है ? ये मूक पेड-पीधे, जिनमे न चेतना का विकास ही है, न मधुर भावों का, वे भी पत्थर मारने वाले को अपने मधुर फल देते हैँ, तो क्या मैं विकसित चैत्तन्यशील मनुष्य होते हुए भी इन वृक्षों से मी गया-बीता होकर नीचा व्यवहार करता ? मुझे तो इनसे बढ़कर फल देना चाहिए ? ये पेड-पौधे तो किसी भी भूले और दू खी को खाली हाथ न लोौटाएँ, जौर मैं पजाव का राजा होकर भी अपने पर पत्थर मारने वाले दु ली. १२६ दान महत्व और स्वरूप असहाय और भूख से पीडित व्यक्ति को खाली हाथ लौटा दूँ, यह कैसे हो सकता है ? क्‍या मेरी शोभा इसी मे है कि मेरी शरण में आया हुआ व्यक्ति निराश होकर लौट जाए ?” वृक्षों से दान-प्रेरणा की महाराजा की न्याय युक्त, वात सुनकर अगरक्षक निरत्तर हो गए ! सचमुच, ये पेड-पौधे अपनी दानशीलता की प्रेरणा से सारे ससार को उत्प्रेरित कर रहे हैं । मनुष्य तो समक्षदार प्राणी है, उसे अपने स्वामित्त्व की वस्तु में से योग्य पात्र को दाल करने भे किसी प्रकार की झिझ्क नही होनी चाहिए । इन पेड-पोधो की जिन्दगी की सार्थकता जब अपनी वस्तु दूसरो को अर्पण (दान) करने मे है, तो मनुष्य की जिन्दगी की सार्थंकता दूसरो को देने में क्यो नहीं होगी ? फूल अपनी सुगन्ध देकर समाप्त हो जाता है, वह अर्पंण करने में ही अपना जीवन सफल और घन्य समझता है। एक अत्तार की दूकान में घोटे जाते हुए गुलाब के फूलो से किसी ने पुछा-- “आप लोग उद्यान मे फले-फूले, फिर आपने ऐसा कौना-सा अपराध किया, जिसके कारण आपको ऐसी असह्य वेदना उठानी पड रही है ? कुछ फूलो ने उत्तर दिया--- “हमारा सबसे वडा अपराध यही है कि हम एकदम हँस पड़े। दुनिया से हमारा यह हँसना न देखा गया । दुनिया दु खितो को देख कर समवेदता ओर सुखियो को देखकर ईर्ष्या करती है । उन्हे मिटाने को तैयार रहती है। यही दुनिया का स्वभाव है। कुछ फूलो ने कहा---“अपनी सुगन्ध देकर मर मिटने मे ही तो हमारे जीवन की सार्थकता है।” फूल पिस रहे थे, परन्तु उनके दान की महक उनमे से जीवित हो रही थी । फूल जैसे अपनी सौरभ और रस अर्पण करने मे अपने जीवन की साथकता समझता है, वैसे ही मनुष्य को अपना घन और साधन समाज को अर्पण करने मे जीवन की सार्थकता समझनी चाहिए। फूलों के जीवन मन्च--].0 गराध्था७ 87शणष्ट (जीवन का अर्थ ही दान देना है) की तरह मनुष्यो का जीवनमन्त्र भी यही होना चाहिए । दान देना ससाज का ऋण चुकाना है दिना' एक सीघी-सी क्रिया है, जिसमे मानव की मानवताभरी हुईं है। यही मानव देता नही है तो सच्चे माने मे मानव कहलाने योग्य नही है। पशु तो देना जानता ही नही, वह दूसरे का लेना चाहता है। साराश यह है कि दूसरे को दान देते की क्रिया बिलकुल साधारण होती हुई भी मानवता से युक्त होती है, इसमे सम त्त्वत्याग की भावना भरी है, जो पशु द्वारा नही हो सकती । जैसा कि नीतिकारो « नें कह्दा है-- दानेन पाणिन तु फकणेन' -भनुष्य के हाथो की सार्थंकता था शोभा दान से है, सोने के कगन से दाव की पवित्र प्रेरणा १२७ नही ।” कोरा सोने का कगन तो हाथ के लिए बोहझस्प ही होगा। हाथ की सच्ची शोभा तो दान है। दान मानवता का अलकार है। हाथ को उसका भार कभी भहसूस नहीं होता । उससे सभी के आभार ही मिलते हैं ओर भानवता का बोन मिट जाता है । भानव की यह दानवृत्ति बढते-वढते जब अख़ण्ड जीवनवृत्ति वन जाती है तब उसमे भनुष्यत्व से ऊपर का देवत्व पैदा हो जाता है। देव का अर्थ है--निरन्तर देने वाला । इसके विपरीत यदि उत्तमे लगातार पशुता ही बढ़ने लगे और दूसरे से छीन-प्षपट कर उसे सदा अपने पास बनाए रखने की वृत्ति पैदा हो जाय तो समझना चाहिए कि उससे 'राक्षसत्व' उत्पन्त हो गया है। राक्षसत्व॒ का अर्थ है--व देंने वाला, निरन्तर सहेज कर रखने वाला । जो मानव मानवता या देवत्व के विपरीत पशुत्त की वृत्ति अपनाकर निरल्तर घन बटोरने में ही लगा रहता है अथवा जो राक्षसत्व की वृत्ति अपना कर छीताशपटी से, अन्याय-बत्माचार से एकमात्र घन सप्रह ही करता रहता है, वहें समाज का है. अपने सिर पर लादे फिरता है, समाज से लिये हुए को वह लौटा नही पाता | चूंकि मनुष्य ने आज तक अपने पूर्वजों से, ऋषि मुनियों से और समाज से जो ज्ञान-विज्ञान पाया है, जो सुसस्कार, सभ्यता और सस्क्ृति का धत पाया हैं, भयवा अपने बुजुर्गों से जो सुरक्षा, सेवा और घनसम्पत्ति तथा विद्या-बरुद्ध पाई है, उसे चुकाने का उपाय दान के सिवाय और कौन-सा है? वह एक प्रकार से समाज से लिया हुआ कर्ज है, जिसे उसको दान द्वारा चुकाना ही चाहिए | जरा सोचें तो सही, जिस पैमाने पर मनुष्य दष्त सृष्टि से, अपने पूर्वजों से, माता-पिता से, दृष्ट-मित्रो, वन्धु वान्धवों या समाज से, यहाँ तक कि गाय-शैस, वैल आदि सबसे प्रतिदिन लेता ही रहता है, क्या उसके दान को उस पैमाने पर देना कहा जाएगा ? हगिज नही | यानी मनुष्य समाज से जिस अनुपात में लेता रहा है भौर लेता है, उस अनुपात में शायद ही उसने दिया (लौठाया) हो | अधिकाश मनुष्य समाज से लेते अधिक हैं, देंते कम हैं। इसलिए सतत और अधिक मात्रा में देना ही इस ऋण को चुकाना है। इसी दृष्टिकोण को लेकर दान का एक भर्थ--लिए हुए का लौटाना भी है। और वास्तव में वह ठीक भी है। जो कभी मानव के द्वारा साधारण दान के माध्यम से कभी पूरा चुकता नहीं हो सकता, दान में उसे चुकता करने (लौटाने) का विनद्न प्रयत्न छिपा हुआ है । दान, और वह भी विशिष्ट दान कुछ अशो में समाज से लिया हुआ ऋण 28 था लौदाता है, इसे भली-माँति समझने के लिए जातक की एक कंधा द्वे एक ब्राह्मण ने आ्रवस्ती में धान की खेंती की । खेती वहुत अच्छी हुईं | जब फप्तल पक कर तैयार हो गई तो रखवाली के लिए उसने एक आदमी नियुक्त कर ५१२८ दान महत्व और स्वरूप दिया, वह स्वय शहर में रहने लगा । रखवाला खेत मे मचान वाघकर रात-दिन रहने लगा । इसी बीच तोतो का एक झूँड फसल खाने के लिए आने लगा झुंड समय पर आता और अनाज खाकर उड जाता । वेचारा रखवालां बहुत परे हुआ । तोतो का यह झूँड उसके काबू मे नहीं आ रहा था। इस झ्ुँड मे एक ऐसा था, जो सबका मार्ग दर्शन करता था| सारा झूँड उसके पीछे-पीछे आाता उसी के पीछे वापस जाता | जब वह तोता अपने झूँड के साथ रवाना होता तो ० की कुछ बाले मुँह मे भर कर साथ ले जाता था । रखवाली करने वाले ने उसका ढंग देखकर परेशान होकर मालिक से शिकायत की । उसने आधश्योपान्त सारी ८ मालिक को सुनाकर कहा--“फसल को बहुत नुकततान हो रहा है ।” खेत के मा से सारी घटना सुत कहा--“ग्रुढ होगा, वहाँ सबिखियाँ आएँगी ही । प्रभु #पा रे फसल तैयार हुई है, वह केवल मेरे लिए हो नही है, उसमे तोतो के उस झुण्ड का हिस्सा है । इमलिए उसे भी खाने दो | तब उस रखवाले ने कहा--“जहाँ तक * की बात है, वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन उन तोतो में एक तोता ऐसा है, जो दो बालें मपनी चोच मे दवा कर भी ले जाता है। यह सुनकर मालिक ने कहा-- ऐसी बात है, तब तो उसे पकडना चाहिए । यह आदेश पाकर रखवाले ने खे' जाल बिछा दिया । तोतो का झुण्ड आया । वह तोता, जो सबसे आगे था, ज्यो नीचे उत्तर कि जाल में फस गया। यह जातक की कथा है। तथागत बुद्ध कहते हैं कि “उस तोते के जीवन मे ही था। मैं उस जाल में चुपचाप फेंसा हुआ पडा रहा | अगर मैं हल्ला मचाता सभी तोते भूखे ही उड जाते इसलिए मैंने सोचा कि कम से कम उन्हे तृप्त तो जाते दूँ । जब मैंने देखा कि सब खा चुके हैं, तब मैंने शोर मचाया। मेरी बार सुनकर तोतो ने सोचा--/हमारा राजा जाल मे फस गया है, अत सब तोते च्च्ले 7! रखवाले ने राजा तोते को मालिक के सामने पेश किया। मालिक ने उस तोते को देखा तो उसकी सुन्दरता देखकर मुग्ध हो गया। उसने सोचा-- तोते भी बेचारे भूख से पीडित होते हैँ, पर ये खेंती नही कर सकते । इसलिए हम फसल में इनका भी तो हिस्सा है | मैंने इसे जाल मे फसा कर अन्याय किया है यह सोचकर उसने उस तोते को बन्धन मुक्त क्र दिया । फिर पूछा--“आखिर हु मुझ से इतना &ष क्यो है कि तुम मेरी फसल उजाइते हो ? यदि तुम्हे भूख लग है तो प्रेम से खामो, किन्तु बालें तोड कर क्यो ले जाते हो ?” तोते ने उत्तर दिया “मैं जो कुछ कहूँगा, उस पर आप पूरा विश्वास करेंगे, ऐसी मुझे आशा है। बात है कि मुझ पर कुछ पुराना कर्ज है । उस कर्ज को उतारे बिना मुझे चैन नद्दी होत दूसरी बात यह है कि मैं आगे के लिए कर्ज दे रहा हूँ । ओर तीसरी बात यह है में अपना खजाना भर रहा हूँ ।” यह सुनकर ख्तत के मालिक ने आश्चायें के स दान की पवित्र प्रेरणा १२६ पूछा--“ तुम्हारी बातें बहुत रहस्यमय मालूम होती हैं। यह बताओ कि तुमने किससे कर्ज लिया है ? और किसको कर्ज दे रहे हो ” तथा तुम्हारा खजाना क्या है ? तोते ने कहा--“मेरे बूढ़े सा-बाप जिंदा हैं। में बचपन में उनसे कर्ज लेता रहा | उन्होने मुझे पाल-पोस कर बडा किया | अब वे अपग हो गए हैं । उनका ऋण चुकाने के लिए मं आपके खेत्त से बालें ले जाने के लिए बाध्य हूँ । इसी तरह मेरे बच्चे भी है, जिनके अभी तक पख नही आए हैं, उन्हे मै कर्ज देता हूँ । तीसरे, बहुत से तोते मेरे अतिथि बन कर जाते रहते हैं, उन तोतो भे से कोई रूण भी हो जाता है, कोई अपग हो जाता है, तो कोई उड नही सकता | उन सबके लिए मुझे कुछ न कुछ जुटाना पढता है। वही मेरी निधि है।” यह उत्तर सुनकर खेत का मालिक हुए से गदगद हो गया । उसे एक तोते के मुह से समाजदशन की सुन्दर व्याल्या सुनकर उस पर प्यार उमडा और प्रस॒त्न होकर उसने कहा--भज से तुम स्वतन्नर हो । जितना चाहो उत्तना अनाज मेरे खेत से ले जा सकते हो ।” इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य पर समाज का ऋण रहता है। परिवार, जाति, धर्मसघ और राष्ट्र आदि सबका समावेश 'समाज' शब्द मे हो जाता है। इस तोते की तरह पुराना ऋण उतारने के लिए, तथा कुछ को तया ऋण देने के लिए दान देना अत्यावश्यक है। दान देकर पुराना कजें कैसे चुकाया जाता है, इसके लिए एक उदाहरण और लीजिए-... एक चतुर और न्यायोी राजा था । उसके राज्य मे लाखो आदमी नौकर थे | हर भाह सबको वेतन दिया जाता था। एक दिन राजा ने सोचा कि उसका खजाची बहुत दिनो से बीमार है, वह अब कार्य करने मे अशक्‍्त है अत एक ऐसे खजाची को रखा जाय, जो राज्य की आमदनी को अच्छे ढंग से खर्च करे। राजा ने अपने समग्र राज्य से घोषणा करवा दी कि मुझे इस प्रकार का खजाची चाहिए । घोषणा सुनकर जजाची बनने के लोग मे दूर दूर से हजारो आदमी आने लगे। सुबह से शाम तक ताँता लगा रहता । सभी अपनी आमदनी का खर्च इस प्रकार बढा-चढाकर राजा को बताते थे कि राजा उन्हे अवश्य ही खजाची घना लेगा | लेकिन एक साल होने आए, अभी तक राजा को कोई खजाची के योग्य आदमी नहीं जचा | आखिर एक दिन एक भाली राजदरबार मे आया । वह बोला--"महाराज | मुझे केवल २०) भासिक वेतन मिलता है। मैं दरबार के बाग मे काम करता हैं। अपनी आधी आमदली मैं अपने खाने-पीने तथा घर की व्यवस्था मे खर्च कर देता हूँ । चौथाई वेतन मे अपना फेज चुकाता हूँ । और शेष चौथाई वेतन उधार दे देता हूँ ।” चतुर राजा समझ गया कि यह माली बहुत होशियार है, इसकी बात से कुछ रहस्य है। राजा ने उससे पूछा--*तुम पर किसका कर्ज है? झौर इतनी थोडी-सी आमदनी मे से उधार पर रुपये कैसे दे पाते हो २” माली बोला--“महाराज ! भेरे माता-पिता ने मुझे पाला-पोसा था। समाज १३० दान महत्व और स्वरूप ते मुझे यह सब ज्ञान-विज्ञान, सस्कार आदि दिये। उनकी सेवा करता हूँ । उनके लिए जो भी खर्च करता हूँ वह एक तरह से कर्ज ही तो चुकाता हूँ । साथ ही अपने बच्चो तथा अन्य निर्धन वालको की शिक्षा पर जो भी खर्च कर रहा हूँ, वह भी एक तरह से उधार देने के समान है। वे बढे होकर मेरी सेवा करके उस कर्ज को धुकार्येगे । इस प्रकार में परिवार ओर समाज को अपने वेतन में से चौथाई देकर अपना पुराना कर्ज चुकाता हूँ और नई पीढी को शेष चौथाई वेतन देकर कर्ज देता हूँ ।” राजा उसकी बातें सुनकर अतीव प्रसन्न हुआ और उसे ही खजाची पद पर नियुक्त कर दिया । इसी हृष्टि से दान देना समाज का कर्ज चुकाना है। इसके विपरीत केवल सग्रह करके रखने से या बटोरने से तो वह कर्ज बढता ही जाएगा, चुकेगा नद्दी, उसके सिर पर लदा रहेगा। जेनशास्त्र स्थानागसुत्र में समाज के इसी ऋण की ओर स्पष्ट सकैत किया गया है- /तिण्हु पृष्पडियार समणाउसो ! तजणहा--क्षम्मापिउणो, भदिटस्स, धम्मायरियस्स । --स्थान० ३॥१।१३* आयुष्मान्‌ श्रमणो ! इन तीनो के उपकार (दान) का बदला (प्रतिदान) देना बडा दुष्कर है। वे तीन ये हैं---माता-पिता का, स्वामी का और घ॒र्माचायें का । इससे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि दान भी समाज और अन्य प्राणियों से सेवा के रूप मे या सहायता के रूप मे लिये हुए दान का प्रतिदान (बदला) चुकाना है। भत्येक मनुष्य को अपने जीवन पर जो भअनेको प्राणियो का, समाज, परिवार, जाति व राष्ट्र का चढा हुआ ऋण है, या जो ऋण प्रतिदिन चढाता जा रहा है, उसे प्रति- दान देकर चुकाना एवं नई पीढी को ऋण देना अनिवाये कतंव्य है, और ऐसा सोच कर प्रतिदिन दान देना आवश्यक है । बान घेना फतंव्य है मनुष्य सामाजिक प्राणी है | किसी मनुष्य ने कुछ पाया है, या जो कुछ पाने मे वह समर्थ हुआ है, उसमे सारे समाज का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग है। इसलिए मनुष्य समाज का ऋणी है और समाज प्रत्येक मनुष्य से उसका हिस्सा पाने का अधिकारी है। अतएवं इस हृष्टि से दान का यह अथें सहज ही प्रतिध्वनित होता है, कि भनुष्य का कर्तव्य है, समाज को अपने अधिकार का देना। यानी दान एक तरह है खी और भूखे आदि को उसका अधिकार सौंप कर अपना कर्तव्य अदा करना है। यही प्रेरणा ईशावास्यउपनिषद्‌ में दी गई है-- “तेन त्यक्त न भु जीथा', भा गृध. कस्यस्विव्‌ घनस्‌ !” दान की पवित्र प्रेरणा १३१ --पहले त्याग (दान) करके फिर उपभोग करो । किसी भी पदार्थ या घन पर आसक्ति न करो, धन किसका है ? एक राजा था, उसके तीन पुत्र थे । राजा बूढा हो चला था | इसलिए उसकी इच्छा थी कि इन तीनो पुत्रो मे से अपने उत्तराधिकारी को चुन लूँ । कई दिनो तक वह निर्णय नही कर सका । आखिर बूढें मनत्नरी की सलाह से उसने तीनो राजकुमारों के सामने एक-एक थाली में खीर परोसी और व्याप्न के समान शिकारी कुत्तो को खोलकर छोड दिये | कुत्ते छटते ही राजकुमारों के पास आए और थाली मे मुंह डालने लगे | पहला लडका तो भय के मारे उठ खडा हुआ और थाली उठाकर पेटी में रख दी ओर भागा। दूसरा राजकुमार डडा लेकर कुत्तो को मारने लगा, उसने कुत्तो को तो बिलकुल नही खाने दिया, लेकिन स्वय भी सुखपूर्वक न खरा सका। तीसरे राजकुमार ने सोचा-- अकेले खाना ठीक नही है, मेरी थाली में परोसी हुईं थाली मे कुत्तो का भी हिस्सा है, इसलिए इनके हिस्से का इन्हे दे देना चाहिए । यह सोचकर उसने कुत्तो को कुछ खीर देदी, वे प्रेम से खीर चाटने लगे, तब तक राजकुमार ने भी निश्चिन्त होकर सुखपुर्वक खीर खा ली | इस रूपक के अनुसार समाज में भी त्तीन प्रकार के व्यक्ति हैं, एक वे है, जो न खाते है, न खाने देते हैं, वे अपने पास की साधन' सामग्री न तो किसी को देते हैं, ने स्वय उसका उपभोग करते हैँ । वे दानरूप कतंव्य के मौके पर भाग खडे होते हैं । दूसरे प्रकार के व्यक्ति दुसरो को तो बिलकुल ही नही खाने देते | वे डडा मारकर भगा देते हैं, जवकि तीसरे प्रकार का व्यक्ति अपने प्राप्त साधनों मे दूसरो का हक समझकर उन्हे पहले देता है, वह पहले जरूरतमदों को देना अपना कतेंव्य समझता है, तदुपरान्त सुखपूर्वक निश्चिन्तता से स्वय उपभोग करता है। यही हृष्टि सामाजिक दान के पीछे ध्यक्ति की होनी चाहिए । कई लोग यह कहा करते हैं कि दान देने वाले के दिल में अहभाव पैदा हो जाता है और वह यह सोचने लगता है कि मैं गरीवों को दान देकर उन पर एहसान करता हूँ । मैं दान नही देता तो अमुक व्यक्ति भूखे मर जाता । मैं दानी हूँ, इसलिए बडा हूँ, यह भावना ठीक नही है। दान तो मनुष्य का कतेंव्य है, किसी पर एहसान लादकर अपना बडप्पन जताना नही है। दानी वडा है औमौर आादाता छोटा है, यह भावना ही उचित नही है । उलटे, यह विचार करना चाहिए कि दान देने वाले को लेने वाले ने दान देने का उत्तम अवसर प्रदान किया है । समाज की वस्तु ही समाज के अमुक जरूरतमन्दो को सौंपनी है। इसमे ऐह्सान किस बात का ? बल्कि कतंव्य है कि उन्हे जल्दी से जल्दी देना चाहिए | पीडितो, निर्घनो, अभावग्रस्तो या प्राकृतिक प्रकोप ग्रस्तो की अवस्था देखते ही उन्हें दे देना चाहिए । इसीलिए वैदिक ऋषि ने समाज सम्बद्ध मानव को कहा है--- १३२ दान महत्व और स्वरूप “शतहुस्त समाहर, सहुस्नहुस्त सकिर ।” १ --अगर तुम सौ हाथो से धनादि साधनों को वटोरते हो, तो तुम्दारा कर्तंव्य है, हजार हाथो से उसे (जरूरतमदो मे) वितरित कर दो, वाट दो, दे दो । सवत्‌ १९५६ के दुष्काल की घटना है। जैनाचायं पृज्य श्रीलालजी महाराज विचरण करते हुए सौराष्ट्र के एक गाँव में पधारे, वहाँ झौंपडे वने देखकर आचार्य श्री ते गाँव के लोगो से पूछा--“क्यो भाई ! ये झौपडे यहाँ क्यो और किसने बनाये हैं ?” ग्रामवासी लोगो ने कहा--/महाराज ! इस साल इस इलाके में भयकर दुष्काल पडा । ग्रामवासी लोग भूखो मरने लगे । हमारे गाँव के एक बोहराजी हैं, जो पहले अत्यन्त गरीबी मे पले थे, उनकी माँ चक्‍की प्रीसकर गुजारा चलाती थी । किन्तु माँ के आशीर्वाद से और बोहराजी के सद्भाग्य से आथिक स्थिति अच्छी हो गई । किसी शहर में इन्होने जमीन खरीदी थी, उस जमीन को खोदने से उसमे से हीरे, पन्ने, जवाहरात आदि निकले । बोहराजी के भाग्य खुल गये । बोहराजी ने गाँव पर आये हुए दुष्काल के सकट की बात सुनी तो वे स्वय गाँव में आये । दु खद स्थिति देखकर उनका करुणाशील हृदय पस्तीज उठा । उन्हे अपनी गरीबी के दिन याद आए ] मन मे सोचा--”इस गाँव की सकटापन्न स्थिति देखकर भी मैं अकेला भौज से रहें भोर मेरे ग्रामवासी दुख मे रहें, यह स्थिति मेरे लिए असह्य-दे । मेरा कर्तव्य है कि गाँव वालो को कुछ देकर उत्का सकट दूर करूँ । मेरे पास क्या था? गाँव वालो की सदू भावना से ही आज मैं दो पैसे वाला बन गया हूँ अत इस दुष्काल सकट को अकेले ही मुझे निवारण करना चाहिए | बस, क्या था । वे गाँव वालो से मिले । हाथ जोडकर कट्दा--“आप मेरे भाई हैं। मैं अपना फर्जे अदा करने के लिए आप लोगो की क्षुछ सेवा भोजनादि से करना चाहता हूँ ।” पहले तो गाँव वालो ने आनाकानी की ! लेकिन बोहराजी की नज़्ता देखकर लोगो ने उनका भोजन लेना स्वीकार किया | तब से बोहराजी ने दो कडाह चढा रखे हैं। हिन्दू और भुसलमान दोनो के लिए अलग-अलग रसोई होती है । यहाँ गाँव के लोग भी भोजन करते हैं, और अन्य गाँव के दुष्काल पीडित भी । बोहराजी ने दुष्काल पीडितो के रहने के लिए ये झौंपडे भी बनवा दिये हैं। यह जो ऊँची हवेली है, यह बोहराजी की है। बोहराजी की माताजी जिस चक्की से आटा पीसती थी, वह चक्‍की सबसे ऊपरी मजिल मे माता की स्मृति मे और अपनी भूतपुर्व गरीब स्थिति की विस्थृति न हो, इसलिए 'रखी गई है। ग्राम- वासी लोगो से बोहराजी की दानरूप मे कर्तव्य की जागरूकता देखकर आचार्यश्री ने अत्यन्त प्रसन्नता व्यक्त की । वास्तव मे, घनवान व्यक्ति को निर्धनो के प्रति अपने दानरूप कतेंव्य पर ध्यान देना चाहिए और उनके भाँगे बिना ही दानरूप मे सहायता करनी चाहिए । तल टच है “4 १ ऋग्वेद (३/२४/५) 0 दान : भगवान एवं समाज के प्रति अपेण भारत के ऋषियों का चिन्तन कहता है कि दान दो, पर लेने वाले को दीन- हीन समझ कर सत दो । यदि दीन-हौन समझकर दोगे तो उसमे अहंकार का विष मिल जाएगा, जो दान के ओज को नष्ट कर देगा । अत लेने वाले को भगवान समझ कर दो | वैष्णव धर्म की परम्परानुसार भक्त भगवान के मन्दिर में पहुंचता है, मूति के सामने मोहनभोग और नैवेद्य चढाता है, वहाँ वह भगवान को दीन-हीन समझकर अर्पेण नही करता, अपितु विश्वम्भर समझकर अरपंण करता है, देता है। उस समय उसकी भावना थही रहती है कि--“प्रभो ! यह सव तुम्हारा है, तुम्हे ही समरपंण कर रहा हूँ ।*” यह कितनी गहरी भौर ऊँची भावना है । अर्पण में कितना आनन्द और उल्लास है ! पुत्र पिता को भोजन अपंण करता है, उसमे भी 'पिठृदेवोभव” की भावना होती है, वैसे ही जैन दृष्टि से प्रत्येक आत्मा को परमात्मा समझकर दो । बादलो की तरह अपंण करना सीखो बादल आकाश से पानी नही लाते, वे भुमण्डल से ही ग्रहण करते हैं। वादलो के पास जी एक-एक बूंद का अस्तित्व है, वह सब इसी भूमण्डल का है । इसी से लिया और इसी को अर्पंण कर दिया १ यही भगवदर्पण की तरह मेघो द्वारा भुमडल को अर्पण है, भूमठडल की चीज भूमडल को समर्पित है। इसमे एहसान किसी वात का नही, और न अह॒कार है, बल्कि प्रेम और विनय है | बस, यही वृत्ति प्रत्येक मानव में होनी चाहिए कि वह प्रत्येक आत्मा को परमात्मा (प्रमु]| समझकर अपँण करे | वैष्णव सम्प्रदाय के एक महान्‌ जाचार्य रामानुज के जीवन का प्रसंग है। उन्होंने धनुर्दास नामक एक निम्नवर्णीय व्यक्ति को अपना भक्त बनाया । वे मठ से कावेरी नदी जाते समय वृद्धावस्था के कारण एक ब्राह्मण भक्त का हाथ पकड कर चलते और वापस श्रीरगम्‌ के मन्दिर की ओर लौठते समय उसी धनुर्दास का हाथ पकड़कर चलते । इससे उच्च वर्णाभिमानी ब्राह्मण भक्तो में आचार्येश्री के इस कार्य पर छीटाकशी होने लगी। आचायंश्री के कानो मे वात पडी तो उन्होने घनुर्दास की सर्वस्व भगवदर्षणता की विशेषता बताने की सोची । जब घनुर्दास आरती के समय मन्दिर १ 'त्वदीय वस्तु गोविन्द ! तुम्यमेव समपंये । १३४ दान महत्व भौर स्वरूप में आया तो उसे रोककर अपने ब्राह्मणत्वाभिमानी शिप्यो को बुलाकर कहा, 'जाभो घनुर्दास की पत्नी हेमाम्वा (जों पहले वारागना थी, किन्तु धनुर्दास को ही भव पति मानने लग गई थी, वैष्णव भक्ता हो गई थी) के सारे आमूषण उतार लाओ ।! शिष्यो को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन गुरु-आज्ञापालन अनिवार्य समझकर ३-४ शिष्य रात्रि के समय धनुर्दास के घर मे गए । हैमाम्बा को सोई देखकर वे जल्दी-जल्दी उसके शरीर पर से रत्नजटित आभूषण उतारने लगे । एक बाजू के गहने उतारे थे कि हेमाम्बा ने पासा फिराया तो शिष्यो ने सोचा--नीद उड गई है, ऐसा जानकर जितने गहने उतारे थे, उन्हे चुपचाप लेकर आचार्य के पास पहुँचे । उन्हे देखते ही आचार्य ने घनुर्दास से कहा, 'घनुर्दास ! बहुत देर हो गई । भव अपने घर जाओो 7 वह गया कि तुरन्त शिष्यो ने हेमाम्वा के शरीर से उतारे हुए वे गहने उनके सामने रखे । आचार्य ने कहा--“अच्छा ! अब धनुर्दास के धर जाकर देखो कि बह क्या करता है ? उपके घर मे इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ?” शिष्य पुन धनुर्दास के घर पहुंचे । बाहर से ही देखा कि घर मे दीपक जल रहा है। हेमाम्वा शब्या पर बैठी थी । उसे देखते ही धनुर्दास ने कहा--“आज यह कैसा वेष बनाया है, तुमने ? शरीर पर एक ओर के गहने हैँ, दूसरी ओर के नही | इसका क्या आर्थ है” “इसका अथ है, मेरा दुर्भाग्य, हैमाम्बा ने खिन्न स्वर मे कहा । "आप आचार्य के पास बैठे थे, तब मैं सोई-सोई दुछ विचार कर रही थी, इतने मे घर मे चोर घुसे । मैंने देखा कि वे सबके सब ब्राह्मण थे | सोचा, बहुत दु्देशा मे होगे, तभी तो ब्राह्मण होकर चोरी करने मे प्रवृत्त हुए हैं। इन्हें कुछ मदद देनी चाहिए, यह सोचकर मैंने सोने का बहाना किया । चोरो ने जब एक बाजू के गहने उत्तार लिए तब मैंने दूसरी बाजू के गहने भी दे देने के लिए पासा फिराया कि वे लोग, 'मैं जग गई हूँ यह जानकर चल दिये । मेरा दुर्भाग्य कि बाकी के गहने मैं उन्हे न दे सकी ।' धनुर्दास ने कहा--यह तेरा दुर्भाग्य है ही, साथ ही अज्ञान भी । आचारयें का उपदेश सुनकर भी तू थह मानती है कि ये गहने मेरे हैं। तू इन्हें ब्राह्मणों को देती है तो उन पर फुछ एहसाव फरती है ? अरे ! यह सर्वेस्थ, सारी सम्पत्ति, भगवान की है । तू फोन किसी फो देकर उपकार करती है ! यह छोटी-सी बात समझ सकी होती तो चुपचाप ज्यो की त्यो पडी रहती । चोरो को जो कुछ ले जाना होता, ले जाते | पर अब सोच करने से क्या ? धैय रख, भगवान की इच्छा होगी तो बाकी के गहने दुसरे किसी के काम आएँगे ।” शिष्य अब वहाँ अधिक न रुके और मठ में आकर आचायेश्री से सारी बात कही । आचार्य रामानुज अर्थ॑पूर्ण मुद्रा मे सुस्करा कर बोले-- जब तुम ही कहो, मैं भगवान के मन्दिर मे जाते समय किसका हाथ पकड़ूँ ? अपना सर्वेस्व दे देने वाले परम वैष्णव धनुर्दास का या चार अग्रुल कपडें के दुकड के लिए झगठने वाले तुम जैसे कुलाभिमानी ब्राह्मणो का ? तुम ही कहो, सच्चा वैष्णवत्व या ब्राह्मणत्त्व तुम में है या घनुर्दास में ” सभी शिष्य लज्जा से नवशिर हो गए । दान भगवान एवं समाज के प्रति अपंण १३५ वास्तव में भगवदर्पण समझकर दान देने वाले व्यक्ति के जीवन में अद्भुत आवन्द और सन्तोष होता है ! मैं मानता हूँ कि भगवदर्पण की यह भावना भक्तिमागं की देन है। किन्तु दर्शन की हृष्टि से भी इसका महत्त्व कम नही है। जैन, वौद्ध एव वैदिक तीनो ही दर्शन मात्मा मे परमात्मस्वरूप या परमात्म अस्तित्व की निष्ठा रखते हैं। आत्मा परमात्मा है, जब हम किसी आत्मा की सेवा करते हैं, उसे कुछ अपंण करते हैं तो एक हृष्टि से परमात्मा के लिए ही अपंण किया जाना समझना चाहिए | अत भक्ति- योग तथा ज्ञानयोग की हृष्टि से विचार करें तो चैतन्य के प्रति अपंण ईश्वरापंण ही है, आप जब किसी चेतन आत्मा को कुछ देते हैं तो उसके विराट ईश्वर रूप पर हृष्टि टिकाइए कि इस देह में भगवान हैं, शरीर मे आत्मा है, वही परमात्मा है मैं उसे ही दे रहा हूं ।' यह दान की विराट दृष्टि है, शुद्र देह को न देखकर विराट आत्मा को देखना और उसके प्रति अपर्ण करना--यह दान का दर्शन है। दान की इस विराट दृष्टि से युक्त व्यक्ति सब कुछ भगवान का भगवद्मय मानकर चलता है । दान भगवान का हिस्सा निकालना है दूसरी हृष्टि से सोचें तो इसी वैष्णव दंत के अनुसार दान एक तरह से भगवान का हिस्सा निकालना है। जो इस मान्यता के अनुसार अपनी कमाई मे से अमुक अश भगवान का समझकर निकालते हैं, उन्हे भी दान देने मे न तो सकोच होता है, न अहकार सताता है और न ही लोगवृत्ति हैरान करती है । उनके लिए दान, दान नही, भगवदर्पण या भगवान का हिस्सा भगवान को सौंपना हो जाता है ! इस प्रकार का भगवदश निकालकर वे लोग जब उस अश को गरीबो, दीनो, अनाथो, अपाहिजो, दु खियो या पीडितो की सेवा मे खर्च करते हैं, उनकी परिस्थिति देखकर बिना भागे ही दे देते हैं, तो वह प्रकारान्तर से भगवान को ही पहुँच जाता है। ऐसा समझ लेना चाहिए । फिर वह भगवदश कही किसी एक मन्दिर या भठ में चढाने की वात नही रहती, सारा विशाल भूमडल ही भगवान का भन्दिर होता है, चारो दिशाएँ उस भन्दिर की दीवारें होती हैं, आकाश उस मन्दिर का गुम्बज होता है, पंत उस व्यापक सन्दिर के द्वारपाल होते हैं, नदियाँ उस विशाल मन्दिर में विराजमान असख्य प्राणियों के चरण घोती है । असख्य मानवादि प्राणी उसके पुजारी होते हैं। इस प्रकार मानकर वह परम वैष्णव (तब्रह्माण्डव्यापी भगवान का भक्त) अपनी आय मे से निकाले हुए भगवदश को अमुक-अमुक जरूरतमदो को देकर या उनकी सेवा मे लगा कर भगवान के ऋण से कुछ अशो मे मुक्त हो जाता है। ऐसे भगवदश निकालने वाले व्यक्ति को किसी प्रकार की कमी नही रहती | कई वार व्यक्ति अमुक हिस्सा भगवान का निकालने का सकल्‍्प करके भी नीयत विग्राड लेता है मौर नीयत मे फर्क आ जाने पर बरकत मे भी फर्क आने लगता है | इसलिए व्यक्ति अपने सकल्प को दुर्वबल न बनाएं । १३६ दान भहत्व और स्वहूप भनुष्य अपनी जिन्दगी में जो भी कुछ कमाता है, उसे प्रभु की धरोहर माद कर चले और अपने व परिवार के लिए थोडा-सा रख कर बाकी का भ्रमु के नाम से निकाल कर दान दे, आवश्यकता हो, वहाँ सत्कार्य मे व्यय करे तो सहज रूप से ही समाजवाद आा जाय । सरकार को समाजवाद का नारा लगाने की जरूरत ही न रहे। और इसी के साथ ही देने मे आत्मतुष्टि, लाम मे नम्रता और हानि मे घैय॑ की वृत्ति बनती है। पर माई के लाल हैं, इस युग मे, जो भगवान्‌ का हिस्सा निकाल कर इस प्रकार दान धर्माद किया करते हैं । गरीब से गरीब आदमी भी हृढ विश्वास के साथ ऐसा भगवदर्पण करता है, तो उसके व्यापार धन्धे मे वरकत हुई है। यह कोई मनगढन्त कहानी नही है, ठोस सत्य है। कोलगेट साचुन व टूथपेस्ट बनाने वाला विश्वविर्यात विलियम कोलग्रेट अमेरिका के अत्यधिक गरीब का लडका था | इसके माता-पिता घर पर ही साबुन बनाते और गरीबो के मोहल्ले में बेचते थे। इसमे से जो थोडा-बहुत मिलता, उसी से गुजारा चलाते थे। एक दिन विलियम से पिता ने कहा--'बेटा ! यो कब तक चलायेंगे, तू न्युयार्क जा और वहाँ अपना भाग्य अजमा ।' विलियम पिता की आश्षा शिरोघार्य करके गाँव की सीमा पर आाया तो एक वृद्ध मिले । उन्होने पुछा--/विलियम ! कहाँ जा रहा है ?' “चाचा ! मैं अपना भाग्य अजमाने न्युया्क जा रहा हूं । वही साबुन का व्यवसाय करूँगा ।' वृद्ध ने कहा-- “ठीक | पर मेरी बातें ध्यान मे रखोगे तो बरकत होगी । वे ये हैं--(१) घने में प्रामाणिकता, (२) ग्राहकों के साथ ईमानदारी, (३) माल मे मिलावट न करना, क्वालिटी ठीक रखना, तोलनाप मे पूरा देना, (४) परमात्मा की छूपा से मिले हुए मुनाफे मे से अभुक हिस्सा निकाल कर सत्कार्य में दे देना ।! वृद्ध की बात विलियम को जच गई। रास्ते मे एक चर्च आया, उसमें जाकर बिलियम ने वृद्ध की साक्षी से प्राथथा की और इकरार भी किया--मैं जो कुछ कमाऊँगा, उसमे से दसवाँ हिस्सा पुण्य का निकाल कर दानादि सत्कार्य में खचू गा ।' न्युयार्क में जाकर विलियम ने एक छोटा-सा साबुन का कारखाना खोला! पहले दिन उसे एक डालर मुनाफा रहा, उसमे से दशमाश निकाल कर सत्कार्य मे खर्च कर डाला। अब विलियम पर दिन-प्रतिदिन प्रभु का आशीर्वाद बरसता गया । न्फ में वृद्धि होने लगी । घन्धा जोरशोर से चलने लगा। ज्यो-ज्यो मुनाफा बढने लगा, वह पुष्य का हिस्सा भी बढाता गया। इस प्रकार घिलियम कोलगेट एक नासी धनिको में हो गया । सचमुच, दान ईश्वरीय अश को सत्काय॑ में अपंण करना है। जब मनुष्य हु श्रद्धा के साथ इसे अंग करता है तो उसका चमत्कार भी उसे दिखाई देता है । उसकी हृढ श्रद्धा के साथ उसे दान की बलवती प्रेरणा भी मिलती जाती है । १३८ दान भहत्व और स्वरूप 'मुझे अपने गुजारे के लिए ज्यादा खर्च नही करना पढता । वृद्ध ने कहां! गाँधीजी--'फिर भी भनुष्य को जीने के लिए कुछ तो चाहिए। आपकी आवश्यकता कितनी है” बृद्ध--'मुझे तो दाल-रोटी के लिए अधिक जरूरत नही दै, केवल १०) रु० मासिक चाहिए / मेरे स्त्री, पुत्र या परिवार नही है। मेरे भतीजे थे, उन्हें मैंने पढा-लिखाकर काम पर लगा दिया। अत अव मैं अकेला ही हूँ । अधिकाश समय ससस्‍्कृत पाठशाला मे बच्चो को पढा कर व्यतीत करता हूँ ।! गाँधीजी-- तब तो आपने अपनी सीमित आय में से जो कुछ हजार बचाए, वे सब्र गरीबो की सेवा में दान कर दिये | यह बहुत बडी बात है। आपसे लोग यह कला सीख लें तो कितना अच्छा हो ।' वृद्ध--'महात्माजी ! मैंने अपने लिए तो बहुत कम खर्च किये हैं। कई दफा तो मैंने अपने पास जो कुछ था, वह गरीबो को दे दिया है| अभी मेरे पास कुछ और रुपये बचे हैं, जिन्हे में फिर कभी लाऊंँगा । मुझे यह पता नही है कि कौन सुपात्र मेरी इस मामूली पूँजी के लिए योग्य है, इसलिए आपके पास चला आया, इन्हें देने । आप सुपात्र गरीबों को जानते है। आपने मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करके कतार्य किया । मुझे आज अत्यन्त सन्तुष्टि है कि मैं अपनी आय मे से गरीब भाइयों के लिए कत्तंव्य रूप मे कुछ भाग निकाल सका ! यो कहकर वृद्ध अध्यापक ने गाँधीजी के चरण छुए औौर घीरे-घीरे चला गया | सचमुच यह घटना करतेंव्य रूप भे दान की और अपने भाग मे से समाज के लिए भाग देने की प्रेरणा दे रही है। इसीलिए एक विचारक ने कहा है-- 'यदि आप भाग्यवान हैं तो अपने भाग मे से भाग देना सीखिए । आपकी सम्पत्ति मे समाज का भी हिस्सा है। यदि भाइयो में सम्पत्ति या जमीन-जायदाद के हिस्से हो रहे हो और आपको अपना हिस्सा न मिले तो आप कितने बेचेन हो उठते है? किन्तु समाज का भाग, जो आपके पास है, उसे देने के लिए बेचैन द्वोते हैं या नही ”' परन्तु देखा यह जाता है कि सम्पन्न लोग अपने स्वार्थ के कामों में तो खुले हाथो खर्च करते है, लेकिन जब कोई कतंव्य के रूप में दान देने का प्रसग आता है, तो वे कृपणता दिखाते हैं, कई बहाने बनाते हैं । एक प्रचारक जी एक घनिक के पास अनाथालय के लिए चन्दा लेने पहुँचे ! उन्होंने अनाथालय को पिछली कार्यवाही का विवरण बताया, सस्या का उद्देश्य और समाज के धनिको का कतंव्य बताकर कहा--'सेठजी | इस सेवाभावी सस्था के लिए कुछ दान दोजिए ।' यह सुनकर सेठ विचार में पड गए। बोले--...अभी तो, लाप जानते हैं कि व्यापार भन्‍दा चल रहा है हालाकि सेठ के घर मे पा, रेडियो, रेफ़ीजेटर, ऐयर कडोशन रूम वगैरह की सब सुख-सुविधाएँ बाकायदा चालू थी ! पर अच्छे कार्य के लिए दान देने मे कमाई की कमी का बहाना बचा लिया | प्रचारक १४० दान » महत्व और स्वरूप परन्तु जिनके दिल में दात का दीपक जल उठता है, कर्तव्य की सोशनी जिनके हृदय में हो जाती है, वह व्यक्ति फिजूल कामो में एक भी पाई खर्च करने से कतराता है, एक दियातलाई भी व्यर्थ खर्च करने में हिचकिचाता है, मगर समाज-सेवा का कोई कार्य आ जाता है अथवा विपदग्रस्तो को दान देने का प्रसंग आता है तो वे मुक्तहृत्त से लुटाते हैं । प० मदनमोहन मालवीय ने हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के लिए करोडो रुपये राजा-महाराजाओ से इकट्ठा किया था वे कहा करते थे---भारतवर्ष के हर धर पर दाता खडा है, कोई लेने वाला चाहिए ।” एक बार वे कलकत्ता के एक नामी सेठ के यहाँ बडा भारी दान पाने की आशा से पहुँचे तो उस समय घर का मालिक बैठक- खाने मे ही बैठा था | प० मालवीयजी को उसमे सत्कारपुर्वक विठाया । इतने में उनका एक छोटा लडका आया और एक दियासलाई की सीक जलाकर डाल दी, दूसरी जलाने लगा तो सेठ ने उसे रोका, डाटा और कसकर एक थप्पड जड दी । लड़का रोता हुआ बाहर चला गया! मालवीयजी विचार मे पड गए--'जो मनुष्य एक दियासलाई के जलाने पर अपने लडके के थप्पड मार सकता है, वह सार्वजनिक सस्या के लिए कया दान देगा ? वे निराश होकर जाने लगे । सेठ ने कहा---'आप जा क्यो रहे हैं ? मेरे लायक सेवा फरमाइए न ?! मालवीयजी ने उनसे कहा---में तो हिल्ू- विश्वविद्यालय के लिए कुछ दान लेने आया था ।' सुनते ही सेठ ने ५० हजार रुपये का चैक काट कर दे दिया । मालवीयजी अवाक्‌ रह गए । जाते-णाते उन्होंने पूछ ही लिया--सेठजी ! मै तो पहले इसी कारण से निराश होकर जा रहा था कि जो व्यक्ति एक दियासलाई जलाने पर अपने लंडके के थप्पड भार सकता है, वह कोमल-हुंदय कैसे होगा ? वह क्या रुपया देगा, इस सार्वजनिक सेवा सस्था के लिए ” सेठ ने कहा--'मालवीयजी |! जिस कार्य से लड़के का कोई हित न हो, भविष्य की परम्परा बिगडे, उसे मैं बरदास्त नही कर सकता । वैसे सदुपयोग के लिए लाखो रुपये खर्च करने को तैयार हूं ।” मालवीयजी का समाधान हो गया । वे सन्तुष्ट होकर चले गए । तथागत बुद्ध की दान के सम्बन्ध मे कितनी सुन्दर प्रेरणा है--- सकक्‍कच दान देथ, सहत्या दान देंथ। चित्तीकत दान देय, अनपविद्ध दाम देय ॥* “ सल्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो और ठीक तरह से दोषरदह्िित दान दो ।! सहानुभूतिपुर्ण हृदय से दान फी प्रेरणा सहज होती है जो व्यक्ति सहृदय होते हैं, दूसरो के दु खो को देखकर पिघल जाते हैं और ०-०५, १ दोधनिकाय २१०४ दान भगवान एवं समाज के प्रति अपेण १४१ उनके दु ख मे रो पढते हैं, वे व्यक्ति उनके दु खो को मिटा कर ही दम लेते हैं। वे दान दिये बिना रह ही नही सकते । उनके हृदय मे दान की प्रेरणा सहज होती है । ईरान के महाप्राण कवि शेखशादी के बोस्ता की एक कथा है--एक बार दमिश्क मे भारी दुष्काल पडा | लोग घडाघड भूखे भरने लगे । पानी भी दुखियो की आँखो के सिवाय कही नजर नही आ रहा था। पेड पत्तो बौर फूलो से रहित बिलकुल दूँठ-से हो गये थे। इसी अ्से मे एक दिन एक मित्र मुझसे मिलने भाया | उसका दीद|र देखकर मैं विचार मे पड गया । एक जमाने में शहर के घनिको भे अग्रगण्य, आज सूखकर अस्थिपजर क्यो हो गया है ? मैंने उससे पूछा--'ेरे नेक दोस्त | तुझ पर कौन-सी आफत आ गई जिससे इस प्रकार फरटेहाल हो गया ” सुनते ही पुण्य प्रकोप से वह लाल-लाल माँखें करके घूरते हुए बोला - अरे पांगल | सारी वात जानता है, फिर भी मुझे पृछता है ? तेरी अक्ल कहाँ चरने गई है ” तुझे पता नही कि विपत्ति सीमा तोड चुकी है। आश्वासन देते हुए मैंने कहा -- परन्तु इन सबसे/ तुझे कौन-सी आच आई ? जहर तो वही फैलता है, जहाँ अमृत न हो। प्रतिदिन की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए तू तो वैसा का वैसा सही सलामत है ।' मेरी बात सुनकर रजभरी आँखो से उसने मेरे सामने देखा । वह ऐसा खिन्न मालूम होता था, भानो कोई ज्ञानी अज्ञानान्धकार मे भटकक्‍्ते हुए व्यक्ति को ताक रहा हो । दी्घे- नि श्वास लेते हुए उसने मुझसे कहा--'मेरे अज्ञात भाई | अगर किसी आदमी के तमास भिन्न समुद्र मे डूब रहे हो और अकेला ही किनारे खडा-खडा उन्हे देख रहा हो, तो उसे चैन पड सकता है ? मेरे पास घन न रहा, ऐसी बात नही है| मैंने अपने घन का सदुपयोग इन्ही भूखो और दु खियो के दु ख निवारण मे किया है, फिर भी मैं अकेला कितना कर सकता था ? अक्लमन्द वही समझा जाता है, जोन स्वय जरुमी होना चाहता हो, और न दूसरो को जख्मी देखना चाहता हो ! पास में बीमार पडा कराह रहा हो, उस समय स्वस्थ आदमी को कभी चैन पड सकता है ”? बस, यही हालत मेरी है । मैं जब देखता हूँ कि मेरे आसपास हाय-हाय भच रही है, तो अमृत का कौर भी जहर बन गया है। मैं अपना धन, साधन और जो कुछ भी था, जरा-सा रखकर इन लोगो मे लुटा दिया । इसका मुझे कोई अफसोस नही । मेरा यह सहज कतेंव्य था । वास्तव में दान देने के लिए विवेकी व्यक्ति को बाहर की प्रेरणा की जरूरत ही नही पडती उसकी अन्तरात्मा ही स्वय उसे दान देने की प्रेरणा करती है, जिसे वह रोक नही सकता । सन्‌ १६४० की बात है। जैन समाज के प्रसिद्ध कार्यकर्ता श्री ऋषमदास जी राका अपने एक मित्र से मिलने गये हुए थे | वे दोनो गद्दी पर बैठे बातें कर रहे थे, इतने मे एक व्यक्ति आया और दु खित चेहरे से लाचारी बताते हुए बोला---'सेठ्जी ! इस समय मैं बहुत दु खी हूँ | मुझे खराब बीमारी हो गई है। दवा के लिए और १४२ दान भहत्व और स्वरूप खाने के लिए भी पैसे पास में नही हैं। किसी काम पर भी इस समय जा नहीं सकता । कृपा करके भुझे कुछ मदद कीजिए ।” राकाजी के मित्र ने पेटी खोल कर मुट्ठी में जो कुछ आया, उसे दे दिया। राकाजी यह देख रहे थे। वे चुप न रह सके, बोले--आपने यह क्या किया ? वह तो चरित्रहीन और दुराचारी था ।” उनके मित्र ने फहा--“मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ, लेकिन वह दु खी था। उसका दुख मुझसे नही देखा गया, इसलिए मैं इसे (दान) दिये बिना रह ही न सका ।” यह था, अन्त प्रेरणा से दान, जिसे राकाजी के मित्र रोक न सके । तथागत बुद्ध की भाषा में अन्तरात्मा में दूसरी आत्माओ के प्रति श्रद्धा बढाने फे लिए दान देना अत्यावश्यक है-- वान ददतु सद्धाय, सील रफ्खतु सब्वदा । भावनाभिरता होतु एत बुद्धान सासन। “-भआत्म-श्रद्धा बढाने के लिए दान दो, छील की सर्वेदा रक्षा करो और भावना मे अभिरत रहो, यही वुद्धों का शासन (शिक्षण) है ।” अगर भनुष्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति वफादार रहे तो उसे अन्तर की भावाज था हृदय की श्रेरणा सब कुछ दे देने की होती है, मले ही वह उस आवाज को दबा दे । श्री आइजन हॉवर (भूतपूर्व राष्ट्रपति अमेरिका) ने अपने भाषण के सिलसिले में एक बार बडो मजेदार दिलचस्प कहानी सुनाई थो--''मेरे बचपन के दिंनों में मेरे घर वाले एक वृद्ध किसान के यहाँ गाय खरीदने गए। हमने किसान से गाय की नस्ल के बारे में पूछा पर उस भोले-भाले किसान को नस्ल क्या होती है, यह कुछ भी मालूम न था। फिर हमने पूछा, कि 'इस गाय के दूध से रोज कितना मक्खन निकलता है ? क्सान को इतना भी ज्ञान न था। अन्त में, हमने पूछा--“खैर, यही बताओ, तुम्हारो गाय साल मे औसतन कितना दूध देती है ? किसान ने फिर सिर हिलाते हुए जवाब दिया--मैं यह सब नही जानता । बस, इतना जानता हूँ कि यह गाय बडी ईमानदार है। इसके पास जितना भी दूध होगा, वह सब आपको दे देगी।” तदृपरान्त आाईजन हॉवर ने अपने भाषण का अन्त करते हुए कहा--“सज्जनों ! मैं भी उसी गाय की तरह हूँ । मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब मैं आप लोगो (राष्ट्र व समाज) को दे दू गा ।” सचसुच, अन्तरात्मा की दान की प्रेरणा की आवाज में बढा वल होता है। भद्दात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, या अन्य तीर्थंकर जो सर्वस्व त्याग (दान) करके मिकले थे, उसके पीछे अन्तरात्मा की प्रवल जावाज ही तो थी ! दान भगवान एवं समाज के प्रति अरपण १४३ तीर्थंकरो हारा वाधिक दान अन्त'प्रेरणा से आज दिन तक जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, वे सभी सर्व-समय ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक सूर्योदय से लेकर प्रात कालीन भोजन तक एक करोड आठ लाख स्वण॑मुद्राएँ दान देते रहे हैं- आचाराग सूत्र" इस बात का साक्षी है। वहाँ तीर्थकरो के द्वारा वर्ष भर तक दान दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख है-- सबच्छरेण होहिति अभिव्खमण तु जिणवरिदाण । तो अत्यि सपदाण पव्वत्ती पुव्वसूराभो। एगा हिरण्ण फोडो अद्ठेव अणूणया सयसहस्सा। सूरोदयमादीय दिज्जद जा पायरासो त्ति ॥” इस प्रकार का वाषिक दान, यो ही नही हो जाता है, न यह कोई बिना समझ्न का दान है ! यह तो तीर्थंकर जैसे परम अवधिज्ञानी के अन्त करण की प्रेरणा से प्रादुमु त दान है, जिसकी अखण्ड घारा लगातार एक वर्ष तक चलती है, और वह दान प्रक्िया भी प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर कलेवा न कर लें, उससे पहले पहले तक चलती है। इसके पीछे भी गम्भीर रहस्य है। जगत्‌ की दरिद्रता मिटाने के लिए एवं अपनी त्याग की समृद्धि, क्षमता और शक्ति बढाने के लिए तो यह वाधिक दान है ही, परन्तु सबसे वडी बात है, जगत्‌ को दान की प्रेरणा देना। जगत्‌ के लोग यह समझ लें कि धन मनुष्य की प्रिय वस्तु नही है, जिसे कि वह प्रिय समझता रहा है। सबसे प्रिय वस्तु आत्मा है, उसे दान से ही म्ट्ट गारित-- सुसज्जित किया जा सकता है, घन सग्रह से नही । अत दीक्षा लेने से पूर्व तीर्थंकर वर्षमर तक दान देकर ससार को दान देने का उद्वोधन करते हैं कि “दान दिये बिना आत्मा की शोभा नही है। दान से ही सर्वेभूत मैत्री, आत्मीयता, विश्ववत्सलता विश्ववन्धुता आदि सम्भव है। दाने से ही जीवन मे उदारता आती है, स्वार्थ त्याग की प्रेरणा जागती है फिर मनुष्य हिंसा असत्य, चोरी आदि दुष्कर्मो भे मन से भी प्रवृत्त नही होता । इसलिए सौ हाथो से कमाओ तो हजार हाथो से उसका दान कर दो । यही कारण है कि तीर्थंकर बिना किसी भेदभाव के दान देते हैं। उनसे दान लेने के लिए सनाथ, अनाथ, पथिक, प्रेष्य, भिक्षु आदि जो भी आते थे, उन्हे वे मुक्तहस्त से दे देते थे। ज्ञातृ धर्मकंथाग सूत्र मे तीर्थंकर मल्लि भगवती के वाषिक दान के सन्दर्भ मे वहाँ इस बात को स्पष्ट अभिव्यक्त किया है ।* वे अपने वाधिक दान से ससार को यह भी अभिव्यक्त कर देते हैं कि आाहँती दीक्षा ग्रहण करने के बाद तो शील, तप और भाव, घर्मं के इन तीन १ आुत रार३ गा ११२-११३ २ तत्तेण मल्‍ली जरहा कल्लाकल्लि० जाव मागहनो पायरासोत्ति बहूण सगाहाण य अणाहाण य पथियाण य पहियाण य करोडियाण या कप्पडियाण य एगमेग हिरण्णकोडि अट्ट य अणूणाति सय सहस्साति इमेबारूव अत्यसपदाण दलयत्ति, । --ज्ञातृधरमंकथा० श्रु० १, ज ८, सू ७६ १४४ दान महत्व और स्वरूप भगो का पालन तो व्यावहारिक रूप से हो सकता है, परन्तु दान धर्म का पालन व्यव- हार रूप से नही हो सकता | इसलिए गृहस्थाश्रमी जीवन में रहते हुए ही दान दिया जा सकता है, इसी अन्त प्रेरणा से दान दिया जा रहा है । गृहस्थाश्रम दानधर्म पर ही टिका हुआ है। दान धर्म की वुनियाद पर ही गृहस्थाश्रम की जढडें सुहृढ होती हैं।' इससे बढकर दान की और अधिक प्रेरणा क्या हो सकती है । दान धर्म का आचरण करके हृदय को मुलायम, नप्र, निरभिमानी, नि स्वार्थ, निष्काम एवं निर्मल बना कर हृदय भूमि पर आत्मघम का बीजारोपण करते हैं । तीर्थंकर महान्‌ पुरुष होते हैं । उनका प्रत्येक आचरण जगत्‌ के लिए अनुकर- णीय होता हैं। उनकी प्रवृत्ति का अनुसरण करने से किसी भी व्यक्ति का किसी भी प्रकार का अहित नहीं । गीता की भाषा भे-... 'यद्यदाचरति श्रेष्ठ तत्तवेवेतरों जनः। स॒यत्मसाण फुरुते लोफस्तदलुयतंते ॥॥' “- श्रेष्ठ पुरुष जिस-जिस वस्तु का आचरण करते हैं, अन्य साधारण जन भी उसी का आचरण करते हैं | वे जिस वस्तु को प्रमाणित कर जाते हैं, लोग उसी का अनुसरण--अनुवतंन करते हैं इस हृष्टि से ती्थंकरो द्वारा आचरित दानधर्म की प्रवृत्ति विश्व के लिए, खासतौर से सद््‌गृहस्थ के लिए प्रतिदिन आचरणीय है, अनुसरणीय है। दानधर्म के आचरण से किसी भी जीव का अनिष्ट या अहित नही है। बल्कि इसमे सारे विश्व का हित और कल्याण निहित है । यही कारण है कि तोय॑ंकर जैसे ज्ञानी पुरुष दीक्षा से पूर्व एक वर्ष में कुल ३ अरब, ८८ करोड, ८० लाख स्वर्ण मुद्राओ का दान दे देते हैं ।* इस प्रकार उच्चकोटि का दान देकर वे ससार के समक्ष भृहस्थाश्रम का भी एक आदर्श प्रस्तुत कर जाते है। तीरथकरों के वाषिक दान से एक बात यह भी घ्वनित होती है कि नाशवान घन का त्याग करने से ही अविनाशी आत्मा की खोज हो सकती है | जो व्यक्ति इत नाशवान घन के भोह मे पडा रहता है, इसे जरूरतमन्दो को नहीं देता, वह धव उस भ्रमादी व्यक्ति की इस लोक मे या परलोक मे रक्षा नही कर सकता,* न ही घन कभी मनुष्य को तृप्त कर सकता है। १ तिण्णेव कोडिसया, अदृठासीई ज होति फोडीओ । असिय व सयसहस्सा एय सबच्छरे दिण्ण ॥ --आव० सि० गा २४२ २ “वित्तेण ताण न लगे पमत्तें, इमम्मि लोए अदुवा परत्था'_ ---उत्तराध्ययनसूत्र ३ न हि वित्तेन तपंणीयों मनुष्य --उपनिषद दान भगवात एवं समाज के प्रति अपंण १४५ उपनिपद्‌ मे एक कथा आती है । याज्ञवल्वय ऋषि अपने जमाने में बहुत अच्छे विद्वान्‌ और ज्ञानी थे । एक दिन उन्हे विचार आया कि इस प्रवृत्तिमय जीवन से अब मुझे सन्‍्यास लेकर केवल आत्मा का ही, श्रवण, चिन्तन, सनन, निदिध्यासन करना चाहिए । अत उन्होने अपनी मैन्रेयी और कात्यायनी नामक दोनो पत्नियो को बुला- कर कहा--“लो, अब मैं सन्यास ले रहा हैँ, इसलिए सनन्‍्यास से पहले अपनी सारी सम्पत्ति तुम दोनो मे वाँट देना चाहता हूँ मैत्रेयी कुछ बुद्धितती थी, उसने पूछा-- “स्वामिन्‌ | आप जिस सम्पत्ति को हमे देकर सन्यास लेना चाहते हैं, क्या वह सम्पत्ति हमे अमरत्व प्रदान कर सकेगी ? याज्ञवल्क्य--“नही, यह सम्पत्ति स्वय नाश- वान है, तब अमरता कैसे दे देगी ? वल्कि सम्पत्ति का जो अधिकाधिक उपयोग अपने था अपने स्वार्थ के लिए ही करता है, उसे वह पतन, घिलासिता और अशान्ति की धोर ले जाती है। वह मनुष्य को तृप्त नही कर सकती ।”” इस पर मैत्रेयी बोली-- स्वामिन्‌ | तब मुझे यह भौतिक सम्पत्ति नही चाहिए। आप इसे बहन कात्यायनी को दे दीजिए । मुझे तो आध्यात्मिक सम्पत्ति दीजिए, जो अविनाशी हो। जिसे पाकर में अमरत्व प्राप्त कर सकूं ।” याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रयी की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए उन्होने मैत्रेयी को आध्य्रात्मिक मार्ग बताया । इस सवाद से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तीर्थंकरो के सावत्सरिक दान की तरह प्रत्येक व्यक्ति को इस भौतिक घन का परित्याग करके आध्यात्मिक घन पाने का अयर्न करना चाहिए । भौतिक घन के परित्याग के लिए सबसे उत्तम और सुलभ मार्ग 'दान' का है। हिन्दी के महान्‌ प्रतिभाशाली साहित्यकार 'मारतेन्दु हरिश्चन्द्र” पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनो की समान कृपा थी। वे केवल अर्थ से ही धनी नही थे, दिल के भी धनी थे । मुक्तहस्त से उदारतापूर्वंक घन लुटाने मे उन्हे अपार सन्तोष होता था । एक दिन एक पत्र ने स्वाभाविक स्नेहवश उन्हे टोकते हुए कहा---“तुम्हारे द्वारा इस भ्रकार घन लुटाने से भविष्य मे कोई समस्‍या तो नहीं खडी होगी ? जरा सोच- विचार कर खर्च किया कर ।” इस पर हरिश्चन्द्र ने खिलखिलाते हुए कहा---“भरे भाई | इस घन ने मेरे पिता को खाया, दादा को खाया और प्रपितामह को खाया और मुझे भी तो आखिर खाएगा ही । तो फिर मै ही इसे क्यो न खालूँ ?” विस्मय- विभुग्ध मित्र हरिश्चन्द्र की इस दाशेनिकतापूर्ण उदारता से बहुत प्रभावित हुआ । कहना न होगा कि घन का अगर दान के रूप में उपयोग नही किया जाता है तो वह मनुष्य को असक्त, लुब्ध, कृपण अथवा विलासी या पतित बनाकर नष्ट-अ्रष्ट कर देता है। यानो घन को खाने के बदले, घन भनुष्य को इस तरह खा जाता है । [| - गरीब का दान गरीब का दान भधिक महत्त्वपूर्ण कई बार भनुष्य के अन्तर में दान देने की शुद्ध प्रेरणा होती है, किन्तु उत्त प्रेरणा को वह दबा देता है। वह कभी तो मन को इस प्रकार मना लेता है कि मै कहाँ धनवान हूं । मुझसे वडे-बडे धनिक दुनिया मे पड़े हैं, वे सब तो दान नही देते, तब मैं अकेला ही छोटी-सी पूंजी से कैसे दान दे दूँगा । पर वह यह भूल जाता है हि गरीब आदमी का थोडा-सा दान घनिको को महाप्रेरणा देने वाला बन जाता है। आज मनुष्य का आत्मज्ञान साधारण तौर पर अपने परिवार तक ही विकसित हुआ है। भनुष्य प्राय स्त्री, पुत्र और परिवार के लिए कितना अधिक त्याग करता है और कष्ट सहता है, किन्तु परिवार के बाहर मनुष्य प्राय हृदयहीन रहता है। परिवार के वाहर साघारणत उसका आचरण पशु जैसा ही रहता है। इस मामले में कम पूंजी वाले लोग भी उन दीन-दु खियो के प्रति सहानुभूति नहीं रखते । स्वयं दरिद्र होने या दु ख का अनुभव किये हुए होने पर भी अधिक दरिद्र ओर ढु खी को देखकर हमददीं नही पैदा होती । एक व्यक्ति दु.खी दीख सकता है, पर दूसरे $ खी की अपेक्षा से बह सुखी साबित हो सकता है। समुद्र सबसे नीचे है, इसलिए (एस्‍वी का सारा जल समुद्र की ओर प्रवाहित होता है। इसी प्रकार समाज के अंति धनी, घनी, सध्यम वर्गीय आदि सबका दान गरीब, दुखी, अभावग्रस्त एवं पीढित को मिलना चाहिए | गरीब के पास भी जो थोडी-सी पूँजी है, उसमे से वह थोडा-सा भी देगा तो समाज में उसके अ्रति भी सद्भावना जाग्रेगी और उसकी स्वय की शुद्धि, स्वामित्व विसर्जन की भावना, परम्परा से बालको मे दान देने की भावना, उदारता और सहृदयता पनपेगी । तथागत बुद्ध एक बार भिक्षा के लिए जा रहे ये। रास्ते में एक जगह हर बच्चे धूल मे खेल रहे थे। उनमे से एक बालक ने ज्योही तथागत बुद्ध को देखा, प्मी ही वह मुट्ठी मे ूंण भर कर लाया और बुद्ध के भिक्षापात्र में देने लगा। लोगों ने देखा तो उस बालक से वे कहने लगे--“गन्दे लखके ! यह क्या दे रहा है; मद्वत्मा- बुद्ध को ” लडका भाव-विभोर हो रहा था । बुद्ध ने अपना पात्र उसके सामने करे दिया ओर बच्छे के हाथ से घूल लेने लगे । उन्होने उन लोगो को रोका, जो बच्चे को गरीब का दान १४७ झिडक रहे ये और घूल देने से मना कर रहे थे । उन्होंने कह्ा--यहं बच्चा घूल देकर महात्माओ को देना तो सीख रहा है। इसमे दान देने के सस्कार तो हैं ।' इस प्रकार गरीबो के दान से उनके बालकों मे भी दान के सस्‍्कार सुहढ होते हैं । जो गरीब है, वे भी यह न मानें कि मैं क्या दे सकता हूँ, मेरे पास दान देते को कया है ? केवल धन का दान ही, दान नहीं है, साधन, श्रम, बृद्धि, विचार आदि का दान भी है, उसकी कमी तो शायद गरीब से गरीब व्यक्ति के पास नही होगी । बल्कि गरीब लोग दान देने का सिलसिला शुरू कर देते हैं तो उसमे धनिकों को भी शामिल होना पडता है | वास्तव मे, दान के विषय में पहल घनिकों को करनी चाहिए, पर उनको जो सम्पत्ति, साधन आदि देने पडते हैं, उनकी तादाद बडी होने के कारण और अधिक चीज में ममता-मूच्छो भी अधिक होने के कारण धनिकों को अपने दिल को समझा कर निर्णय करने मे प्राय कुछ देर लगती है | गरीब की अपनी थोडी-सी पूँजी पर आसक्ति तो होती है, लेकिन समझाने पर वहूं झटपट निर्णय कर लेता है। वह जल्दी दान देने को तैयार हो जाता है । दूसरी बात यह है कि समाज मे एक प्रकार की स्वार्थवृत्ति चल रही है । गरीब हो या अमीर सब पर उसका असर है स्वार्थवृत्ति घटे बिना समाज का उत्थान नही हो सकता । गरीब-अमीर सबको घन की लालसा भी सता रही है। जो धनिक नही हैं और धनिको को दीष देते रहते हैं, वे भी धनिक बनने की लालसा तो अन्तर्मन में सजोए हुए हैं हो। चारी ओर धन के लिए--विनश्वर धन के लिए दौडधूप भची हुई है । इसलिए समाज के सभी वर्गों मे पैसा बढाने की लालसा पर लगाम लगाने की जरूरत है। भारत मे €० प्रतिशत लोग गरीब हैं। १० प्रतिशत ही ऐसे होगे, जो घनादुय हो | इसलिए गरीब लोग अगर अपनी सीमित आए मे से थोडा-योढा दान देंगे तो, उनके हृदय की शुद्धि होगी, धनिको को भी दान करने की प्रेरणा जगेगी और सबका स्वार्थ एव लोम कम होगा | समाज मे आथिक समता, एक-दुसरे के सुख-दु ख की चिन्ता, एकता की भावना बढेगी, परिणामस्वरूप सब लोगो के द्वारा दान मे हिस्सा लिये जाने से राष्ट्रीय जीवन शुद्ध होगा | इसीलिए बुद्ध ने गरीबो के दान को भी बहुत बडा महत्त्व दिया है-- 'अप्पस्मा दबित्वणा दिन्ना, सहस्सेन सम सता ।' --अगुत्तरनिकाय थोडे मे से जो दान दिया जाता है, वह हजारो लाखो के दान की बरावरी, करता है | इसीलिए घनी के दान में स्वामित्व का बेंटवारा हो जाता है, जबकि गरीब के दान से स्वाभित्व विसर्जन की क्रान्ति सम्भव होगी । क्योकि गरीब के दान मे इस आान्ति का वीज निहित रहता है। गरीव अच्छी तरह समझकर हृदय से जो अल्प से अल्प दान देगा, उसका मूल्य दान के परिमाण से नही आका जा सकता--वह अमृल्य होगा । क्योकि वह दान अभिमत्रित होगा। वह महान्‌ दान समाज के वातावरण को १४८ दान महत्व और स्वस्प प्विन्न बनाएगा और विचारकान्ति की सृष्टि में भारी प्रेरणा देगा | वह अमुलः मत्रित दान समाज के लिए पारसमणि सिद्ध होगा, जिसके स्पर्श से सारा समा< हो जाएगा । यहाँ हमे महाभारत की “राजसूययज्ञ और नेवल़े' की क्या का सम गाता है । देश मे भारी दुष्काल पडा हुआ था । एक दरिद्र ब्राह्मण परिवार कई | भूखा था। ब्राह्मण किसी प्रकार कही से थोडा सत्तू ले आया । परिवार व्यक्ति थे- ब्राह्मण, ब्राह्मणी, उनका पुत्र और पुत्रवधू | उतने सत्तू से चार ०४ का पेट भरना तो दूर रहा, प्रत्येक को केवल कुछ ग्रास मिलते । चार व्यत्ति लिए सत्तू चार भाग मे बाँटा गया । स्नान-ध्यान के बाद ब्राह्मण अपने हिस्से र खाने बैठा । इसी समय उसने देखा कि एक अकाल पीडित भूखा ककाल व्यत्ति द्वार पर खडा है। ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सारा सत्तू अत्यधिक श्रद्धां और के साथ उसे खाने को दे दिया और स्वय मूखा रह गया । क्षुघात्त॑ व्यक्ति उतर खाकर कहने लगा कि उतने से उसकी क्षुधा शान्त नही हुई, बल्कि और बट तब ब्राह्मणी ने भी अपने हिस्से का सत्तू स्नेहपूर्वक उसे दे दिया। उसे भी खाब व्यक्ति ने कहा कि उसकी भूख शान्त नही हुई है । तब ब्राह्मणपुत्र ने सहानुर्भ[ उसे अपने हिस्से का सत्तू दे दिया। उसे भी खाकर उस व्यक्ति ने कहा कि क्षुपा अभी शान्त नही हुई, तो पुन्रवधू ने भी अपने हिस्से का सत्तु उसे अपि दिया । उसे खाकर वह व्यक्ति तृप्त हो गया और पुलकित मन से आशीर्वाद वहाँ से चला गया । एक नेवला पास के एक वृक्ष पर बैठा यह सब देख रहा था। “कुछ बची होगी तो उसे मैं खाऊंगा', सोचकर वह पेड से उतरा और उस व्यक्ति ने बैठकर सत्तू खाया था, वहाँ पहुंचा | किन्तु वहाँ उसे एक कण भी नही मिला वह उसी स्थान पर लौटने लगा और जब उठा तो उसने देखा कि उसका शरीर सोने का हो गया है । आनन्द से उसकी सूख मिट गईं। उसने सोचा कि अतिथि खाता है, वहाँ लोटने से शरीर स्वर्णमय हो जाता है । अतएवं वह उस से जहाँ कही अतिथि को भोजन करते देखता रुक जाता और उसी स्थान पर लो उसकी एकमान्न इच्छा अपने शेष आधे शरीर को सोना बना लेने की थी। मगर वर्ष बीत जाने पर भी उसकी यह इच्छा पूर्ण नही हुईं । अनेक अतिथि सत्कार स्थानों में वह लोटा, पर उसका एक बाल भी सोने का नही हुआ | अच्त में रा यज्ञ का समय आया। हजारो-लाखो व्यक्तियों ने वहाँ भोजन किया । वह नेवला बडी आशा के साथ रात-दिन राजसुय यज्ञ के मोजनालय के एक छोर से दूसरे तक लोटता रहा, किन्तु उसका एक रोम भी सोने का न हुआ । युधिष्ठिर भा * तेवले के मुंह से उसकी सारी कहानी सुनी । राजसूय यज्ञ करने के कारण य्रुधि १५० दान महत्व और स्वरूप सिर्फ ४० डिसमल जमीन है । इसके दो वेटिया भी हैं । इससे आप क्या लीजिएगा ?' विमला वहन ने उससे कहा--“बहन, आपसे हम दान कया लें, आप यह ४० डिप्तमल जमीन विनोबा का प्रसाद समझकर वापस ले लौजिए। आप यदि जमीन जोतना चादह्देगी तो जब बेटवारा होगा, आपको भी हम जमीन दिला देंगे !” इस पर वह रोने लगी और हाथ जोडकर कहने लगी-/मैं गरीब हूँ, इसलिए मेरा दान लौटा रही हो ” आगे बह मुझसे पूछती है--'क्या विदुर का साग भगवान को प्रिय नहीं था? क्या सुदामा के तन्दुल भगवान को प्रिय नहीं थे, जो आज मुझ गरीब का दान लौटाया जा रहा है ” विभला बहन उसके मुख से भारतीय सम्कृति का दर्शन सुनकर कायल हो गईं | उस गरीब बहन के चरणों में झुककर प्रणाम किया और दरिद्रतारयण का नह प्रसाद लेकर आगे वढी । उसके दान का यह प्रभाव हुआ कि दूसरे दिन सुबह विमला वहन जब, उठी तो अपने पडाव के सामने उस याव के सभी भूमिघारियो को खडे पाया। जिसने दान दिया था, वे कहने लगे कि वहन जी ! रात भर सो नही सके । मुसम्मात ने जब '४० डिसमल जमीन दे दी तो, हमने सोचा ५० एकड मे से सिर्फ १३ एकड जमीन दी, यह ठीक नही हुआ, अत १७ एकड का दान और लिख लोजिए। जिसने २५ एक भे से ३ एकड़ का दान दिया था, उसने १४ एकड जमीन और दी । बाकी भूमिधारी भाइयो ने भी थोडी-योडी जमीन और दान में दी । अत गरीब के दान का नैतिक प्रभाव अमीरो पर अवश्य पडता है, इसमे सन्देह नही । अद्भुत बानो--भीमाशाह भीमाशाह था तो गरीब ही, पर था बहुत ही उदार । उसके दिल में भी जैन सघ के द्वारा किये जाने वाले सत्कार्यो मे कुछ देने की ललक उठा करती थी । भीमा- शाह छोटी-सी हृडिया मे धी गाँव से भरकर लाता और शहर में आकर बेच देता था, इससे उसे जो कुछ भामदनी होती थी, उसमे से थोडा-सा अपने लिए रखता, बाकी सब सघ को अपित कर देता या सरकारों मे दान कर देता | गुजरात के चतुर जैन अन्‍्त्री वाग्भट (बाहड) सघपति थे । जैन धर्म की प्रवल प्रभावना का उन्होने जब बीडा उठाया तो सधघ के आवको ने प्रार्थना की--इस शुभ कार्य में हमारा भी हिस्सा होता चाहिए । बहुत आतनाकानी के बाद मन्‍्त्री वाग्भट ने संघ के सदस्योसे चन्दा लेता स्वीकार किया | गाज सुबह से ही सघपति वाग्मट भन्‍्त्री के यहाँ आने-जाने वाले लोगों का ताता लग रहा था। एक के बाद एक श्रेष्ठी लोग आ-आकर स्वर्ण मुद्राओ के ढेर लगा रहे थे। किसी का नाम नही लिखा गया था। भीसाशाह ने सोचा--'मैं सध के चरणों में क्‍या अपंण करूँ ?” उसने जेब मे हाथ डाला तो उसमे से केवल ७ द्रमक (दमडी) निकले । सन्‍्त्री वाग्मट समझ गए कि भीसाशाह को कुछ देना है। और भीसाशाह गरीब होने के कारण सकोच कर रहा था, उन ७ द्रमको को, जो उसकी गरीब को दान १५१ आज की सर्वस्व बचत थी, देने में लज्जित हो रहा था। अत मन्‍्त्री ने प्रेम से सबोचित करते हुए अपने पास बुलाया--'भीमाभाई ! क्या तुम्हे सघ के फड मे कुछ देना है ? लाओ फिर !” यो मन्त्री ने भीमाशाह का सकोच दूर करते हुए वे धरमक भाग लिए । भीसा लज्जित हो रहा था। परनल्तु मन्त्री ने उसके भावोल्लास को देकर उसके सकोच को मिटाया । यो तो वे सघोद्धार के कार्य में वे किसी का लेते ही न थे | परन्तु श्रेष्ठी लोगो ने मनाकर उन्हे इसके लिए राजी किया था । भीमाशाह ने वे ७ द्रमक भुद्ठी बन्द करके दिये। पर मन्‍्त्री तो चतुर थे। उन्होने उपस्थित सेठो को उसके ७ द्रमक बताए । सबके चेहरे से वार्भट भन्‍्त्री उनके भावों को ताड रहे थे । मानो वे कह रहे हो कि इन ७ द्रमको का क्या लेना ” वाग्भट मन्‍्त्री ने तुरन्त मुनीमजी को बुलाया भर कहा--“चिट्ठा लिखो । पहले तो चिट्ठा लिखने का विचार नही था, किन्तु अब है लिखना होगा । सबसे पहला नाम लिखो भीमा का, दूसरा मेरा और फिर इन सब भाग्यशालियो का लिखो ।” सबके मुह से स्वर फूट पडा-- पहले नाम भीमा का ? क्यो ? इमने तो !! स्त्री वास्मट ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा--'इस (भीमा) भाई ने अपनी सर्वस्व सम्पत्ति सघ को अपित की है। मैं स्वय सघोद्धार के कार्य मे सलग्न होते हुए भी अपनी सारी सम्पत्ति का शताश भी खर्च करता हूं या नही, इसमे सन्देह है । जाप सब अपनी आय का कितना भाग खर्च करते है, यह तो आप जानें । परन्तु सघ का एक सदत्य-साधर्मी भाई नीचे बैठे और हम ऊँचे बैठे, यह ठीक नही, इसमे सघ का अनादर होता है। सघ भे सब भाई समान हैं। यहाँ कोई बढा नही, कोई छोटा नही । सबका बराबर का हक है। भुझे जो सघपति का पद दिया गया है, वह तो केवल व्यवस्था के लिए है। ऊँचे आसन पर बैठने और बढप्पन प्रदर्शित करने के लिए नही ! सब भन ही मन कहने लगे--घन्य है सघपति को ! वास्तव मे भीमा का दान ही महत्त्वपूर्ण है, क्योकि वह सर्वेस्त दान है । कहना न होगा कि गरीब, का दान क्यो महत्त्वपूर्ण है, यह बात इस उदाहरण से स्पष्ट ध्वनित हो जाती है। दूसरो के दिलो से दान का चिराग जलाओ कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य स्वय इतना अधिक देने की स्थिति मे नही होता, किसी वर्ग, समाज या राष्ट्र पर आए हुए सकट को दुर करने के लिए प्रचुर मात्रा में घन को आवश्यकता होती है, उस समय भी भरीब या परिग्रह से अनासक्त व्यक्ति घबराता नही, वह दूसरे के दिलो मे दान की भावना जगाकर उस कमी की पूति कर देता है । “किसटेस्पिन” आधीपेनी के ढेर मे गले तक छिपकर बहुत खुश हुई । उसने भावविभोर होकर कहा--'काश ! मैं इतना घन बेघर गरीब लोगो के लिए दे पातो । यह राशि उसकी स्वय की नही थी । यह उन बेघर लोगो के लिए घनसग्रह गा १५२ दान: महत्व और स्वरूप के अभियान में इकट्ठी हुई थी | “किम” और 'स्कक' की ह्वाईग्रेड की तीन छात्राओं ने, जिनमे हेलन भी थी, वेघर लोगो के लिए आवास-योजना के अन्तर्गत एक नया प्रयोग किया । उन्होने बडे-बडे पटल उठाए हुए जुलूस निकाला । पटलो में यह आग्रह किया गया कि लोग अपने आधे पैनी के सिक्‍के उन्हें बेघर लोगो के आवास वनाने के लिए दे दें, क्योकि इनका प्रचलन बन्द हो रहा है। लोगो ने उन पर सिक्‍को की बोछार कर दी | कुछ सिक्के हेलन की दाहिनी आँख मे आकर लगे, जिससे उसकी आँख सूज गई । डॉक्टरो ने उसे यह राय दी कि वह जुलूस में शामिल न हो, क्योकि इससे भाँख को खतरा है। लेकिन वह उनके परामर्श की परवाह न करके अपनी सूजी हुई आँख को सजाकर जुलूस मे फिर शामिल हो गई । इस अभियान मे उन्हे बाघी पैनी के ६५ लाख सिक्के मिले | यह दान की राशि लगभग १३५४१ पौण्ड की हुईं। इस राशि से कई बेघर परिवारों के लिए मकान बनवाए गए । वास्तव मे, इन तीनो छात्राओ ने समय पर दान देकर बेघर लोगो के लिए दान देने की प्रेरणा लोक हृदय में जागृत की और दान का चिराग जलाया | इसी प्रकार कई व्यक्ति घामिक तथा स्रार्वेजनिक कार्य के लिए स्वय अपना समय देकर लोक हृदय मे दान का चिराग जलाते हैं। उसमे उन्हे जगह-जगह मागने में कष्ड तो होता है, लेकिन वे इस कष्ट को कष्ट नही मानते । ऐसे उत्साही और सेवान्नती आत्मा स्थूल दृष्टि से स्वय दान नहीं देते दिखाई देते, परन्तु सुक्ष्म रूप से बुद्धि, विचार और समय का वे बहुत बडा दान देते हैं, और जगह-जगह परिभ्रमण करके लोगो के दिलो मे दान का दीपक जगाकर अद्भूत पुण्य कार्य करते हैं । दूसरो के हृदय मे दान का चिराग जलाने के लिए कई बार मनुष्य स्वय अपनी ओर से दान की पहल करता है । सस्थाओ के लिए जहाँ बडे-बडे चदे होते हैं, वहाँ कभी-कभी एक व्यक्ति अच्छी रकम देकर पहल करता है, उसके बाद उस सस्या के लिए लोगो मे भावना जगाता है और फिर तो रुपयो की वर्षा होती रहती है। परन्तु इसका एक व्यक्तिगत पहलू भी है। कई बार व्यक्ति अकेला किसी विपन्नया दूं खी को साधारण-सा व्यक्ति समझकर अपनी ओर से उसे देकर सहायता करता है। इससे उसके मनमस्तिष्क में चिन्तन धारा फूट पडती है। और वह कृपण व्यक्ति उससे प्रेरित होकर स्वय दानपरायण बन जाता है । एक करोडपति सेठ था, पर था बडा कृपण ! उसमे उदारता नाममात्र को नही थी। दान देने का उसे नाम भी नहीं सुहाता था, एकमात्र धन बटोरना ही उसके जीवन का लक्ष्य था। एक बार मानसिक शान्ति के लिए रात को सेठ समुद्रतट पर पहुँचा । गाडी कुछ दूर खडी रख कर वह समुद्र के किनारे जाकर बैठा । उसके मुंह पर चिन्ता और विध्राद को रेखाएँ थी। कुछ ही देर मे एक दूसरे सेठ वहाँ आए । “होने इस सेठ के मुंह पर हवाइयां उडते देखी तो सोचा-बेचारा जिंदगी स्रे ऊबकर ह गरीब का दान १४५३ यहाँ आत्महत्या करने भाया होगा | कोई दु खी मालूम होता है। अत वे इस सेठ के पास गये और उसे अपने नाम पते का कार्ड तथा १० डालर भेंट दिए | तथा कहा-- “अधिक सहायता की जरूरत हो तो मेरी फर्म पर आना । इस कार्ड पर पता लिखा है।” दानी सेठ के अन्तर भे इसके दुख को देखकर करुणा का स्नोत उमड पडा था । उस सेठ के चले जाने पर कजूस सेठ के हृदय मे मथन जागा--/अहा ! भानव मे इतनी उदारता, करुणा और सेवा की भावना होती है | मैंने उनसे मागा नही, फिर भी मुझे चिन्तित देखकर सहायता कर गए। उदार सेठ की इस दानवृत्ति ने इस कजूस घनिक के अन्तर मे दानवृत्ति का दीपक प्रज्वलित कर दिया | पहली बार हृदय में नया स्पदन, नवमन्थन प्रस्फुटित हुआ । अगर सम्पन्न भनुष्य विपद्ग्रस्त मनुष्य को 4 न करे तो ससार की क्या दशा हो जाए। क्या मानव पशुओ से भी गया ता है। इस घटना के करीब १० वर्ष वाद एक बधार उसने समाचार पतन्न में पढा--- “जिस सेठ ने (जिसका नाम कार्ड पर छपा था) उसे बिना माँगे १० डालर की मदद दी थी, वह मुसीबत में है। उसके द्वार पर लेनदारो का ताता लगा हुआ है ।”” मब यह सेठ कजूस नही रहा । इसका दिल उदार, बन गया था। ७० भील दूर बैठे हुए उस सेठ को मदद करने के लिए वह कार मे बैठ कर गया । वहाँ जाकर देखा कि वह सेठ गमगीन बैठा है, उसकी प्रतिष्ठा समाप्त होने जा रही है । जिसने आज तक दूसरो को मुक्तहस्त से दान दिया था, वह स्वयं आज आफत मे है, और निरुषपाय होकर विष खाकर मर जाने की तैयारी मे है। इस भूतपूर्व कृपषण सेठ ने जाते ही उस विषादमग्न सेठ से कहा--“लो भाई | मेरे पास यह जो घन है, वह आपका ही है। इसका यथेष्ट उपयोग कोजिए । आपने ही आज से १० बषं पूर्व एक भेंघेरी रात मे समुद्रतट पर उदास बैठे हुए मेरे दिल मे दान का चिराग जलाया था | तब से मुझे प्रत्येक दु खी भनुष्य को देखकर तुरन्त देने की प्रेरणा होती है, मुझे देने मे आनन्द आता है।” यो कहकर उसने वहाँ घन का ढेर लगा दिया, भौर उस उदार सेठ की इज्जत बचा ली । वास्तव मे, भृतपूर्व कृरपषण सेठ के हृदय में अगर उदारता ओर दानवृत्ति का चिराग उक्त उदारहदय घनिक ने न जलाया होता तो शायद ही वह इतना उदार, दानी, करुणाशील और सहृदय बन पाता | रे समाज के कई सम्पन्न लोग बडे बडे उत्सव, वर्षंगाठ या त्यौहार अथवा खुशी अवसरो पर हजारो रुपये यो ही फूंक देते हैं, विवाह-शादियों मे रोशनी, बाजे, भागडानृत्य, नाचगान आदि मे बहुत-सा धन व्यर्थ खर्चंकर देते हैं, अगर वह घन अच्छे कार्यों मे लगाया जाय अथवा समाज के भूखे, दु खी, विपनन, रुणण अनाथ, असहाय एव 2४ व्यक्तियो को दान के रूप मे सहायता देने की परिपाटी डाली जाय तो दान उुन्दर परम्परा प्रचलित हो सकती है। कुछ व्यक्ति ही समाज मे ऐसे होते हैं, जो १५४ दान महत्व और स्वरूप इस पर गहराईं से विचार करते हैं, अधिकाश तो गडरिया श्रवाह में बहने वाले गता- नुगतिक होते हैं, वे इस प्रकार के दान को समझते हैं, किन्तु आटमस्बर में खर्च करके क्षणिक वाहवाही लूटना चाहते हैं। जन्मदिन दान से मनाने की एक सुन्दर परिपाटी का उदाहरण देखिए--- बडनगर का एक मध्यम वर्गीय परिवार विलेपालें में रहता है | उस परिवार में जन्मदिन मनाने की पद्धति अद्मुत है। परिवार के धालकों के जन्मदिन पर ११ ०, २१ २० या ५१ रु० मनिऑर्डर द्वारा डॉ० द्वारकादास जोशी की देख-रेख मे चलने वाले "नागरिक मडल हॉस्पिटल” को भेजे जाते हैं। म० ऑ० के कूपन पर लिखा जाता है-- * के जन्म दिवस के उपलक्ष में यह रकम भेजी जाती है, अत इसे रोगियो की सेवा मे लगावें | परन्तु जब परिवार के मालिक का ६श१वाँ जन्म दिवत भाया तो अन्तर्देशीय पत्र में लिखा गया--““६० वर्ष पूरे हो गए । बहुत ही करने की इच्छा होती है । परन्तु चहुत-सी अडचनें हैं। मेरी एक इच्छा यह है कि मेरे ६० वर्ष पूरे हो गए हैं तो मेरी ओर से ६० नेत्नरोगियो की आँखो का मुफ्त ऑपरेशन करवा दें। इसका जो भी खर्च आएगा, वह मैं तीन सप्ताह में भेज दूँगा ।” इस प्रकार अपनी मोर से ६० तेन्न रोगियों के मॉपरेशन करवा कर नेत्रदान दिये जोर ऑपरेशन का फ्रुल खर्च ८०० रु० आये, जो उन्होने भेज दिये । जन्म दिवस के अवसर मध्यमवर्गीय परिवार का दान की परिपादी का यह विचार कितना प्रशसनीय है? अगर समाज के धनीमानी लोग व्यर्थ के आडम्बर न करके खुशी के अवसरो पर इस प्रकार की दान की परिपाटी अपना लें तो कितना अच्छा हो ? समाज से अभावो फी पूति दात द्वारा हो मनुष्य जिस समाज मे रहता है, यदि वह उस समाज को श्रेष्ठ सुसस्कारी, घ॒र्मात्मा, दानपरायण, उदार और परस्पर सहयोगी देखना चाहता है, यदि वह चाहता है कि समाज मे सुख-शान्ति, अमनचैन और सुव्यवस्था हो तो उसे चाहिए कि वह समाज मे जो भी अभावग्नस्त, पीडित, अशिक्षित, निर्भन, रुप्ण, बेकार, बेरोजगार असहाय और दु खी हैं, उनका ध्यान रखे, उनको उचित समय पर कर्तव्य के रूप भें सहायता दे या दिलाकर उनकी सुयोग्य व्यवस्था करे। मनुष्य को सामाजिक प्राणी होने के नाते इन बातो पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए। यदि वह दान की परिपाटी को भूलकर अपने तुच्छ स्वार्थों की पूत्ति मे लगकर केवल घन बटोरने मे रत रहेगा तो उसे सुखशान्ति, अमनचैन या सुव्यवस्था के बदले समाज मे अशान्ति और अव्यवस्था ही देखने को मिलेगी | दान ही एक ऐसा उपाय है, जो परिवार, समाज ओर राष्ट्र में पडे हुए अभावो के गड़ढो को भर सकता है | जब सभाज' मे किसी अभाव की समय पर पूर्ति नही होती है तो अभावस्नस्त मनुष्य चोरी, डकैती, विद्रोह, घोखेबाजी या बेईमानी करने पर उतारू हो जाता है! इतना ही नही पेट का खट्डा भरने के लिए मनुष्य अपने नन्हे लाल को भी बेचने गरीब का दान श्र ओर कभी-कभी भार कर खाने को उतारू हो जाता है। इसलिए महापुरुषो ने समाज में दान की परिपादी प्रचलित की है। प्राचीनकाल मे राजा या घनिक लोग जगह- जगह दानशालाएँ, भोजनातय, धर्मंशालाएँ आदि खूलवा कर समाज के इस अभाव की पूत्ति किया करते थे | मध्ययुग में मनुष्य इस सामाजिक चिन्तन से दूर हटकर प्राय स्वार्यरत हो गया, शासक लोग प्राय. विलासी, ऐयाशी, शरावी और शिकारी बन कर इस ओर से बिलकुल लापरवाह हो गये । प्रजा की गाढी कमाई का पैसा करो के रूप में उनके खजाने में आता जरूर था, मगर वे प्राय प्रजाहित के कार्यों में उस धन का व्यय नही करते थे । यही कारण है, समाज मे व्याप्त विपमता का, गरीबी-अमीरी के भेद का, शोपक और शोपित के अन्तर का, अगर इन्हे मिटाना हो तो समाज मे दान की अजस्न धारा का वहते रहना अनिवार्य है । भहात्मा गाँधी ने इसी दृष्टि से भारतीय नरेशों की तडक-भडक को देखकर उन्हे कर्तंव्य का वोध दिया था और समाज के दरिद्रजनो के लिए दान की प्रेरणा दीथी। वात यह थी कि बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी की आधारशिला का शुभ महोत्सव होने वाला था । प० मदनमोहन मालवीय ने बहुत वडे आयोजन की तैयारी की थी। देश के प्रसिद्ध विद्वान्‌, साहित्यकार, पत्रकार, अधिकारी, नेता एवं भारतीय नरेश भी इस अवसर पर एकत्र हुए थे। राजा-महाराजा इस पुण्य अवसर पर अपनी शाही पोशाक में आए थे। राजाओ ने हीरे, मोती और जवाहरात आदि बहुमुल्य अलकार भी घारण किये हुए थे । उस अवसर पर जो भी विदेशी वहाँ पर विद्यमान ये, उन्हे ऐसा आमास हो रहा था कि भारतवर्प के दरिद्र होने की जो बात कही जाती है, वह असत्य है । महात्मा गाँवीजी पर राजामो की इस तडक-भडक और शान-शौकत का बहुत बुरा असर पढा। इसलिए महात्मा गाँधीजी ने राजा-महाराजाओो को सम्बोधित करते हुए कहा--“भाइयो ! आपने जो बहुमृल्य हीरे-जवाहरात के भाभूषण धारण किये हुए हैं, वे हमारे गरीव देश में शोभा नहीं देते। इसलिए आप इन्हे उतार दीजिए और गरीबो को सेवा मे इन्हें दान कर दीजिए । इस देश में ६० प्रति- शत गरीब और दीन-हीन हैं, इसलिए आप लोगो को जनसाधारण के वीच ऐसे आाभूषण पहनकर नही बैठना चाहिए। इस प्रकार के आमपणों से तो आपका सम्मान नही, बल्कि अपमान है। आप लोगो के पास जो भी घन है, वह आपका नहीं, वल्ति भारत वी गरीब जनता की घरोहर है। इसलिए उसे निजी कार्य व मौज शोय में नही लगाना चाहिए। गजा-महाराजाओं की सम्पत्ति यदि जनसाथधा- रण के सफट के अवसर पर सहायता के रूप में नलगार्य जाय तो बहुत उत्तम है|” गहना द्ोगा कि शस वक्तव्य से राजाबो की आसे युल गई बौर उन्हें दान फी बहुत बुष्द प्रेरणा मिली । धमविए फलिताथ यह निकया एि दान से ही समाज के कसी मो बमाव या १४५६ दान महत्व और स्वरूप कमी की पूत्ति की जा सकती है। किसी समय जब समाज के सम्पन्न वर्ग का ध्यान समाज की किसी कमी या अभाव की ओर नही जाता, तब अन्दर ही अन्दर अभाव- ग्रस्त लोगो के मन मे विद्रोही भावना या प्रतिक्रिया की भावना बनती जाती है और किसी दिन उसका विस्फोट हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान व्यक्तियों का कर्त॑व्य है कि समाज मे इस प्रकार की बढने या पनपने वाली प्रतिक्रियाओं को दान द्वारा वही रोक दें, आगे म बढने दें । इसी प्रकार समाज में जहाँ शिक्षा का अभाव हो या शिक्षा की व्यवस्था सुचारु न हो, वहाँ सुधार के लिए दान की अनिवार्य जरूरत होती है। शिक्षा के लिए दिया गया वह सामयिक दान बडा ही महत्त्वपूर्ण होता है । दानवीर एण्ड्रयूज कारनेगी की आथिक हालत बहुत ही खराब थी। इनका पिता जुलाहा था, गरीबी से तग आकर कारनेगी अमेरिका चले आए | यहाँ विद्सवर्ग में एक कारखाने मे गन्दे पुरे साफ करते थे । पडीस मे ही एक उदार व्यक्ति रिटायर्ड कनेल एडरसन ने एक फ्री पुस्तकालय खोली, जहाँ से वह भ्रति प्रप्ताह एक पुस्तक लाता और पढकर वापिस लौटा देता । इस प्रकार ७०० पुस्तकें पढली, जिससे अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया । फिर रेलवे मे एकाउटेंट की नौकरी करली | रेलवे मैनेजर भी बन गए । एक दिन एक मित्र के कहने से कारनेगी ने रेलवे की नौकरी छोड दी भौर लोहे के कारखाने मे शेयर खरीद लिए। इस कारखाने मे मैनेजर भी गए । अपनी ६० वर्ष की उम्र मे कारखाने मे अपना शेयर बेचा, तो उससे ५३ करोड रु० मिले | इस धन को उन्होने अमेरिका मे जगह-जगह फ्री पुस्तकालयो के लिए दान कर दिया। स्युयाके मे कारनेगी का विशाल पुस्तकालय है ।,दानवीर कारनेगी का कहना था--- अपने पडौसी की ७०० पुस्तको से मेरा जीवन बना दवै तो मेरा कर्तव्य है कि में भी देश की सेवा पुस्तकालय खोलकर करू ।” इसके अलावा इसने शिक्षा के लिए जगह- जगह दान भी दिया है। मतलब यह है कि राष्ट्र मे जीवन-निर्माण के लिए पुस्तकालयो का जहाँ- जहाँ अभाव था, एण्ड्यूज कारनेगी ने अपना घन दान देकर उस अभाव की पूर्ति की । फहना होगा कि इस प्रकार के उदारतापूर्वक दिये गए दान से समाज की अर्थ व्यवस्था भी सुहृढद होती है और समाज मे व्याप्त विविध अभावों की पूर्ति हो जाती है । इन पर से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि दान समाज-विकास में आने वाली, विविध रुकावटो को दूर करता है। प्रत्येक समाज प्रेमी व्यक्ति इस बात से सहमत होगा और स्वय दान देने को प्रेरित होगा और दूसरो को भी प्रेरित करेगा । साधन सम्पन्न समाज की माँ बनकर योगदान दे वास्तव में देखा जाय तो आज समाज में कई असहाय, अनाथ और निराधार ध्यक्ति हैं, जिन्हे ऐसे सहारे की जरूरत होती है। थोडे-से सहारे से वे ऊँचा उठ सकते हैं। कई लोग यह सोचा करते हैं कि इस प्रकार अपना घन लुटाने से जल्दी खर्च ६.4 गरीब का दान १५७ हो जाएगा, पर उनका यह सोचना गलत है। सत्कार्य मे दिया हुआ धन व्यर्थ नही जाता । कवीन्ध रवीच्धनाथ ठाकुर जब चीन-जापान-यात्रा कर रहे थे । तब उन्हे चीन में एक मन्दिर के सस्थापक सन्त काबोदायी जी मिले जो चीन के बालको को शान- दान देते थे । हणारो बालकों को उन्होंने पढाया-लिखाया और युसस्कार दिये । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जब उनसे पूछा कि आपको ज्ञानदान की यह प्रेरणा कैसे मिली ? तब उन्होने अपनी आपबीती सुनाई कि मैं एक बार वन में तप कर रहा था। एक दिन एक माता अपने बालक को मरुभूमि मे से होकर ले जा रही थी । भध्याह्ष हो गया था। रेत धत्यन्त तप गई थी । चला नही जाता था। अत माता ने सोचा कि दोनो की रक्षा तो सम्भव नही है इसलिए मैं स्वय अपने प्राण देकर इस बालक की रक्षा कर लूँ। उसने बालक को अपनी छाती पर लिठाया एवं अपना वस्त्र उतार कर बालक को ओढा दिया, और स्वय निवेस्त्र होकर मरण-शरण हो गयी । उस समय मैं भी उस मरुभूमि मे से होकर गुजर रहा था। वालक का रुदन सुनकर मैं उसके पास गया । और बालक को मृत माता की छाती पर असहाय अवस्था मे देख मैंने छाती से लगाया और उस मृत माता को प्रणाम करके लौटा--“भाता ! तू मेरी प्रेरणादायिनी ग्रुरु है। तूने वतंमान मे आत्म-बलिदान देकर भविष्य के बालक कौ सुरक्षा की | बस, आज से भुझे भी अपना सर्वस्व दान देकर चीन के इत भावी नागरिको के ज्ञानदान एवं विकास मे लग जाना चाहिए ।” तभी से मैं समाज की भाँ बनकर अनाथ, असहाय बालकों एवं अन्य व्यक्तियों को अपने भन्दिर के विशाल भवन मे रखता हूँ । उन्हे योग्य बनाने के लिए स्वय उपाजित घन भी मैंने दे दिया है भौर जनता से भी चन्दा एकत्र करके दान लाता हूँ । इस पर से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि साधन सम्पन्न व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ के लिए न जीए | उसे समाज के उन असहाय, साघनहटीन व्यक्तियों को अपने तन-मन-घन से सहयोग देकर जिलाकर जीने का प्रयत्न करना चाहिए। एक भारतोय विचारक का कहना है--जो स्वेच्छा से दिया जाता है, वह मीठा होता है, ओर जो जबरन लिया जाता है, चह कड्‌आा होता है। वृक्ष अपनी इच्छा से, पकने पर जो फल देता है, नीचे गिरा देता है, वह कितना मधुर होता है। परन्तु पकने से पहले ही, बलातू जो फल तोड लिया जाता है, वह मधुर नही होता, वह प्राय खट्टा, कसैला या फीका होगा | इसलिए अपनी इच्छा से दान देने मे धन का माधुय॑ है, दुसरो से बटोर-बटोर कर केवल घन-सम्रह करने मे भाषुयं नही होता । समाज में लोकप्रिय बनने के लिए उदारता की आवश्यकता है, जो दान के हारा ही व्यक्ति फो प्राप्त होती है । द्रव्य की स्वय के बहते 'रहने (दान द्वारा) भे ही अपनी सार्थकता है, एक जगह स्थिर होकर पडे रहने मे द्रव्य की द्रव्यता सार्थक नही होती । इसीलिए कधीरजी ने प्रेरणा की है-- हु है १५८ दान महंत्व और स्वरूप वानी घाढ़ो नाव से, घर मे थाढ़ो वाम, दोनो हाथ उलीचिये यही सबानो फाम' दान से बढकर घन फा फोई सदुपयोग नहीं जिस घन के लिए मनुष्य इतने उखाड-पछाड करता है, इतने श्याह-सफेद करता है, उस घन को जब मनुष्य पूर्वोक्त गलत कामो में खर्च कर डालता है भगवा चोर आदि उसका हरण कर लेते हैं, या फिर जमीन मे गडा का गडा रह जाता है, तब मनुष्य सिवाय पश्चात्ताप या पाप-सत्ताप के और क्‍या ले जाता है, साथ में ! नीतिकार इसी बात को स्पष्टतया कहते हैं--- दान भोगो नाशस्तिस्रोगतयों भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भूड क्ते तस्य तृतीया गतिभंवति !।' --घन की तीन गतियाँ (व्यय के भाग) है--दान, भोग या नाश | जो मनुष्य अपने घन का सुपात्र मे या सत्कार्य में दान नहीं करता और उचित उपभोग नही करता है, उस धन की गति सिवाय नाश के और कोई नही है ।” फिर चाहे वह धन-नाश चोरी-डकंतो द्वारा हो, लुटेरो द्वारा हो, सतान द्वारा हो या डाक्टर, वकील था सरकार द्वारा हो अथवा किसी प्राकृतिक प्रकोप-भूकम्प, वाढ, अग्निकाड आदि से हो । किन्तु दान और उपभोग इन दोनो मार्गों मे से मनुष्य यदि श्रेष्ठ मार्ग चुतना चाहे तो दान का मार्ग ही उसे चुनना चाहिए । धन, कुटुम्ब-कबीला, जमीन-नायदाद या अन्य सुखसामग्री आदि कोई भी वस्तु मनुष्य को शरणदायक नही होती । एकमात्र दानादि धर्म ही उसके लिए इहे- लोक-परलोक में शरणदायक होता है । भमानत शरीर रूपी पारसमणि से दान देकर सोना बनाओ कई मनुष्य अपने जीवन का मूल्याकन नही कर पाते हैं, वे अपनी दैनिक समस्यात्रो में इतने उलक्षे रहते हैं या गरीबी और दरिद्रता की चक्की में पिसते रहते है, वे रात-दिन किसी न किसी अभाव का रोना रोते रहते हैं । परन्तु जो कुछ प्रप्त है, उसी में सतोष करके अपने प्राप्त साघनो मे से कुछ दान देकर मानव शरीर को सोना बनाने के बदले कोयला बनाते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति जान-बुझ कर अपनी दरिद्रता का ढोल पीठते रहते है, किन्तु आलस्य छोडकर यथायें पुरुषार्थ मे नही लगते । एक दरिद्र टूटी-फूटी झौंपडी मे रह रहा था। दो चार दिन भूखे रहने के बाद उसे एक दिन दो दिन की बासी रोटी मिली, किन्तु दाल-शाक आदि कुछ भी प्राप्त न हुआ । अत वह एक पत्थर पर मीर्च पीसने लगा। इतने में एक विद्वान योगी ने द्वार पर जोर से आवाज लगाई | दरिद्र झ्ौौपडी से बाहर आया और अथु- पूरित नेन्नी से कहने लगा--आप देख रहे हैं, मेरे पास कुछ भी नही है। मैं तो ऐसा भाग्यदीन हूँ कि स्वय ही दो दिन के रूखे-सूखे वासी टुकडें खा रहा हूँ। बताइए, गरीब का दान १५६ ऐसी विपम स्थिति में आपको क्‍या दे सकता हूँ कैसे आपकी सेवा कर सकता हूँ । इतने मे ही योगी की पैनी दृष्टि उस पत्थर पर पडी, जिस पर वह नमक-मीर्च रगढ रहा था । देखते ही योगी ने कहा--तेरे पास तो ऐसी अद्भुत सम्पत्ति है, जिसकी / वरावरी घन कुवेर भी नही कर सकता ।' दरिद्र---इन शब्दों में आप मेरा उपहास कर रहे हैं, मुझे धनकृवेर बता रहे हैं। जापकी बात कुछ समझ मे नहीं आईं योगी ने वह पत्थर मगाया, जिस पर वह चटनी पीस रहा था। उसे अच्छी तरह देखा और कहा--“तू जानता है, यह क्‍या है ? यह साधारण पत्थर नही, पारसमणि है । इसका स्पर्श होते ही लोहा सोना बन जाता है ।” उस वरिद्र को विश्वास न हुआ । योगी ते उसके विश्वास के लिए तुरत अपने लोहे के चिमटे का उस पारस- मणि से स्पर्श कराया तो वह चिसमटा सोने का बन गया । दरिद्र तो अपने पत्थर का यह चमत्कार देख कर हकक्‍्कावक्‍्का-सा रह गया । वह तुरन्त योगी के चरणो में ग्रिर पडा और कहने लगा--आपने महती कृपा करके मुझे इस पत्थर का गुण बतला दिया, वरना मैं तो इसे साधारण पत्थर ही समझ रहा था । योगी ने उससे कहां--तिरा शरीर भी पारसमणि है, चाहे वह किसी भी जाति, कूल, धर्म या देश का हो । इससे तू चाहे तो अपने जीवन को सोना बना सकता है। पर तू अपने शरीर से ना समझी के कारण कोयला बना रहा है। भव भी समक्ष जा, और इस शरीर से दानादि सत्कर्म करके जीवन को अमूल्य स्वर्ण बना ले ।” दरिद्र को योगी पर श्रद्धा हो गई थी । इसलिए वह दूसरे ही दिन से दानादि- धर्म का पालन करने लगा । चमत्कार ऐसा हुआ कि प्रमु कृपा से कुछ ही दिनो में उसका कायापलट हो गया । ज्यो-ज्यो उसके पास घन बढता गया, त्यो-त्यो वह अधिकाधिक दान करता गया । उसे अब अपना जीवन सुखी, सतुष्ट, तृप्त और सार्थक प्रतीत हुआ | कृपण को भी दान देने की प्रेरणा वास्तव में मनुष्य चाहे तो अपने प्राप्त साधनों से दूसरो को बहुत कृछ दे 8४३ है, केवल मन की ही कृपणता है, मन उदार हो जाय तो कोई कमी नही । आचार्य बृहस्पति भी कहते हैं-- “स्तोकादपि नव वातव्यमदीनेनान्तरात्मना। गह॒न्यह॒नि यत्किव्चिदफापंण्य च _तत्स्मृतम्‌ ॥” प्रतिदिन अदीन अन्तरात्मा से थोड़े से साधन मे से भी यर्किचित्‌ दान देना चाहिए, इसे ही उदारता कहते हैं। यह कृपणता नही है । एक तरह से देखा जाय तो जो लोग दान न देकर घन को जोड-जोड कर रखना चाहते हैँ, साधनो का स्वय उपयोग न करके तथा दूसरों को भी उपयोग नहीं १६० दान भद्ृत्व और स्वरूप करने देते, उनके मन मे शान्ति नही होती, वे स्वय उसकी रक्षा के लिए चिच्चित रहा करते हैं, चोर, डाकू आदि का भय उन्हें रातदिन वेचेन बनाए रखता है ।इत- लिए ऋग्वेद के एक ऋषि ने भगवान्‌ से इस सम्बन्ध में प्रायंता की है-- “अदित्सन्त चित आधृणे । पृषन दाना थे चोदय॥ पणेश्‌ चित्‌ विम्रदा मन --बन्तर से मानसिक कष्ट, वाहर से परिस्थिति का कंप्ट---इन दानो प्रकार के कष्टो मे शुद्धि प्रदान करने वाले विश्वपोषक देव ! जो लोग आज दान' नहीं देता चाहते, उनके मन मे दान देने की प्रेरणा भरो | कृपण के मत को भी मूदुलल बना दो। एक भिखारी नगर में सबसे मागता हुआ भर दुआ देता हुआ चला जा रहा था| अचानक ही उसे एक मूँजी सेठ से मुठभेड हो गई । मूजी सेठ ने उससे पुछा-- 'तू माग क्यों रहा है ? तेरे से कुछ कमाया नही जाता ? मेहनत नहीं की जाती ” भिखारी मे कहा--''मैंने पृ्वेजन्म भे किसी को देंने मे अन्तराय दी होगी, इसी कार! न तो मुझे कोई काम मिलता है, न मेहनत ही इस रुप्ण शरीर से हो सकती है, इप्त- लिए मागने के सिवाय कोई चारा नही है ।' इतने मे एक सन्त ने उस कृपण से कह्ा--'सेठजी ! यह भिखारी बार-बार कुछ दो, कुछ दो' कहता है, ऐसा क्यो कह रहा है? आप इसका कुछ रहस्य समझे * वह बोला--'भागना इसका पेशा है। वह इसी तरह मागता है, इसका स्वभाव ही कुछ न कूछ भागते रहना है ।' सन्त ने कहा--'नही, यह केवल मागता ही नही, इसी वहाने लोगो को दान की सुन्दर प्रेरणा दे रहा है। नीतिकार के शब्दो मे वह कह रहा है-- 'दीयतां दीपता महामदातु फलमोहश्यम्‌ ।! --- मुझे दो, मुझे दो, मैंने पूर्व जन्म मे दान नही दिया था, घन जोड-जोड कर रखा था, कृपणतावश किसी को दिया नही और दूसरो को भी देने से रोका, इसी के फलरवरूप मुझे भिखारी व॑ यावक बनना पढ़ा है! के कया धन-सग्रही कृपण इस बात से कुछ सबक सीख सकते हैं ? अन्यथा, पर्गं तो एक दिन सिकन्दर बादशाह की तरह यही छोडकर जाता पडेगा, पल्ले पडेंगा पश्चात्ताप | अन्तिम समय में उस धन को देखकर सिवाय आँसू बहाने के और डु्छे नही हो सकेगा | अन्तिम समय में न तो कुछ दान-पुष्य करने का होश रहेगा और वे ही वैसी भावना बनेगी | अगर भावना बन भी गईं तो अपने हाथ से तो दिया नहीं जाएगा, अपने परिवार के लोग बाद मे दें था न दें, यह उनकी इच्छा पर निर्मर है | इसलिए व्यक्ति को जीते जी, अपने होशहवाश से अहनिश दान देते रहना चाहिए । वास्तव में जो कृपण होता है, वह भविष्य की चित्ता नही करता। इसी गरीब का दान १६१ कारण वह वर्तमान तो सबसे दु खी और असन्तुष्ट रहता ही है, भविष्य मे भी दु खी बनता है। एक गाँव में एक उदार गौर दानी रहता था । उसके पास न देने जैसी कोई वस्तु न थी | एक दिन एक महात्मा ने उससे कोई चीज मागी, इस पर उसने उसे देने से इन्कार कर दिया । महात्मा ने उससे कहा-- तू बहुत ही सतोषी है ।”' किसी विचारक ने महात्मा से पुछा--“आप उल्टा कैसे कहते हैं, जो उदार है, उसे लोभी भौर जो लोभी है, उसे सतोषी कहते हैं, इसका क्या रहस्य है ? मुझे बताइए ।' महात्मा ने उत्तर दिया--जो दाता है, वह इस बात को लेकर लोमी है कि उसे एक के बदले मे हजार मिलेंगे, फिर भी वह उतने दान से तृप्त न होकर अधिक से अधिक देता रहता है, भौर जो लोभी है, वह सतोपी इसलिए है कि वह कुछ भी नही देता । इसलिए उसे आगे (परलोक) में भी कुछ मिलेगा नही, फिर भी वह सन्तुष्ट होकर वैठा है। भविष्य के लिए कुछ करने की चिन्ता नहीं करता, इसलिए सतोषी कहा ।” महात्मा के मुख से दानी और लोभी के अन्तर का रहस्य प्राप्त कर आगन्तुक बहुत ही सन्तुष्ट हुआ | वास्तव भे क्रपण का स्वभाव अत्यन्त धनलोभी बन जाता है। वह दीघे दृष्टि से नहीं सोचता कि यह सारा घन मुझे यही छोडकर जाना पडेगा | इसीलिए कृपण के सम्बन्ध में सस्क्ृत के एक भनीषी ने बहुत ही सुन्दर व्यग कसा है-- फपणेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति।॥ अस्पृशन्नेव वित्तानि ये परेभ्य भ्रयच्छति ॥ ---कपण के समान दानी ससार मे न तो हुआ है औौर न ही कोई होगा | क्योकि अपने सारे घन को बिना छुए ही एक साथ दूसरो को दे देता है, अर्थात्‌ छोड- कर भर जाता है। एक सेठ अत्यन्त ही कृपण था। वह दान देने से खुद तो दुर भागता ही था, पर अयर किसी दूसरे को भी दान-पुण्य करते देखकर हृदय में जल उठता था। उसका मन मलिन, तन क्षीण होने लगता। एक दिन बाजार में एक आदमी कुछ दु खी लोगो को दान दे रहा था, उसे देखकर कजूस भाई झटपट उदास होकर वही से ही घर को लौट पडा । उसकी पत्नी अपने पति के कृपण स्वभाव से परिचित थी । इसलिए उसने अपने पतिदेव को उदास और चिन्तित देखकर पूछा--- “के कुछ कर से गिर पडा, फ॑ फुछ फिसको दोन ? फामण पुछे कन्‍्त से, फंसे भये सलीन ?* क्या आज आपके हाथ से कुछ गिर पडा है, अथवा वाजार मे ५-१० आद- मियो के दवाव से किसी अनाथ, भिखारी को कुछ दान-पुण्य दे दिया है, जिससे आप अब इतने उदास हो रहे हैं ? कजूस ने तपाक से उत्तर दिया--- १६२ दान महत्व और स्वरूप 'ना फुछ कर से गिर पडा, ना छुछ किसी को वीन । बैते देखा भौर फो, ताते भयो मलोन ॥।' --प्रिये ! न तो मेरे हाथ से कुछ गिर पढा है और न मैंने किसी के दवाब मे आकर किसी को कुछ दिया है, इस बात मे तो मैं पकका हूँ । तू मेरे स्वभाव को भली- भांति जानती है। पर भाज मैंने दान पुण्य करते हुए एक आदमी को देख लिया. बस, तभी से मेरा मन उदास हो गया । मेरा जी जल गया, उसे देखकर । मेरा कोर वश नही चला, इसलिए मैं वहाँ से उकता कर घर को चल पडा । यह है, दरिद्र और दीन-हीन मनोवृत्ति का नमुना ! ऐसा करना व्यय हू आए हुए पुण्य के अवसर को हाथ से खो देना है। अगर कोई दे नही सकता है, दें का सामर्थ्य नही है तो कम से कम दूसरो को देते देखकर प्रसन्न तो हो, उ्तव प्रशला एवं समर्थन तो करे। उसकी तरह स्वय भी प्राप्त साधनों में से यत्किचिः दान देना सीखे | फ्पण फो भिसारी से दान-प्र रणा यो तो ससार का प्रत्येक भ्रकृतिजन्य पदार्थ प्रतिक्षण दान की प्रेरणा देर रहता है। नदी, सरोवर, पहाड, सूर्य, वृक्ष आदि भी प्रत्येक मनुष्य को दांव 5 अमूल्य प्रेरणा देते रहते हैं। परन्तु मनुष्य शान्त होकर ठडे दिल से विचार करें उसे प्रकृति की उदारता का रहस्य शीघ्र ही ज्ञात हो सकता है। यही नही, यार या भिखारी से भी उसे दान की अदुभुत प्रेरणा मिलती रहती है। अगर वह आन रात्मा की आवाज सुने और प्रकृति की उदारता के रहस्य पर चिन्तन करे तो इप से क्ृपण व्यक्ति में दानशीलता आ सकती है । भिखारी से उसे दान की प्रेरणा के मिलती है ? सुनिए--- बच्चों को तरह घन इकद्‌ठा सत करो कई लोग घन जोड-जोड कर इकट्ठा करते जाते हैं । उन्हें यह भान भी न॑ होता कि आखिर इस धन का क्या उपयोग होगा ? मरते के बाद यह धन यही प रहेगा । कौन इसका उपभोग करेगा ? इससे भी मृत व्यक्ति को कोई लाभ नहीं उसका लडका या अन्य लोग उसका उपयोग करते हैं, जुए में उडा देते हैं अथ आमोद-प्रमोद मे फूंक देते हैं। और जीते जी भी घन किसका हुआ है ? उसका ला बटोर-बटोर कर रखने मे नही, दान-पुण्य करने मे है। परन्तु लोभी लोग इस वे को न सान कर धन-सचय फरने मे ही गौरव समझते हैं। उनका धन इकट्ठा कर वैसा ही है जैसे बच्चे काच के टुकड़े या अन्य कोई रग-बिरगी चीज इकट्ठी करते है एक छोटी-सी लडकी थी। वह खेलते-खेलते काँच के दुकडे इकद्ठे कर थी। रात को जब वह सोती तो अपनी जेब मे काँच के टुकड़े भर कर सोती थी' उसके पिता उसकी जेंब से रात को काच के टुकड़े निकाल कर बाहर फैक दे 4 गरीब का दान १६३ सुबह जब लडकी उठती और अपनी जेब टटोलती तो काच के दुकड़े नदारद । फिर भी वह हिम्मत नही हारती और शास तक पुन काच के टुकडो से अपनी जेब भर लेती | उसका पिता जब उसे कहते--बेटी ! तू यह क्‍या कर रही है ? ये काच के टुकड़े कही हाथ मे चुभ गये तो खून निकल आएगा ” लडकी कहती---पिताजी ! जाप भी यही कर रहे हैं! मैं अपनी जेब में काच के टुकड़े भरती हैँ, आप अपनी थैली मे नोट भर रहे है। दोनो मे अन्तर क्या है ” वास्तव मे, बच्चे के मुंह से निकले हुए इस कु सत्य पर भत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिए और अन्तर को टटोलना चाहिए कि कही वे भी उस बालिका की तरह थैली या तिजोरी मे घन इकट्ठा करके रखने की नादानी तो नही करते । आज तो धन के पीछे अनेक ग्राहक लगे हुए हैं--चोर, डकत, आयकर, विक्रय कर भादि कर लगे हुए हैं, उसका घन खीचने मे । अगर वह दान दे देता है तो बहुत अंशो मे इन खतरों से बच सकता है । यो भी कई लोग व्यर्थ की चीजों का सम्रह करते रहते हैं, जिनका फोई उपयोग नही होता । न तो वे किसी दूसरे के काम आती हैं, न उनके ही । एक राजा ने बहुत-से कीमती पत्थर, जिन्हे वह पन्ना, हीरा, भाणक, पुखराज भादि कहता था, सग्रह कर रखे ये । एक दिन एक सन्‍त आए । राजा ने उन्हे अपना कीमती पत्थरों का संग्रहालय बताया, परिचय दिया । सन्त ने पुछा--'राजन्‌ ! इन सब पत्थरों से क्या आय होती है ” आय क्या होती है, इनकी रक्षा के लिए पहरेवार रखने पढ़ते हैं, प्रतिवर्ष हजारो रुपये विश्वस्त ख़जाची को रखने मे लगते है ।' सनन्‍्त--तब तो इससे भी अच्छे दो पत्थर एक बुढिया के यहाँ हैं, जिनसे वह आटा पीस कर अपना गुजारा चलाती है। अगर इतने पडे हुए निरथेक अनावश्यक धन का उपयोग राज्य के नि्धेनो, असहायो, पीडितो विधवाओ और दुखितो के दुख मिटाने मे हो तो कितना अच्छा हो? न आपको पहरेदार रखने पड़ें और न खजाची ।' राजा ने सन्त की बात स्वीकार कर ली औौर तभी से उसने उन कीमती पाषाणों के सग्रह के बदले सन्त के निर्देशानुसार गरीबो, असहायो आदि को सहायता देने मे ध्यान दिया। सच है, घत या कीमतो आशभूषणों का दान से बढ़कर और मच्छा उपयोग क्‍या हो सकता है ? दान को विविध रुप मे प्रेरणा कुछ लोग यह आपत्ति उठाते हैं कि दान देकर स्वय कष्ट में पडना मुसीबत - उठाना ठीक नही, परन्तु यह वाद ही मानव की मूल प्रकृति के विरुद्ध है। माता से पूछिए कि वह चालक को देकर सूख पाती है, आनन्दित होती है या स्वय भकेली स्वाधिनी बनकर खाने से सुख-आनन्‍्द पातो है ? इसी प्रकार समस्त मानवो की वृत्ति होनी चाहिए। बल्कि उदारतापूर्वक प्रसन्‍नचित्त से दूसरो को देना चाहिए । १६४ दान महत्व और स्वरूप पिछले पृष्ठो मे अकित दान के माहात्म्य, दान से लाम, एवं दाने की प्रेरणा के विविध पहलुभो द्वारा यह स्पप्ट रूप से परिलक्षित हो जाता है कि दान मानव जीवन के लिए अनिवायें अग हैं। आवश्यक कर्तव्य है, दैनिक नियम है, इसका पातन न करने से मनुष्य अधोगति की भोर जाता है। तीर्थंकरी ऋषि-मुनियो, मिक्षुओ एव सन्‍्तो के धर्मोपदेशों में यत्र-तन्र इसी बात की पुष्टि मिलती है। फिर भी बुछ घोग तीत्र लोभवृत्ति के कारण दान देने मे हिचकिचाते हैं । उनके लिए भी वैदिक ऋषियों की यह बार-बार प्रेरणा है। भारतीय आचार्य दीक्षान्त भाषण के समय ग्रुरकुल के स्नातको के सामने प्राय इन्ही शिक्षा-वाक्यों को दोहराते थे । वे मानते थे कि स्नातक अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश करेगा, अत गृहस्थाश्रम का सबसे पहला गुण प्रतिदिन दात- घर्मं का आचरण करना है, तथापि अश्रद्धावश या अज्ञानवश कोई उन शिक्षावात्यो को भूल न जाय इसलिए वे पुन -पुन उसकी आवृत्ति करते थे । वे दान प्रेरक शिक्षा- वाक्य ये थे -- अडया देषमू, अश्रद्धया वेयम्‌, ल्रिया देयम, हिया वेयमू, भिया देषन सविदा देयम्‌ ।' --तैत्तिरीय उपनिषद्‌ १।११ --'श्द्धा से दान दो, अश्रद्धा से भी दो, घन-सम्पत्ति में से दो, श्रीवृद्धि न हो तो भी लोक-लज्जा से दो, भय (समाज या अपयश के डर या दवाब) से दो और सविद्‌ (सहानुभूति विवेकबुद्धि और प्रेम) से दो ।' जहाँ तक श्रद्धा से देने का सवाल है, इसमे कोई दो मत नही है कि श्रद्धा से देना ही वास्तविक दान है, परन्तु यहाँ श्रद्धा से तात्पय है, दरिद्र या मनुष्यमात्र को परभात्मा या नारायण समझ कर दो । इस श्रद्धा से दो कि मैं इस परमात्मस्व॒र् भात्मा को दे रहा हू ! अगर ऐसी श्रद्धा न हो तो अश्रद्धा से भी समाज में विषमता, अव्यवस्था और बशान्ति मिटाने हेतु दो, यो समझ कर दो कि मेरी घनसम्पत्ति मे समाज का भी हिस्सा है, इसलिए समाज के चरणों मे उपकृतभाव से अर्पेण करता मेरा कर्तव्य है। मान लो किसी के पास श्रीवृद्धि न हो अथवा श्रीवृद्धि होने पर भी श्रद्धादि न हो तो भी लोकलज्जा से दों। लोकलज्जा या लोकदवाब से भी मनुष्य दाने देता है तो अच्छा है। पाँच आदमी कहते हैं या देते हैं, उस समय अंगर बह इंकार करता है तो उसे लज्जा आती है, भर वह अमुक सेवाकायें या सावेजनिक सस्पा के लिए दान देता है तो कोई बुरा नही है। दान देने से उसकी क्पणता में तो कमी ही होगी । समाज में विषमता भी अग्रुक अशो मे दूर होगी । अगर दवाब या लोकलज्ज से भी कोई व्यक्ति दान नही देता है तो भय से दो । यह भय एक प्रकार का नैतिक भय है। भय पाकर दान देना भी बुरा नही है। यहाँ ऋषि ऐसा भय नही हैं कि अगर तुमने दान नही दिया तो हम हत्या कर देंगे या तुम्हारा घरवार पूँट लेंगे । अथवा तुम्हारे परिवार के अमुक व्यक्तियो का अपहरण कर लेगे। जैसे डाकू लोग कुछ घनिको के लडको का अपहरण करके उन्हे इस प्रकार की गरीब का दान १६९५ हैं कि अगर इतने हजार दोगे तो तुम्हे तुम्हारे बालक को सौपेंगे । इस प्रकार का भय ऋषियो के दान की प्रेरणा मे नही है । वे चेतावनी दे देते हैं कि अगर तुमने दान न किया तो समाज में विषमता बढ सकती है, गरीबो या पीडितो के मन में प्रतिक्रिया या विद्रोह की भावना जाग सकती है। इस प्रकार भय दिखाना अच्छी चीज है, धर्मे- भय है । जैसे हम कहे कि हिंसा करोगे तो अनिष्ठ होगा, झूठ बोलोगे तो क्षति होगी, दुनिया मे अविश्वास बढ जाएगा। यह भय नही, एक प्रकार की चेतावनी है कि खराब काम मत करो, करोगे तो उसका खराब फल आना निश्चित है। जैसे कोई व्यक्ति किसी के बिछौते पर साँप देखकर उससे कहे कि तुम्हारे बिछौने पर साँप है, उसे छोडकर दूर हट जाओ, तो इसमे वास्तव मे जो भय है, उसे दिखा देना हुआ । जिस बारे में मनुष्य को भय होना चाहिए, उससे भयभीत रहना उचित ही है । इसलिए ऋषि समाज को यह समझाते हैं कि समय की पुकार समक्ष कर या अमुक सकट के समय यदि उदार हृदय से तुमने दान नही दिया तो विरत्ति आ सकती है । दान न देने से जो विविध खतरे (भय) पैदा होते हैं उनसे डर कर भी यदि कोई दान देता है तो वह उत्तम है। अनिष्ट परिणाम समझाना धर्मेभय तो है, लेकिन डाकुओ को तरह की घमकी नहीं है। इस प्रकार का भय दिखाने के पीछे ऋषियो का किसी प्रकार का स्वार्थ नही है । अगर इसे घमकी देना समक्षते हैं तो जैनशास्त्रों में जगह- जगह बुरे कार्यों का फल नरक घोर नरक बताकर भय दिखाया गया है। वेद मे तो स्पष्ट धमकी दी है-- मोघमन्न' विन्दते अगप्नचेता, सत्य त्रवीसिवध इतू स तस्य | मारयेमण प्रृष्यति नो सखाय, फेवलाधो भवति केवलादो ॥ अर्थात्‌-मूर्ल निर्यंक अन्न का सग्रह करता है। वह कहता है--मैं सत्य कहता हूँ, वह अन्न जमा नही करता, अपितु अपनी हत्या करता है, यानी जो व्यक्ति अन्त जमा करके रखता है, वह अपनी मौत को बुला रहा है| जो व्यक्ति (दान दिये बिना) अकेले-अकेले खाता है, वह पुण्य का नहीं, केवल पाप का ही उपयोग करता है ।' लज्जा ओर भय भी दान देने की नैतिक शक्ति को प्रकट करने का तरीका है। इसके बाद नम्बर आता है-सविद्‌ से देने का--समाज के भ्रति करुणा, सहानुभूति पैदा होते ही दान देना चाहिए । अन्तर में जब दान देने की स्फ्रणा हो, था सकट वर्गरह के समय दान देने का बचन दिया हो, वादा किया हो तो तुर्त दान देना चाहिए | उस समय टालमद्बल नही करना चाहिए और न अपनी अन्तरात्मा को आवाज को दवाना ही चाहिए, दान देने में प्रमाद नही करना चाहिए | इस अकार ऋषियों मुनियों एवं तीर्थंकरो या आचायों की दान के लिए सहस्तमुखी प्रेरणाएँ हैं, जो विविध धर्मशास्त्रो था घर्मग्रन्यो में थत्र-सन्त अकित हैं । ७ न | अर +०- उपाजितानामर्थाना, त्याग एवं हि रक्षणम्‌ । तडागोदरसस्थाना, परीवाह इवाम्भसाम्‌ “-पचतत्र २१५०५ सचित घन का दान करते रहना हो उसकी रक्षा का एक मात्र उपाय है | तालाब के पानी का बहते रहना ही उसकी शुद्धता का कारण है| &.0--.9--०--०-०००-०७--०--००००--०--०--०-फै्‌ ००0--.०--०--००-०--०--०-०-०--०० द्वितीय अध्याय दान : परिभाषा और प्रकार मिड ढआकाज़द ० ० न्ध वान की ध्याख्याएँ सहादान और दान दान का सुरुय अग--स्वासित्व-विसजेन दान के लक्षण लौर वर्तमान के फुछ दान दान और सविभाग दान की शेणियाँ अनुकम्पादान एक चर्चा वान को विविध वृत्तियाँ अधर्भ दान और घमममें दान दान के चार भेव विविध दृष्टि से आहार दान का स्वरूप और हृष्टि आओबषध दान एक पर्यवेक्षण जानवान किया 'चक्ष्‌ दान ज्ञानवान एक लोकिक पहलू अभयवान महिमा और विश्लेषण दान के विविध पहलू चर्तमान मे प्रचलित दान एफ मोमासा दान और जतिथि सत्कार दान और पुण्य एफ चर्चा | 4 | दान की व्याख्याएँ ... पिछले प्रकरणों मे आपके सामने दान का माहात्म्य, दान से लाभ, दान की भैरणा और दान के उद्देश्य के सम्बन्ध मे सभी बातें स्पष्ट की जा चुफी हैं। इसलिए भव सहज ही प्रश्न उठता है कि वह दान है क्या चीज ! उसका लक्षण क्या है ? उसकी परिभाषा क्‍या है तथा उसकी व्याख्या और स्वरूप क्या है ? (दान! दो अक्षरों से बना हुलआा एक अत्यन्त 'वमत्कारी शब्द है। आप दान- शब्दे सुनकर चौंकिए नही । दान से यह मत समझिए कि आपकी कोई वस्तु छीन सी जाएगी, या आपको कोई वस्तु जबरन देनी होगी। दान एक धर्म है, और धर्म फेभी किसी से जबरन नही करवाया जाता । हाँ, उसके पालन करने से लाभ औौर ने पालन करने से हानि के विविध पहलू अवश्य समझाए जाते है ई ) इसी प्रकार दान कोई सरकारी टेक्स नहीं है, कोई आयकर, विक्रयकर, या सम्पत्तिकर नही है, जो जबरन किसी से लिया जाए अथवा दण्डशक्ति के जोर से उसका पालन कराया जाए । (चूँकि दान धर्म है, अथवा पुण्य कार्य है, इसलिए वह स्वेच्छा से ही किया जाता है। और न ही दान किसी पर एहसान है, जो लादा जाय )) जहाँ पर एहसान करना होता है, किसी को कुछ देकर उसे नीचा मानना द्वोता है, या उससे कोई गुलामी कराना होता है, वहाँ वह कार्य दान नहीं कहलाता, अपितु वेतन था सजदूरी देकर काम कराना होता है, अथवा वह बेगार या नौकरी है। इसी प्रकार घोबी को घोने के लिए कपडे दिये जाते हैं, दर्जी को सिलाई के लिए वस्त्र दिये जाते हैं अथवा बन्यान्य अमजीवियो को कोई चीज दी जाती है, वह वापिस लेने के लिए दी जाती है, उन्हे घुलाई, सिलाई या अन्य काम करने के बदले मे जो कुछ दिया जाता है, वह दान नही, पारिश्रमिक--मेहनताना कहलाता है। दान' शब्द का यह अर्थ भी नही है कि हम जो शरीर के मल, मुत्र, पसीने भादि का विसर्जन भूमि पर करते हैं, या अपनी गन्दी, फटी-टूटी चीजें या कूडा-कर्कंट भादि जमीन पर फेंक देते हैं, वह दान है यह भूमि को दान देना नही, अपितु विसर्जन है जो प्रत्येक प्राणी के लिए अनिवाय है, अगर वह नही करता है तो उससे अपना व इसरो का नुकसान है, स्वास्थ्य का भी और मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक भी ॥ १७० दान. परिभाषा भौर प्रकार इन' सब बातो पर पहले गहराई से विचार कर लेंगे तो आपको दान की परिभाषा बहुत ही भासानी से शीघ्र ही समक्ष मे आ जाएगी | दान का शाब्दिक अर्थ है 'देना।” परन्तु उसका भावार्थ कुछ ओर ही है। अगर दान के शाब्दिक अर्थ के अनुसार हम “दीयते इति वानम्‌! जो दिया जाता है वह दान है, यही अर्थ करेंगे तो बहुत-सी आपत्तियाँ आएँगी। ससार में असस्य चीजें एक आदमी द्वारा या एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी को दी जाती है, वे सव की सब दान की फोटि में चली जाएँगी । जैसे डाकिया चिट्ठी देता है या मनिभार्डर दैता है, उसका बह कार्य भी दान कहलाएगा । तेली, मोची, लुहार आदि विभिन्न श्रमजीवी तथा पेंटर, डिजाइनर, चित्रकार, मृतिकार, फोटोग्राफर आदि भी पैसा लेकर विविध बस्तुएँ देते हैं, वह कायं भी दान कहलाने लगेगा। इसलिए जब तक दान को वास्तविक परिमापा ज्ञात नही हो जायगी, त्व तक इधर-उधर की भ्रान्तियाँ समाप्त नही हो सकेंगी । (जन हृष्टि से दान शब्द का लक्षण कौर ध्याच्याएँ जैन धर्म के सुर्धन्य विद्यान्‌ एव सूत्र शैली मे आध् ग्रन्थ प्रणेता तत्त्वार्थ-सुन्रकार आधचायें उमास्वाति ने दान शब्द का लक्षण किया है-+- “अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गों दानम्‌'* ---अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है| । इसी तत्त्वार्थ सूत्र को केन्द्र में रख कर तत्त्वार्थभाष्य, इलोकवातिक, राज- वार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेनीयवृत्ति जादि मे इसी सुत् की व्यास्या की है, वह क्रमश दी जा रही है-- 'स्वपरोपकारोध्न्‌ प्रह , जन्‌ ग्रहाथ स्वस्यातिसर्गों वात' वेदितव्यम्‌ ।'*े 'परान्‌ प्रहच्ुद्या स्वस्यातिसर्जन दानम्‌ । जआात्मपरान्‌ प्रहार्थ स्वस्थ व्रष्यजातस्यात्नपानादे पाश्रेइतिसगों दानम्‌ ।'* स्वस्थ पराम्‌ प्रहाभिप्रायेणाइतिसर्गो दानम्‌ * 'परात्मनोरन्‌ प्राही धर्मबद्धिकरावत । दान नाम गृहिन्नतम ॥! 5 १ तत्त्वार्थे सूत्र ६१२ २ तत्त्वार्थ राज० श्लोकवातिक ह सर्वार्थ सिद्धि ६१२ ४ त्तच्त्वार्थ भाष्य ५ तत्त्वार्थ० सिद्ध सेनीया वृत्ति ६१३ ६ तत्त्वा्थंसार ४।८६ दान की व्यास्याएँ १७१ 'स्वपराध्नू हाथ दीयते इति दानम्‌ ।* 'स्वपरोपकाराय वितरणं दानम्‌ 5 आत्मन अंयसेपन्येबां रत्नत्रयसमृद्धये । स्वपरानुग्रहायेत्यं यत्स्यात्‌ तबृदानमिष्यत्ते ।/* अनुग्रहार्थ स्वोपकाराय विशिष्टग्रुणतचय लक्षणाय परोपकाराय-- सम्यग्द्शन-ज्ञान-चारित्रादिवृद्धये स्वस्यधनस्थातिसर्गोइंतिसजंन विश्राणन प्रदात दानस्‌ ।*० “अपने और दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है । इस प्रकार का अनुग्रह करने के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान समझना चाहिए ।' “दूसरे पर अनुग्रह करने की बुद्धि से अपनी वस्तु का अपंण करना दान है ।' भपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए अपने अश्नपानादि द्रव्य-समूह का पात्र में उत्सर्ग करना देना दान है।' न अपनी वस्तु का दूसरे पर अनुग्रह करने की बुद्धि से अपेण (त्याग) करना । (“घर्म बुद्धि करने की दृष्टि से दूसरे और अपने पर अनुग्रह करने वाली अपनी वस्तु का त्याग दान है, जिसे ग्ृहस्थन्रत रूप मे अपनाते हैं ।” ) अपने और दुसरे पर अनुग्रह करने के लिए जो दिया जाता है, वह दान है |” स्व और पर के उपकार के लिए वितरण करना दान है ।' अपने श्रेय के लिए और दूसरो के सम्यग्दर्शनादिरत्नन्नय की समृद्धि के लिए इस प्रकार स्वपर-अनुग्रह के लिए जो क्रिया होती है, वह दान है ।' 'अनुग्रहारथं” यानी अपने विशिष्ट गुण सचय रूप उपकार के लिए और दूसरों के सम्यन्द्शन-शान-चारिन्रादिवृद्धिलप उपकार के लिए स्व"-घन का, अति सर्जन करता>-देना दान है । इस प्रकार ये सब व्याख्याएँ तत्त्वार्थ सूञ्र॒कार के लक्षण को केन्द्र बनाकर उसके इरदेंगिदे घूमने वाली व्याख्याएँ हैं । दि हम अब क्रमश इन पर विचार व विश्लेषण करें, जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि *- जन हृष्टि से दान क्या है और क्या नही है ? 7 2 लक अत 85०८5 न ०-<२०७- ००५२० ००० ०८० ४ चुत्रकृताग वृत्ति श्ु० १। अ० ११। तथा उत्तरा० एवं कल्पसुत्र वृत्ति ८ जैन सिद्धान्त दीपिका 5 द उपासकाध्ययन ७६६ १० तत्त्वाथ॑वृत्ति श्रुव सागरीय ७३८ १७२ दान परिभाषा और प्रकार स्व-भनुप्चह क्या; क्यो और फंसे ? ननुग्रह शब्द मे यहाँ दान का उद्देश्य निहित है । किसे प्रयोजन से कोई पदार्थ दिया जाय तब दान कहलाता है, यह बात “अनुग्रह' शब्द में समाविष्ट हो जाती है। अनुप्रह का अर्थ उपकार करना होता है। दान किसी पर एहसान करने या दवाव डालने की दृष्टि से नही होता । अनुग्रह का जर्य एहसान नही है। वह खास तौर से अपने पर उपकार करना है। लेने वाला दाता को दान देने का अवसर देकर एक प्रकार से अनुग्रह करता है । वैसे अनुग्रह शब्द मे स्व और पर दोनो का अनुग्रह अभीष्ट है। पहले के कुछ व्याख्याकारो ने अनुप्रह का अर्थ दूसरे पर अनुग्रह करना--उपकार करना लिया है, परन्तु वाद में व्याख्याकारो ने इसे स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने स्व बौर पर दोनो पर अनुग्रह करने की हृष्टि से अपनी वस्तु का त्याग करना दान बताया है । सर्वप्रथम हम स्व-अनुग्रह पर विचार कर ले अपने पर अनुग्रह करने के यहाँ अनेक अर्थ फलित होते हैं, जिनमे से कुछ का तिर्देश इन व्याख्याओो मे किया गया है। एक अर्थ यह है--अपने मे (अपनी आत्मा मे) दया, उदारता, सहानुभूति, सेवा, विनय, आत्मीयता, अहिंसा आदि विशिष्ट गुणो के सचय रूप (अथवा उदुभव) उपकार करना स्वानुग्रह है । दूसरा अर्थ है--अपने श्रेय--कल्याण के लिए श्रवृत्त होना स्वानुग्रह है। तीसरा अर्थ है--अपने मे धर्मवृद्धि करना स्वानुग्रह है चौथा अर्थ है--दान के लिए अवसर भाप्त होना स्वानुग्रह है । (दान के साथ जब तक नज्जता नही आती, तब तक दान अहकार या एहसान का कारण बना रहता है। इसलिए दान के साथ उपक्ृृत भाव आाना चाहिए कि मुझे अमुक व्यक्ति ने दान' लेकर उपकृत किया) ((&नुग्रह-दाता की नज्रवृत्ति का सूचक है, वह सोचता है, दान लेने वाले व्यक्ति ने मुझ पर स्नेह, कृपा अथवा वात्सल्य दिखाकर स्वय मुझको उपकृत किया है, आदाता ने मुझ पर कृपा की है कि मुझे दान का यह पवित्र अवसर प्रदान किया है। इस प्रकार अनुग्रह शब्द के पीछे यही भावना छिपी है है ॥) भूदेव मुखोपाध्याय ने अपने पिता श्री विश्वनाथ तकंभूषण की स्मृति मे “विश्वनाथ फड्' स्थापित किया था। इस फड मे उन्होने एक लाख साठ हजार ० की स्थायी सम्पत्ति दान कर दी। इस फड से देश के सदाचारी विद्वान ब्राह्मणों को प्रति वर्ष ५०) रुपये बिना मागे घर बैठे मन्तिओऑर्डर से भेज दिया जाता था। 'एज्युकेशनल गजट में प्रकाशित कराने के लिए इस फड की प्रथम वाधिक वृत्ति का विवरण एक कर्मेचारी ने तैयार किया । उस पर शीर्षक दिया गया था---“इस वर्ष जिन लोगों को विश्वनाथ-वृत्ति दो गई थी, उनको नामावली । यह विवरण देखकर भृदेव मुखो- पाध्याय कर्मचारी पर अग्नसन्न हुए--- तुम्हे विवरण का शीषंक देना भी नही भाता दान की व्याख्याएँ १७३ शीर्षक इस प्रकार लिखो--/इस वर्ष जिन-जिन विद्वानों ने विश्वनाथवृत्ति स्वीकार करने की कृपा की, उनकी नामावली ।” वास्तव में इस वाक्य से भूदेव मुखोपाध्याय की दान के साथ नज़वृत्ति दान की परिमाषा में उक्त स्वानुग्रहकी भावना को घरितार्थ करती है । यही उपकृत भाव प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा दिये गये दान के पीछे होना चाहिए। यही दान के साथ स्वानुग्रह है। जहाँ दान के साथ अभिमान है, लेने वाले को हीन दृष्टि से देखने की भावना है, एहसान जताना, वहाँ दान का स्वानुग्रह रूप उद्देश्यपूर्ण नही होता | दान एक तरह से बेगार या सौदा बन जाता है। दान का वास्तविक फल भी तभी मिल सकता है, जब दानदाता व्यक्ति के दिल मे दान के साथ आत्मीयता हो, सहृदयता हो और लेने वाले का उपकार माना जाय कि उसने दान देने का अवसर दिया है, या दान लेना स्वीकार किया है। वैदिक दृष्टि से कहे तो प्रत्येक मनुष्य को मन में यह विचार हढतापूर्वक जमा लेना चाहिए कि मैं कुछ अन्नादि देता हैँ, वह भगवान का दिया हुआ है। अगर वह अभिमान करता है तो वह परमात्मा की दृष्टि में अपराधी है। यह भी एक प्रकार का स्वानुग्रह है। एक गृहरुथ भूखो को अन्न अपने हाथ से ही देता था, क्योकि वह योग्य-अयोग्य पाज-सुपान्न को देखकर देना चाहता था । किन्तु दान देते समय वह गम्भीर हो जाता था, मोर नीचा मुंह कर लेता था । एक बार एक महात्मा आए, उन्होने उससे पूछा--भाई ! आप दान' देते सेभय नीचा मुँह क्यों कर लेते हैं? नीचा मुख तो पापी करता है। आप तो पुण्य कार्य करते हैं, तब फिर नीचा मुँह क्‍यों करते हैं? उसमे नम्जतापूर्वक उत्तर दिया-- महात्मन्‌ । यह सब महिमा ईश्वर की है। मेरे पास क्या था और मेरा अपना भी क्या है ? अन्नादि सब ईश्वर का है, और समाज से प्राप्त हुआ है। हम भी ईश्वर के हैं । याचक लोग मेरी स्तुति करते हैं, उससे मैं शमिन्दा हो जाता हूँ । परमात्मा का शय मैं ले लूँ, यह मेरे लिए पाप है । परमात्मा की हष्टि मे हम दान का यश लूटकर अपराधी बनें, यह ठीक नही है। बैसे भी तो कई पाप गृहस्थाश्रम मे करते हैं। इस- लिए ऊँचा मुह कैसे किया जा सकता है? याचक अन्न ले जाते हैं और मेरा उपकार भानते हैं, यह भी उचित नही है। मुझे ही उनका उपकार मानना चाहिए, क्योकि मेरे धर पर आकर मुझे मेरा धर्म समझाते हैं, और मुझे पाप से मुक्त करते हैं। इसलिए में उनके सामने देख नही सकता 7 गृहस्थ की ऐसी समझ देखकर महात्मा भत्यन्त प्सन्‍न हुए और दान लेकर चल दिये । वास्तव मे उक्त सद्गृहस्थ याचको का अपने पर उपकार मानकर स्वानुग्रहवुद्ध से दान देता था। इस प्रकार का स्वानुग्रह दान के उद्देश्य को पूर्णतया चरितार्थ करता है । श्छ्ड दान परिभाषा और प्रकार दूसरे प्रकार का स्वानुग्रह है--दान के द्वारा व्यक्ति के जीवन मे धर्मवृद्धि का होना । धर्म से मतलब यहाँ किसी क्रियाकाण्ड या रढि परम्परा से नहीं है, अपितु जीवन भें अहिसा, सत्य, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रहवृत्ति की मर्यादा समता भादि से है। व्यक्ति के जीवन मे दान के साथ घर्मं के इन अगो का प्रादुर्माव हो, अथवा दुब्यंसनो का त्याग हो, तभी समझा जा सकता है, उसका दान स्वानुग्रह कारक हुआ है। अन्यथा, दान से केवल प्रतिष्ठा लूटना, प्रसिद्धि प्राप्त करना, अपितु अपने जीवन में बेईमानी, शोषणवृत्ति, अन्याय, अत्याचार आदि पापकार्यों को न छोडना कोरी सौदे- बाजी होगी । वह दान दान के उद्देश्य को पूर्ण करने वाला नही होगा । दान के साथ द्दयस्थ शैतान न बदले तो वह दान ही क्या ? सर्वोदिय की प्रसिद्ध कार्यकन्नी बिमला बहन ठकार जिन दिनो विहार मे पैदल घूम-घूमकर भूदान की अलख जगा रही थी, उन दिनो की एक घटना है। एक छोटी रियासत से होकर वे गुजर रही थी | साथ मे कॉलेज के दो-चार लडके थे | साथियो ने कहा--'इस गाँव में जाना बेकार है। राजा बडे दुष्ट हैं, शराबी हैं, जुमारी हैं, इनका हृदय परिवर्तन क्या हो सकता है ” विमला वहन ने कहा--हम जनता में जनादन का दर्शन करने निकले हैं | वगर दर्शन के मन्दिर के बाहर से ही लौट जाय, यह अच्छा नही । भूदान-आन्दोलन' मात्वनिष्ठा का अधिष्ठान है। मैं तो अवश्य ही जाऊँगी, उनके पास !” विमला बहन के साथी नही माने वे दूसरे गाँव चले गए । वे अकेली ही राजासाहब की ड्यौढी पर पहुँची | दोपहर का समय था । वरामदे में वे आराम से लेटे हुए थे। बिमला बहन के दरवाजा खटखटाया । पूछा गया--कौन है ”” उन्होने कहा--आपकी बहन आई है ! जब सुना कि बहन आई है तो चौंक पडे, आगे बढ कर इस तरह देखने लगे कि कही कोई पगली तो दरवाजे पर नहीं पहुँच गई । पूछने लगे--'यहाँ तक कैसे पहुँच पाई ? गाँव बालो ने तुम्हे बताया नही कि मैं किस प्रकार का शैतान आदमी हूँ ? भला, मेरे पास किसी भले आदमी का कोई काम हो सकता है ? तुम एक नौजवान लडकी हो तुम्हारी भलाई इसी मे है कि तुम लौट जाओ । बिमला बहन--- भाई साहब ! आप दुष्ट हैं या शराबी, मुझे इससे कया मतलब ? एक बात का जबाव दीजिए । आपके भी कोई भा-बहन है या नही ? एक सत का सन्देश ज्ेकर, एक फकीर का पैगाम लेकर दरवाजे पर पहुँची हूँ। इस तरह लौटने वाली यह बहन नही है । भूदान-यज्ञ-आन्दोलन के विचार की राखी यह बहुत भाई की कलाई मे बाघ कर ही लौटेगी, पहले नही । दुनियाँ ने उन्हे दुष्ट कहा था, शैतान कहा था, लेकिन उनकी आँखो मे आँसू छुलक पढें । आँसू क्या थे, उनकी अन्तरात्मा मे सोई हुई भलाई, घर्मवृत्ति जाय उठी, उनकी मानवता उसड पडी। हाथ जोडकर कहा--/बहन ! अन्दर पघारिए। मैं आज से शराब, भास, शिकार और परस्त्रीगमन का त्याग करता हूँ, अब तो मैं दान देने दान की व्याख्याएँ १७५ के योग्य हो गया हूँ।” यो कहकर उन राजासाहब ने सभा का आयोजन किया । सभा में ५०० एकड जेरकाश्त जमीन में से १२५ एकड जमीन उन्होने दान मे दी, बाकी गाँव वालो ने दी | इस प्रकार ४ घटे मे २१५ एकड जमीन का दान लेकर बिसला बहन उस गाँव से लौटी । ४ इस दान के साथ राजासाहब के जीवन स्वानुग्रह के रूप मे धर्मवृद्धि हुईं । तीसरे प्रकार का स्वानुग्रह है--अपने श्रेय (कल्याण) के लिए प्रवृत्त होना । व्यक्ति मे जब सोया हुआ भगवान्‌ जाग जाता है तो वह सर्वेस्व देकर अपरिग्रही बनकर कल्याणमार्ग मे प्रवृत्त हो जाता है। सत फ्रासिस एक बहुत्त बडें घनाढ्य के पुत्र थे | वे पहले अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र पहना करते थे । एक बार एक भिखारी उनकी दुकान पर आया, वह फटे कपडे पहने हुए था | उसे देखकर फ्रासिस को दया आ गई। उन्होने उसे पहनने के लिए कुछ रेशमी कपडे देते हुए कहा--'लो भाई ! ये अच्छे कपडे पहन लो ।” भिखारी ने उत्तर दिया--'महाशय ! क्षमा करे यदि मैं इन रेशमी कपडो को पहनने लगूँगा तो फिर मुझे अपने भीतर बैठा हुआ परमात्मा नही दीखेगा, क्योकि मेरी दृष्टि फिर इनकी चमक-दमक में ही उलझक्ष जाएगी । तब इन कपडो और शरीर की समाल में ही मेरी भायु समाप्त हो जाएगी । अपने परमात्मा का दर्शन कभी नही हो सकेगा । यह सुनकर फ्रासिस ने कहा---'मुझे भी ऐसा ही अनुभव हो रहा है! यह कहने के साथ ही उन्होने वे रेशमी कपडें फाड डाले और अपनी दुकान का करोडो रुपयो का सब माल गरीबो को दान मे देकर स्वय उस भिक्षक के साथ हो गए । निस्परिग्रही संत बन गए। ईसाई सतो मे सेंट फ्रासिस बहुत ऊँचे दर्जे के सत हो गए हैं । चौथे प्रकार का स्वानुग्रह है--दान' के माध्यम से अपने मे दया, करुणा, उदारता, सेवा, सहानुभूति, समता, आत्मीयता आदि विशिष्ट ग्रुणी का सचय करना । जब मनुष्य दान देता है तो मन भे इस प्रकार के उच्च विचार आने चाहिए जो दया आदि सद्गुणो के पोषक हो । अगर दान देते समय, देने के बाद या देने से पहले लेने वाले के प्रति सद्विचार नही हैं, या दया, आत्मीयता या सहानुभूति के विचार नही हैं, तो वह नाटकीय दान निकृष्ट हो जायगा | अथवा दान के साथ लेने वाले के प्रति घृणा की भावना है, उसे हीन समझकर या एहसान जता कर अभिमानपूर्वक दिया जाता है तो वह दान के लक्षण में कथित उद्देश्य को पूर्ण नही करता | इसलिए एक भाचाये ने स्वानुग्रह का अथ किया है कि अपने मे पूर्वोक्त विशिष्ट गुणो का सचय करना-स्वोपकार है | जोन० डी० रॉकफंलर का उदाहरण पहले दिया जा चुका है। अमेरिका मे रॉकफेलर अपनी करता, कृपणता और कठोरता के लिए बहुत प्रसिद्ध था। लेकिन जब उसे दु साध्य बीमारी हुई और इलाज के सारे प्रयत्न निष्फल हो गए, तब उसके जीवन में अपने पिछले कारनाभो के प्रति पश्चात्ताप होने लगा | उसके हृदय मे १७६ दान परिभाषा और प्रकार के प्रति दया, सहानुभूति और आत्मीयता की मावना उमडी और उसने अपनी सारी सम्पत्ति गरीबो को दान मे देने का निश्चय कर लिया । रॉकर्फेलर के उस दान के साथ उसके जोवन मे दुगुंणों से निवृत्ति और सदुग्रुणो का सचय हो चुका था । उसने पाप के आयशिचत्त के रूप में सारी सम्पत्ति का दान कर दिया । कई सल्थाएँ उत्तको अपने पूर्व जीवन के अनुसार दुगुंणी जान कर उसका घन ले नही रही थी, रॉकफेल